साधक-
साधक जब शम,विचार(परमात्मा विषयक और शास्त्र अध्ययन),संतोष और संत संगम के बारे में दिन प्रतिदिन प्रगति करता जाता है तब वह शीघ्र ही साधनापथ पर अपने साध्य को प्राप्त करने के लिए अग्रसर होता है । जितने और भी साधन इस शरीर से किये जा सकते हैं,व्यक्ति को करने चाहिए । हालाँकि सभी तरीके उपरोक्त वर्णित चार तरीकों में आकर ही समाप्त होते हैं । साधक को चाहिए कि उसे उपर्युक्त चार तरीकों में से में जो भी अपनाने में सुगम लगे, उसी तरीके को अपने शरीर के माध्यम से साधने का प्रयास करना चाहिए । ज्योंही एक तरीके में आप पारंगत होंगे ,दूसरे तरीके को इस्तेमाल करना स्वतः ही प्रारम्भ कर देंगे ।
परमात्मा को जानने और पाने का प्रयास ही पुरुषार्थ कहलाता है |वैसे प्रत्येक तरीके का विस्तृत विश्लेषण किया जा सकता है परन्तु आप स्वयं इस पथ पर अग्रसर है, अतः ज्यादा विवेचना की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | हाँ, विचार के समबन्ध में थोडा गहराई में अवश्य जाना चाहिए | एक तरफ हम ध्यान केलिए विचारशून्यता की बात करते हैं और इधर साधक के लिए विचार आवश्यक बताया जा रहा है | ये दोनों बातें विरोधाभासी प्रतीत होती है |"योगवासिष्ठ"में वसिष्ठ मुनि विचार को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि व्यक्ति में जब तक विचार प्रारम्भ नहीं होते तब तक उसका परमात्मा की तरफ उन्मुख होना संभव ही नहीं है |यूँ तो सांसारिक विषयी व्यक्ति दिनभर विचारों के जाल में उलझा हुआ रहता है । वसिष्ठ ऐसे विचारों का अनुमोदन नहीं कर रहे हैं | वे कहते हैं कि विचार परमात्मा विषयक होने चाहिए |जब विचार अन्य सांसारिक विषयों से हटकर परमात्मा के बारे में मनुष्य के मस्तिष्क में उठने प्रारम्भ हो जाते हैं,तब उसे परमात्मा को और अधिक जानने की जिज्ञाषा मन में उठने लगती है | उसकी यह जिज्ञाषा प्रारम्भ में उसे शास्त्रों की तरफ ले जाती है |परमात्मा विषयक विचार जब शास्त्र पढ़ने को प्रेरित करते हैं तब एक बार तो मनुष्य को इनके अध्ययन में आनंद नहीं आता है परन्तु परमात्मा को जानने की उत्सुकता उसे शास्त्र अध्यन से विमुख नहीं कर पाएगी | सतत अध्ययन के कारण उसकी रुचि इन शास्त्रों में निरंतर बढती जाती है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
साधक जब शम,विचार(परमात्मा विषयक और शास्त्र अध्ययन),संतोष और संत संगम के बारे में दिन प्रतिदिन प्रगति करता जाता है तब वह शीघ्र ही साधनापथ पर अपने साध्य को प्राप्त करने के लिए अग्रसर होता है । जितने और भी साधन इस शरीर से किये जा सकते हैं,व्यक्ति को करने चाहिए । हालाँकि सभी तरीके उपरोक्त वर्णित चार तरीकों में आकर ही समाप्त होते हैं । साधक को चाहिए कि उसे उपर्युक्त चार तरीकों में से में जो भी अपनाने में सुगम लगे, उसी तरीके को अपने शरीर के माध्यम से साधने का प्रयास करना चाहिए । ज्योंही एक तरीके में आप पारंगत होंगे ,दूसरे तरीके को इस्तेमाल करना स्वतः ही प्रारम्भ कर देंगे ।
परमात्मा को जानने और पाने का प्रयास ही पुरुषार्थ कहलाता है |वैसे प्रत्येक तरीके का विस्तृत विश्लेषण किया जा सकता है परन्तु आप स्वयं इस पथ पर अग्रसर है, अतः ज्यादा विवेचना की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | हाँ, विचार के समबन्ध में थोडा गहराई में अवश्य जाना चाहिए | एक तरफ हम ध्यान केलिए विचारशून्यता की बात करते हैं और इधर साधक के लिए विचार आवश्यक बताया जा रहा है | ये दोनों बातें विरोधाभासी प्रतीत होती है |"योगवासिष्ठ"में वसिष्ठ मुनि विचार को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि व्यक्ति में जब तक विचार प्रारम्भ नहीं होते तब तक उसका परमात्मा की तरफ उन्मुख होना संभव ही नहीं है |यूँ तो सांसारिक विषयी व्यक्ति दिनभर विचारों के जाल में उलझा हुआ रहता है । वसिष्ठ ऐसे विचारों का अनुमोदन नहीं कर रहे हैं | वे कहते हैं कि विचार परमात्मा विषयक होने चाहिए |जब विचार अन्य सांसारिक विषयों से हटकर परमात्मा के बारे में मनुष्य के मस्तिष्क में उठने प्रारम्भ हो जाते हैं,तब उसे परमात्मा को और अधिक जानने की जिज्ञाषा मन में उठने लगती है | उसकी यह जिज्ञाषा प्रारम्भ में उसे शास्त्रों की तरफ ले जाती है |परमात्मा विषयक विचार जब शास्त्र पढ़ने को प्रेरित करते हैं तब एक बार तो मनुष्य को इनके अध्ययन में आनंद नहीं आता है परन्तु परमात्मा को जानने की उत्सुकता उसे शास्त्र अध्यन से विमुख नहीं कर पाएगी | सतत अध्ययन के कारण उसकी रुचि इन शास्त्रों में निरंतर बढती जाती है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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