पुरुषार्थ – 6
इस जड़ शरीर (Static/physical body) में चेतनता आती है-चेतन (Conscious) के प्रवेश करने से | इस चेतन को ही आत्मा (Spirit) कहा जाता है | आत्मा “कारण शरीर” (Causal body) भी कहलाती है | अकेली आत्मा (Spirit) कभी भी किसी भौतिक शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती | किसी भी स्थूल शरीर में प्रवेश करने के लिए उसे सूक्ष्म शरीर (Subtle body) अर्थात जीव की आवश्यकता होती है | यह 8 तत्वों वाला सूक्ष्म शरीर अर्थात जीव जब आत्मा से संयोग कर लेता है तब संयुक्त रूप से उसे ‘जीवात्मा’ (Soul) कहा जाता है | जब आत्मा सहित ‘पुर्यष्टक’ अर्थात 9 तत्वों से युक्त जीवात्मा (Soul) किसी स्थूल शरीर (Gross body) में प्रवेश पाता है तभी उस जड़ शरीर में सक्रियता (Activity) आ पाती है | तभी यह भौतिक शरीर चेतन अवस्था (Consciousness) को प्राप्त होता है | यही चेतन शरीर अब कार्यरूप लेकर कर्म करना प्रारम्भ करता है | इन्ही कर्मों (Acts) को जब मनुष्य करता है तब इन्हें उस मनुष्य का पुरुषार्थ कहा जाता है | यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि आत्मा की उपस्थिति शरीर को सक्रिय अवश्य करती है परन्तु वह पुर्यष्टक के साथ उपस्थित रहते हुए भी सदैव ‘न करोति न लिप्यते’ वाली स्थिति में बनी रहती है |
कई महापुरुष आत्मा (Spirit) का अलग अस्तित्व स्वीकार नहीं करते और उनका यह कथन बहुत सीमा तक सही भी है | कारण कि जब आत्मा (Spirit) और परमात्मा (God/supreme power) एक ही है तो फिर आत्मा का अलग से अस्तित्व (Existance) स्वीकार नहीं किया जा सकता | कारण और कार्य अलग नहीं हो सकते | परन्तु ज्ञानीजन साथ ही यह भी कहते हैं कि साधारणजन को समझाने के लिए कुछ समय के लिए ऐसा मान लेना आवश्यक हो जाता है कि आत्मा, परमात्मा का एक अंश (Piece) है और उसका मूल स्रोत (Original source) परमात्मा ही है | जब आत्मा संकल्प (Determine) करती है तभी चित (Psyche/supermind) का जन्म हो जाता है | चित्त ही चैतन्य (Consciousness) का प्रतीक है | यही चित्त मनुष्य के मन (Mind) का जनक है और इसी मन के विस्तार (Extension of mind) से फिर इन्द्रियों के विषयों (Subjects of sense and act organs) का जन्म होता है | अतः यह माना जा सकता है कि आत्मा का प्रतिबिम्ब (Image) ही ‘पुर्यष्टक’ है, जिसमें मन के साथ चित्त को भी सम्मिलित कर लिया गया है |
जब मन को नियंत्रित (control) कर लिया जाता है, तब चित भी निर्मल (Refind) हो जाता है | उसी समय आत्मा का यह प्रतिबिम्ब भी स्वतः ही मिट जाता है और आत्मा स्वतन्त्र हो जाती है | आत्मा का स्वतन्त्र हो जाना ही उसका परमात्मा में विलीन हो जाना है | कार्य का कारण में विलय होना अवश्यम्भावी है | इस बात को स्पष्ट करने के लिए समुद्र और उसमें उठ-मिट रही लहरों का उदाहरण देना चाहूँगा | इसमें लहर समुद्र से अलग थोड़े ही है | लहरें उठती हैं और मिट जाती हैं | समुद्र में ही बनती है और फिर समुद्र में ही विलीन हो जाती है | आत्मा और परमात्मा का इसी प्रकार लहर और समुद्र का सा सम्बन्ध है | जिस प्रकार एक लहर समुद्र से अलग नहीं है, उसी प्रकार आत्मा परमात्मा से अलग नहीं है | जिस प्रकार समुद्र से उठते ही लहर अलग प्रतीत होती है उसी प्रकार आत्मा एक भौतिक शरीर को प्राप्त कर उसके साथ सम्बन्ध बना लेती है तब जीवात्मा हो जाती है और अपने आपको परमात्मा से अलग मानने लगती है | वास्तविकता में लहर और समुद्र एक ही हैं और आत्मा और परमात्मा भी एक ही हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||
