विषयी-पुरुष-
जब आप शब्दों में आसक्त हो जाते हैं,तब आप केवल वे ही शब्द सुनना चाहेंगे,जो आपको प्रिय लगते हों |यही आसक्ति आपको शब्दों के प्रति विषयी बना देती है |जैसे आपको फ़िल्मी गाने अधिक पसंद है ,तो आप वही गाने बार बार सुनना पसंद करेंगे |ऐसे ही कुछ अन्य व्यक्ति भजन सुनकर प्रसन्नता अनुभव करते हैं | दोनों ही परिस्थितियां विषयी होने के अंतर्गत आती है |परन्तु भजनों में आसक्त होना आपकी उन्नति में सहायक है | धीरे धीरे भजनों की आसक्ति भी नियंत्रित होकर प्रेमाभक्ति में परिवर्तित हो जाती है , जबकि सांसारिक शब्दों के प्रति आसक्ति दिन प्रतिदिन बढाती ही जाती है |विषयी न होने का अर्थ यही है कि आप शब्दों के प्रति आसक्त् न हो , चाहे वे शब्द गाली हो, आपकी प्रशंसा के हो,भजन हो या फिर फ़िल्मी धुनें | जिस प्रकार के भी शब्द आपके कानों में पड़कर सुनाई दे रहे हों, सबको इन्द्रियों का गुण मानते हुए स्वीकार करें और अपने आपको सम अवस्था में रखें | यही इस इन्द्रिय के प्रति विषयी न होना है |सम अवस्था से अर्थ है,शब्दों को भलीभांति सुनकर और समझकर भी समता मे रहना - न तो प्रसन्नता,न ही उद्विग्नता और न ही उदासीनता |यही शब्दों के प्रति विषयी न होना है |
जब विषय के प्रति आसक्ति पैदा होती है,तब मन बार बार उस विषय को भोगना चाहता है | यह बार बार भोगने की कामना ही विषयी की पहचान है |अतः शब्दों के प्रति आसक्ति न रखते हुए उनका अवलोकन करे और अपने मन में उन शब्दों को लेकर संतुलन बनाये रखें |शब्द जब इन्द्रिय तक पहुंचेंगे,तो प्रकृति के गुणों के कारण उन्हें सुनने के लिए आप बाध्य हैं परन्तु सुनकर उसकी प्रतिक्रिया देने में आप स्वतन्त्र है |जब आप शब्दों को सुनकर भी प्रतिक्रिया नहीं देते हैं, निश्चित मानिये फिर आप उन शब्दों के प्रति विषयी नहीं है |
कान ही एक इन्द्रिय है, जिससे शेष चारों ज्ञानेन्द्रियों का विकास हुआ है | कान आकाश का प्रतिनिधित्व करती है | आकाश में विकृति आने पर वायु का प्रादुर्भाव होता है ,जिससे त्वचा नामक ज्ञानेन्द्रिय का विकास हुआ | त्वचा का विषय है-स्पर्श |स्पर्श विषय के प्रति आसक्ति क्या कर सकती है?-अगली कड़ी में |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
जब आप शब्दों में आसक्त हो जाते हैं,तब आप केवल वे ही शब्द सुनना चाहेंगे,जो आपको प्रिय लगते हों |यही आसक्ति आपको शब्दों के प्रति विषयी बना देती है |जैसे आपको फ़िल्मी गाने अधिक पसंद है ,तो आप वही गाने बार बार सुनना पसंद करेंगे |ऐसे ही कुछ अन्य व्यक्ति भजन सुनकर प्रसन्नता अनुभव करते हैं | दोनों ही परिस्थितियां विषयी होने के अंतर्गत आती है |परन्तु भजनों में आसक्त होना आपकी उन्नति में सहायक है | धीरे धीरे भजनों की आसक्ति भी नियंत्रित होकर प्रेमाभक्ति में परिवर्तित हो जाती है , जबकि सांसारिक शब्दों के प्रति आसक्ति दिन प्रतिदिन बढाती ही जाती है |विषयी न होने का अर्थ यही है कि आप शब्दों के प्रति आसक्त् न हो , चाहे वे शब्द गाली हो, आपकी प्रशंसा के हो,भजन हो या फिर फ़िल्मी धुनें | जिस प्रकार के भी शब्द आपके कानों में पड़कर सुनाई दे रहे हों, सबको इन्द्रियों का गुण मानते हुए स्वीकार करें और अपने आपको सम अवस्था में रखें | यही इस इन्द्रिय के प्रति विषयी न होना है |सम अवस्था से अर्थ है,शब्दों को भलीभांति सुनकर और समझकर भी समता मे रहना - न तो प्रसन्नता,न ही उद्विग्नता और न ही उदासीनता |यही शब्दों के प्रति विषयी न होना है |
जब विषय के प्रति आसक्ति पैदा होती है,तब मन बार बार उस विषय को भोगना चाहता है | यह बार बार भोगने की कामना ही विषयी की पहचान है |अतः शब्दों के प्रति आसक्ति न रखते हुए उनका अवलोकन करे और अपने मन में उन शब्दों को लेकर संतुलन बनाये रखें |शब्द जब इन्द्रिय तक पहुंचेंगे,तो प्रकृति के गुणों के कारण उन्हें सुनने के लिए आप बाध्य हैं परन्तु सुनकर उसकी प्रतिक्रिया देने में आप स्वतन्त्र है |जब आप शब्दों को सुनकर भी प्रतिक्रिया नहीं देते हैं, निश्चित मानिये फिर आप उन शब्दों के प्रति विषयी नहीं है |
कान ही एक इन्द्रिय है, जिससे शेष चारों ज्ञानेन्द्रियों का विकास हुआ है | कान आकाश का प्रतिनिधित्व करती है | आकाश में विकृति आने पर वायु का प्रादुर्भाव होता है ,जिससे त्वचा नामक ज्ञानेन्द्रिय का विकास हुआ | त्वचा का विषय है-स्पर्श |स्पर्श विषय के प्रति आसक्ति क्या कर सकती है?-अगली कड़ी में |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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