सिद्ध-
गोरख ने ज्ञान को मक्खन और कहानियां-किस्सों को छाछ बताया है । मक्खन केवल सिद्ध पुरुष ही निकाल सकते हैं,अन्य तो छाछ को ही मक्खन समझकर रसास्वादन कर रहे हैं । परन्तु ध्यान रहे, छाछ से कुछ भी शरीर को प्राप्त नहीं होता है,शरीर की सेहत के लिए तो मक्खन ही फायदेमंद होता है । इसी प्रकार आध्यात्मिकता में कहानियां केवल मनोरंजन कर सकती है परन्तु इस पथ पर आगे बढ़ने के लिए तो ज्ञान आवश्यक है । अतः शास्त्रों और संत समागम से आपको छाछ छोड़ कर मक्खन को पकड़ना होगा । तभी आप अपने उद्देश्य में सफल हो सकते हैं ।
गोरख की इसी बात को कबीर और आगे बढ़ाते हुए कहते हैं -
साधू ऐसा चाहिए ,जैसा सूप सुभाय ।
सार सार को गहि रहे,थोथा देई उडाय ॥
सत्संग और शास्त्र अध्ययन से सिद्ध पुरुष केवल सार को ही ग्रहण करता है,अन्य बातों को वह आत्मसात नहीं करता । यही सिद्ध मनुष्य की विशेषता होती है । अतः साधक और सिद्ध में मूलभूत अंतर यही दृष्टिगोचर होता है । जब साधक तत्व की बात को पहचानने लगता है और अन्य बातों को एक तरफ कर देता है,तब वह एक सिद्ध की अवस्था को उपलब्ध हो जाता है । साधक से सिद्ध होना इसी लिए कठिन है क्योंकि तत्व की बातों में वह रस उसे महसूस नहीं होता जो किस्से कहानियों को सुनकर होता है । धार्मिक शास्त्रों के प्रति रुचि पैदा करने के लिए उनमें किस्से कहानियां वर्णित की गयी है और इनके साथ ज्ञान को इस प्रकार समाहित किया गया है कि एक सिद्ध पुरुष ही इस सत्य बात को समझ सकता है । अतः साधक को इन शास्त्रों का अध्ययन करते समय अपनी सोच इस प्रकार रखनी चाहिए कि वह इन कहानियों के पीछे छुपे हुए ज्ञान को मक्खन की तरह निकाल सके । तभी इन शास्त्रों की सार्थकता है । ऐसा कर पाना केवल एक सिद्ध पुरुष के लिए ही संभव है अन्यथा किस्से कहानियां तो चलचित्रों में भी बहुत देखने को मिल जाएगी, फिर ज्ञान के लिए शास्त्रों की आवश्यकता ही क्या रह जाएगी ? अतः एक दम स्पष्ट सन्देश है यह कि शास्त्र ज्ञान के लिए बने हैं केवल मात्र कथा कथन और श्रवण के लिए नहीं ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
गोरख ने ज्ञान को मक्खन और कहानियां-किस्सों को छाछ बताया है । मक्खन केवल सिद्ध पुरुष ही निकाल सकते हैं,अन्य तो छाछ को ही मक्खन समझकर रसास्वादन कर रहे हैं । परन्तु ध्यान रहे, छाछ से कुछ भी शरीर को प्राप्त नहीं होता है,शरीर की सेहत के लिए तो मक्खन ही फायदेमंद होता है । इसी प्रकार आध्यात्मिकता में कहानियां केवल मनोरंजन कर सकती है परन्तु इस पथ पर आगे बढ़ने के लिए तो ज्ञान आवश्यक है । अतः शास्त्रों और संत समागम से आपको छाछ छोड़ कर मक्खन को पकड़ना होगा । तभी आप अपने उद्देश्य में सफल हो सकते हैं ।
गोरख की इसी बात को कबीर और आगे बढ़ाते हुए कहते हैं -
साधू ऐसा चाहिए ,जैसा सूप सुभाय ।
सार सार को गहि रहे,थोथा देई उडाय ॥
सत्संग और शास्त्र अध्ययन से सिद्ध पुरुष केवल सार को ही ग्रहण करता है,अन्य बातों को वह आत्मसात नहीं करता । यही सिद्ध मनुष्य की विशेषता होती है । अतः साधक और सिद्ध में मूलभूत अंतर यही दृष्टिगोचर होता है । जब साधक तत्व की बात को पहचानने लगता है और अन्य बातों को एक तरफ कर देता है,तब वह एक सिद्ध की अवस्था को उपलब्ध हो जाता है । साधक से सिद्ध होना इसी लिए कठिन है क्योंकि तत्व की बातों में वह रस उसे महसूस नहीं होता जो किस्से कहानियों को सुनकर होता है । धार्मिक शास्त्रों के प्रति रुचि पैदा करने के लिए उनमें किस्से कहानियां वर्णित की गयी है और इनके साथ ज्ञान को इस प्रकार समाहित किया गया है कि एक सिद्ध पुरुष ही इस सत्य बात को समझ सकता है । अतः साधक को इन शास्त्रों का अध्ययन करते समय अपनी सोच इस प्रकार रखनी चाहिए कि वह इन कहानियों के पीछे छुपे हुए ज्ञान को मक्खन की तरह निकाल सके । तभी इन शास्त्रों की सार्थकता है । ऐसा कर पाना केवल एक सिद्ध पुरुष के लिए ही संभव है अन्यथा किस्से कहानियां तो चलचित्रों में भी बहुत देखने को मिल जाएगी, फिर ज्ञान के लिए शास्त्रों की आवश्यकता ही क्या रह जाएगी ? अतः एक दम स्पष्ट सन्देश है यह कि शास्त्र ज्ञान के लिए बने हैं केवल मात्र कथा कथन और श्रवण के लिए नहीं ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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