पुरुषार्थ – 14
सब शास्त्रों का सन्देश (Message)
एक ही है | अतः किसी भी धर्मग्रन्थ से शास्त्र-अध्ययन प्रारम्भ किया जा सकता है | मेरी मान्यता है कि प्रारम्भ
श्रीरामचरितमानस, जो कि गोस्वामी तुलसीदासजी की एक अमर कृति है, उससे प्रारम्भ
करना उपयुक्त होगा क्योंकि इस ग्रन्थ को पढ़ना और समझना आसान प्रतीत होता है | यह
ग्रन्थ अधिक प्राचीन भी नहीं है और इसकी भाषा भी साधारण जन के समझ में आने वाली है
| यह बात विशेष है कि इस ग्रन्थ में अथाह ज्ञान भरा हुआ है | इस ग्रन्थ का अभ्यास
करने के उपरांत श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत् महापुराण का अध्ययन किया जाना
चाहिए | इतने धर्म शास्त्रों का अभ्यास ही मेरे अनुसार एक साधारण व्यक्ति के लिए
पर्याप्त होना चाहिए | फिर भी अगर रुचि हो तो अन्य ग्रन्थ जैसे उपनिषद आदि भी पढ़े
जा सकते हैं | हमारे सनातन शास्त्र असंख्य हैं | जितना ज्ञान इन सनातन शास्त्रों
में भरा हुआ है, आज तक किसी अन्य धर्म के ग्रंथों में तो क्या, किसी भी क्षेत्र की
पुस्तकों में आपको नहीं मिलेगा |
शास्त्र अभ्यास से व्यक्ति के गुणों
में तो परिवर्तन आता ही है, साथ ही साथ उसके जीवन में दु:खों का प्रभाव भी दूर होना
परिलक्षित (Visible) होने लगता है | उसमें अहंता
(Selfishness) और ममता (Affection) कम
होने लगती है | विषयों में आसक्ति कम होने लगाती है और जीवन सञ्चालन सुगम होता
जाता है | उसका स्वभाव भी शांत होने लगता है और क्रोध पर नियंत्रण स्थापित होने
लगता है | जितने भी विकार हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईर्ष्या आदि सभी धीरे
धीरे दूर होने लगते हैं | फिर भी पुरुषार्थ के लिए शास्त्र अभ्यास के योगदान को अधिकतम
25 प्रतिशत तक ही माना गया है, इसका कारण यह है कि शास्त्रों की व्याख्या (Elaboration)
स्वयं के द्वारा ही की जाती है | यह व्याख्या सही भी हो सकती है और
गलत भी | अतः केवल शास्त्र पढ़ना ही पर्याप्त नहीं है, उनको पढ़कर, समझना भी आवश्यक
है | इसके लिए व्यक्ति को गुरु की आवश्यकता पड़ती है | इसीलिए कहा जाता है कि गुरु
के बिना ज्ञान अधुरा ही रहता है | प्राचीनकाल में गुरुकुल हुआ करते थे और आज के
युग में विद्यालय | शास्त्र पठन के बाद उसकी उपयोगिता और उसे आचरण में किस प्रकार
लाया जाये, यह सब सीखना है तो फिर गुरु की शरण में जाना ही होगा |
क्रमशः कल से ‘गुरु की भूमिका’अर्थात ‘गुरु-कृपा’
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||
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