इस जड़ शरीर (Static/physical body) में चेतनता आती है-चेतन (Conscious) के प्रवेश करने से | इस चेतन को ही आत्मा (Spirit) कहा जाता है | आत्मा “कारण शरीर” (Causal body) भी कहलाती है | अकेली आत्मा (Spirit) कभी भी किसी भौतिक शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती | किसी भी स्थूल शरीर में प्रवेश करने के लिए उसे सूक्ष्म शरीर (Subtle body) अर्थात जीव की आवश्यकता होती है | यह 8 तत्वों वाला सूक्ष्म शरीर अर्थात जीव जब आत्मा से संयोग कर लेता है तब संयुक्त रूप से उसे ‘जीवात्मा’ (Soul) कहा जाता है | जब आत्मा सहित ‘पुर्यष्टक’ अर्थात 9 तत्वों से युक्त जीवात्मा (Soul) किसी स्थूल शरीर (Gross body) में प्रवेश पाता है तभी उस जड़ शरीर में सक्रियता (Activity) आ पाती है | तभी यह भौतिक शरीर चेतन अवस्था (Consciousness) को प्राप्त होता है | यही चेतन शरीर अब कार्यरूप लेकर कर्म करना प्रारम्भ करता है | इन्ही कर्मों (Acts) को जब मनुष्य करता है तब इन्हें उस मनुष्य का पुरुषार्थ कहा जाता है | यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि आत्मा की उपस्थिति शरीर को सक्रिय अवश्य करती है परन्तु वह पुर्यष्टक के साथ उपस्थित रहते हुए भी सदैव ‘न करोति न लिप्यते’ वाली स्थिति में बनी रहती है |
कई महापुरुष आत्मा (Spirit) का अलग अस्तित्व स्वीकार नहीं करते और उनका यह कथन बहुत सीमा तक सही भी है | कारण कि जब आत्मा (Spirit) और परमात्मा (God/supreme power) एक ही है तो फिर आत्मा का अलग से अस्तित्व (Existance) स्वीकार नहीं किया जा सकता | कारण और कार्य अलग नहीं हो सकते | परन्तु ज्ञानीजन साथ ही यह भी कहते हैं कि साधारणजन को समझाने के लिए कुछ समय के लिए ऐसा मान लेना आवश्यक हो जाता है कि आत्मा, परमात्मा का एक अंश (Piece) है और उसका मूल स्रोत (Original source) परमात्मा ही है | जब आत्मा संकल्प (Determine) करती है तभी चित (Psyche/supermind) का जन्म हो जाता है | चित्त ही चैतन्य (Consciousness) का प्रतीक है | यही चित्त मनुष्य के मन (Mind) का जनक है और इसी मन के विस्तार (Extension of mind) से फिर इन्द्रियों के विषयों (Subjects of sense and act organs) का जन्म होता है | अतः यह माना जा सकता है कि आत्मा का प्रतिबिम्ब (Image) ही ‘पुर्यष्टक’ है, जिसमें मन के साथ चित्त को भी सम्मिलित कर लिया गया है |
जब मन को नियंत्रित (control) कर लिया जाता है, तब चित भी निर्मल (Refind) हो जाता है | उसी समय आत्मा का यह प्रतिबिम्ब भी स्वतः ही मिट जाता है और आत्मा स्वतन्त्र हो जाती है | आत्मा का स्वतन्त्र हो जाना ही उसका परमात्मा में विलीन हो जाना है | कार्य का कारण में विलय होना अवश्यम्भावी है | इस बात को स्पष्ट करने के लिए समुद्र और उसमें उठ-मिट रही लहरों का उदाहरण देना चाहूँगा | इसमें लहर समुद्र से अलग थोड़े ही है | लहरें उठती हैं और मिट जाती हैं | समुद्र में ही बनती है और फिर समुद्र में ही विलीन हो जाती है | आत्मा और परमात्मा का इसी प्रकार लहर और समुद्र का सा सम्बन्ध है | जिस प्रकार एक लहर समुद्र से अलग नहीं है, उसी प्रकार आत्मा परमात्मा से अलग नहीं है | जिस प्रकार समुद्र से उठते ही लहर अलग प्रतीत होती है उसी प्रकार आत्मा एक भौतिक शरीर को प्राप्त कर उसके साथ सम्बन्ध बना लेती है तब जीवात्मा हो जाती है और अपने आपको परमात्मा से अलग मानने लगती है | वास्तविकता में लहर और समुद्र एक ही हैं और आत्मा और परमात्मा भी एक ही हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||
"कई महापुरुष आत्मा (Spirit) का अलग अस्तित्व स्वीकार नहीं करते और उनका यह कथन बहुत सीमा तक सही भी है |"
ReplyDeleteक्या इसका अभिप्राय ये लगाया जाये कि बाकि बची सीमा तक ये बार स्वीकार नहीं भी की जा सकती ??
"जब आत्मा संकल्प (Determine) करती है तभी चित (Psyche/supermind) का जन्म हो जाता है | चित्त ही चैतन्य (Consciousness) का प्रतीक है | यही चित्त मनुष्य के मन (Mind) का जनक है और इसी मन के विस्तार (Extension of mind) से फिर इन्द्रियों के विषयों (Subjects of sense and act organs) का जन्म होता है | "
ReplyDeleteआत्मा संकल्प कैसे करती है - ये बात स्पष्ट करने की कृपा करे |