पुरुषार्थ-32-धर्म-9
युधिष्ठिर के इस प्रकार कहने से यक्ष ने अनेक प्रश्न पूछे | युधिष्ठिर ने
सभी के उचित उत्तर दिये | इससे संतुष्ट होकर यक्ष ने कहा - "राजन ! तुमने
मेरे प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर दिये हैं, इसलिए चारों में से जिस एक भाई को तुम चाहो, वह जीवित हो सकता है |"
युधिष्ठिर ने
कहा - "आप मेरे नकुल को
जीवित कर दें |"
यक्ष ने चकित होते हुए कहाः "तुम राज्यहीन होकर
वन में भटक रहे हो | शत्रुओं से तुम्हें अंत में युद्ध करना है, ऐसी दशा में अपने महापराक्रमी भीमसेन
या शस्त्रज्ञ चूड़ामणि अर्जुन को छोड़कर नकुल को जिला देने की इच्छा तुम्हे क्यों
है ?"
ध्यान
दीजिये, युधिष्ठिर ने प्रत्युतर में जो कहा वही वास्तव में धर्म है | उन्होंने कहा
- "यक्ष ! राज्य का
सुख या वनवास का दुःख तो भाग्य अनुसार मिलता है, किंतु मनुष्य को धर्म का त्याग
नहीं करना चाहिए | जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म स्वयं
उसकी रक्षा करता है | इसलिए मैं धर्म को नहीं छोड़ूँगा | कुंती व माद्री दोनों
मेरी माताएँ हैं | कुंती का एक पुत्र, मैं
जीवित हूँ | अतः मैं चाहता हूँ कि माता माद्री का वंश भी नष्ट न हो | आप नकुल को
जीवित करके दोनों को पुत्रवती कर दो |"
यक्ष
युधिष्ठिर का उत्तर सुन प्रसन्न हो गया | वह बोला - "पुत्र! तुमने अर्थ और काम से भी
समता का विशेष आदर किया है, अतः तुम्हारे सभी भाई जीवित हो
जायें | मैं तुम्हारा पिता धर्म, तुम्हें देखने तथा तुम्हारी धर्मनिष्ठा की
परीक्षा लेने आया था।" इस प्रकार धर्म ने अपना स्वरूप प्रकट कर दिया | चारों
मृत पाण्डव तत्काल उठ बैठे |
धर्म का प्रत्येक परिस्थिति में
पालन करने वाले की सदैव जय होती है | इसी कारण से युधिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता
है | इस दृष्टान्त से जो मुख्य सन्देश निकल
कर आता है कि हमें सभी स्वार्थों से ऊपर उठकर हमारे अंतर्मन की बात को महत्त्व देना
चाहिए |
यहाँ आकर योगवासिष्ठ में धर्म के जो चार चरण बतलाये गए हैं, वे ही
धर्माचरण के लिए सर्वोत्तम प्रतीत होते हैं | ये चार चरण हैं - सत्य (truth), अहिंसा (nonviolence) अथवा दया (kindness) , तप (penance) और दान (donation) | इन चारों के विलोम (opposite) अर्थात विपरीत होना
अथवा चलना ही अधर्म है | धर्म की चर्चा को यहीं समाप्त करते हुए आइये, अब हम सभी के
सर्वाधिक प्रिय विषय अर्थ की ओर चलते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति –
डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः
शरणम् ||
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