पुरुषार्थ – 26-धर्म-3
धर्म के लक्षण -
हमारे सनातन शास्त्रों में धर्म की
व्याख्या विभिन्न प्रकार से की गई है | सभी का अनुसन्धान करने पर हम पते हैं कि सब
एक ही प्रकार की सोच रखते हैं | धर्म का अर्थ है – “व्यक्ति का कर्तव्य” (Duty
as a human being) | जब मनुष्य को परमात्मा ने अपनी ही सर्वश्रेष्ठ
कृति के रूप में प्रस्तुत किया है तो उसका कर्तव्य भी शेष सभी प्राणियों से अलग ही
होगा | वैशेषिक दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद ने ‘वैशेषिक-सूत्र’ में धर्म के बारे
में कहते हैं –‘यतोभ्युदयनिरुश्रेयस सिद्ध: स धर्मः’ अर्थात जिससे अभ्युदय (सांसारिक
सुख) और निरुश्रेयस (आध्यात्मिक कल्याण) दोनों ही प्राप्त हो जाये, वही धर्म है |
धर्म का यह लक्षण स्पष्ट रूप से भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों पक्षों में समन्वय
(Coordination) स्थापित करता है | जो धर्म आध्यात्मिक पक्ष (Spiritual
part) की अवहेलना (Avoid)
कर केवल भौतिक उन्नति (Materialistic development) को ही केंद्र में रखता है, वह एकांगी (Unilateral or one sided) है, धर्म नहीं है |
मनुस्मृति में धर्म के चार स्रोत
बताये गए हैं – श्रुति(revelation), स्मृति(remembrance), सदाचार (moral) तथा जो अपनी आत्मा (soul) को प्रिय लगे | धर्म में सबका कल्याण निहित (include) है | सर्व के कल्याण (Well being of all) से इसमें
नैतिकता(morality), आदर्श (ideal) और
मूल्य (value) समाहित (Include) हो गए
हैं | गौत्तम ने अपने धर्मसूत्र में कहा है –
‘अथाष्टा वात्मार्गुणा: दया सर्वभूतेषु: क्षान्तिरनसूया शौच मता मासौ
मंगलमय कार्यण्य स्पृहति |’
अर्थात सब प्राणियों पर दया(kindness), क्षमा(forgiveness), अनुसूया (आलोचना और ईर्ष्या न करना), शुचिता(निष्कपटता,cleanness), अतिश्रम वर्जन(avoid over working) , शुभ में
प्रवृति (auspious), दानशीलता (liberal) तथा निर्लोभता(लोभ रहित), ये आठ आत्म-गुण हैं अर्थात
ये धर्म हैं |
उपनिषदों में कहा गया है कि धर्म समस्त
विश्व का आधार है, क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति के आचरण की सभी वे बुराइयाँ दूर हो
जाती हैं, जो विश्व कल्याण में बाधक हैं | कौटिल्य ने धर्म को एक शाश्वत-सत्य मन कहा
है, जो समस्त संसार पर शासन करता है | बौद्ध धर्म के अनुसार धर्म अच्छे तथा बुरे,
सत्य और असत्य में अंतर को स्पष्ट करता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||
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