Thursday, October 22, 2015

सनातन शास्त्र-3

                  हमारे धर्म-शास्त्र हमें अपनी जीवन शैली को सुधारने और सही शैली अपनाने का मार्ग दिखाते हैं । मध्य काल, जब इस देश पर विधर्मियों ने आक्रमण करते हुए भारतीय सनातन संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने का असफल प्रयास किया था उस काल में हमारी सनातन संस्कृति भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी । उस अवधि में कथित ज्ञानियों ने हमारे धर्मग्रंथों की व्याख्या उन विधर्मियों के  प्रभाव में आकर अनुचित प्रकार से करना प्रारम्भ कर दिया था | यही कारण है कि हमारी आज की युवा पीढ़ी इस अनुचित व्याख्या को सही मान बैठी है |आज हमें इसी युवा पीढ़ी को हमारे सनातन शास्त्रों का सही रूप दिखाने की आवश्यकता है | शास्त्रों में वर्णित ज्ञान को अज्ञान कहकर प्रचारित किया जा रहा  है | अगर यही सब कुछ चलता रहा तो एक दिन हमारी इस भावी पीढ़ी का सनातन धर्म शास्त्रों की तरफ वापिस लौटना असंभव हो जायेगा | आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं,वह एक ऐसा दौर है जब अधर्म को धर्म कहते हुए प्रचारित किया जा रहा है |धर्म की सही व्याख्या, धर्म का सही दर्शन हमें हमारे धर्म शास्त्र ही करा सकते हैं | धर्म विज्ञानं का विषय नहीं है,यह तो केवल एक राह है जिस पर चलकर व्यक्ति अपने जीवन को सुखपूर्वक जी सकता है |
                     आज चारों ओर अभाव और अनिश्चितता का वातावरण बना हुआ है | नई पीढ़ी को अपना जीवन सुगमता पूर्वक जीने की राह दिखाई नहीं दे  रही है | उसमें आत्मबल का अभाव निरंतर बढ़ता ही जा रहा है |इस आत्मबल के अभाव के कारण वह भी अर्जुन की तरह ही विषाद ग्रस्त हो गया है | उसको भी एक कृष्ण की तलाश है, जो उसके जीवन में आकर गीता सा ज्ञान देकर जीवन को रस और उमंग से भर दे |परन्तु यहाँ इस संसार में प्रत्येक अवसादग्रस्त अर्जुन को श्री कृष्ण  जैसा सारथी उपलब्ध नहीं हो सकता , उन जैसा कोइ और  गुरु नहीं मिल सकता | आज के समय में उसे हमारे धर्म-ग्रन्थ ही सही राह दिखा सकते हैं |अतः उनकी धर्म ग्रंथों में रुचि पैदा करना और भी अधिक आवश्यक हो जाता है |
                       जीवन में अभाव किसको नहीं है ? आज तक कम से कम मुझे तो एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो कहदे कि मैं अपने जीवन से पूर्णतया संतुष्ट हूँ |यह असंतुष्टता आखिर है क्यों ? हमारी जीवन शैली इन आक्रमणकारी विधर्मियों ने ऐसी बना दी है कि हम जीवन भर संतुष्ट हो ही नहीं सकते | इस जीवन में अभावों ही अभावों का ही स्थान है क्योंकि हमारा स्वभाव ही ऐसा बन गया है कि संसार  की समस्त धन दौलत, रिद्धि  सिद्धियाँ और ऐशो आराम भी हमें संतुष्ट नहीं कर सकते | इसका एक बड़ा ही महत्वपूर्ण कारण है | हम संतुष्टि की खोज में भटकते हुए सारा संसार  छान रहे हैं |हमें वह वस्तु चाहिए जो हमें अभावग्रस्त नहीं रहने दे | भला वह इस संसार में कैसे मिल सकती है ? हमारे समस्त शास्त्र कहते हैं कि संसार से आप वह प्राप्त करने की कामना कर रहे हैं जिसकी पूर्ति करना संसार के बस में है ही नहीं | संसार स्वयं अभाव का दूसरा नाम है | भला संसार से आप अपना अभाव दूर करने की कामना कैसे कर सकते हैं ?यह तो वही बात हो गई कि  आप एक निर्धन व्यक्ति से धन देने की याचना करते हैं |
क्रमशः
                                || हरिः शरणम् ||

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