Saturday, October 20, 2018

पुरुषार्थ-25-धर्म-2


पुरुषार्थ – 25-धर्म-2  
             हमारी सनातन संस्कृति का प्राण धर्म है परन्तु हमारे कथित सभ्य समाज (So called cultured society) ने ‘धर्म’ शब्द को जिस प्रकार समझा है वह अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है | आज धर्म को केवल पूजा पाठ और उपासना पद्धति से जोड़ दिया गया है, जबकि इन कर्मकांडों से धर्म का कहीं दूर दूर तक लेना देना नहीं है | आपके कर्मकांड, पूजा पद्धति और इनको विविध प्रकार से समझाती हुई पुस्तकें आपका व्यक्तिगत मामला (Personal matter) हो सकता है | यह सब आपकी निजता (Personality) को अवश्य ही प्रकट करता है परन्तु यह सब आपका धर्म निर्धारित नहीं करता | एक ही प्रकार की पूजा पद्धति और रहन सहन आपका समाज (Society) बना सकती है, वह आपका संप्रदाय (Community) निर्धारित कर सकती है परन्तु आपका धर्म नहीं | अतः इस “धर्म” शब्द को, इस शब्द की आत्मा को जाने और समझे बिना इसका अनुचित प्रयोग करना अनुचित ही नहीं निंदनीय भी है | आज किसी को भी पूछो कि ‘तुम्हारा धर्म क्या है’, प्रत्युतर में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि ही सुनने को मिलेगा | वास्तविकता यह है कि ये सभी कथित धर्म, ‘धर्म’ न होकर सम्प्रदाय मात्र है | एक सम्प्रदाय के लोगों की जीवन शैली, पूजा पद्धति और ईश्वरीय विश्वास लगभग एक समान (Similar) होता है | सभी सम्प्रदायों में चाहे मत विभिन्नता (Difference) कितनी ही हो परन्तु सबका धर्म एक ही होगा | इस बात को आप किसी भी प्रकार से नकार नहीं सकते | कोई भी संप्रदाय अगर अपने धर्म को किसी अन्य धर्म से अलग अथवा श्रेष्ठ भी मानता है तो यह आप मान लीजिये कि वह “धर्म” के अतिरिक्त किसी अन्य विषय की बात कर रहा है | सभी सम्प्रदायों का धर्म भी एक ही होता है, पूजा पद्धति भिन्न भिन्न हो सकती है | अतः आवश्यकता है कि सर्वप्रथम हम  अपने “धर्म” को जानें और पहिचाने और सम्प्रदायवाद से ऊपर उठें | 
             अगर ‘धर्म’ का सम्बन्ध ईश्वरीय विश्वास, पूजापाठ और संप्रदाय आदि से नहीं है तो फिर “धर्म” क्या है ? यह प्रश्न पूछना जितना आसान है, उसका उत्तर ढूंढ पाना उतना ही मुश्किल है | इसका कारण यह है कि हमने विभिन्न सम्प्रदायों के ठेकेदारों से इस शब्द की व्याख्या को कई वर्षों से इतना अधिक आत्मसात (Adapt) कर लिया है कि हम अपने अपने सम्प्रदायों को ही अपना धर्म मान बैठे हैं | सम्प्रदाय कहीं से भी गलत नहीं है और न ही कोई सम्प्रदाय कभी गलत हो सकता है | विभिन्न सम्प्रदाय होने भी आवश्यक है क्योंकि सम्प्रदाय और उनसे जुड़े शास्त्र हमें अपने “धर्म” के बारे में समुचित जानकारी उपलब्ध कराते हैं | हमारे अपने सम्प्रदाय के ज्ञानीजन समय समय पर इन शास्रों और पुस्तकों से हमें निर्देशित करते रहते हैं | अगर कोई कथित ज्ञानीजन इन पुस्तकों की व्याख्या गलत रूप से हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है तो यह उसकी गलती है, संप्रदाय अथवा उससे जुडी पुस्तकों की नहीं | अतः आज के इस समय में यह अत्यावश्यक हो गया है कि हम अपनी धार्मिक पुस्तकों को स्वयं पढ़ें और अगर कोई व्यक्ति इनमे वर्णित ज्ञान को गलत रूप से प्रस्तुत कर रहा हो, तो उसका खुलकर विरोध (Oppose) करें | किसी भी संप्रदाय के शास्त्र आपको “धर्म” के बारे में दिग्भ्रमित (Misguide) नहीं कर सकते, यह मेरा दावा ही नहीं बल्कि सत्य भी है | आइये, अब हम यह जानने का प्रयास करें कि हमारा “धर्म” क्या है ? धर्म के क्या लक्षण है अर्थात धर्म के अंतर्गत क्या क्या करना होता है ?
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

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