Wednesday, October 10, 2018

पुरुषार्थ-15


पुरुषार्थ – 15
गुरु की भूमिका – (गुरु-कृपा)-
         शास्त्र अभ्यास के उपरांत भी शास्त्रों में वर्णित ज्ञान को समझ पाना प्रत्येक व्यक्ति के वश की बात नहीं है | यहाँ आकर जीवन में गुरु की भूमिका स्पष्ट हो जाती है | जिस प्रकार शास्त्र अभ्यास का योगदान 25 प्रतिशत बताया गया है, उसी प्रकार पुरुषार्थ प्राप्ति के लिए गुरु का योगदान 50 प्रतिशत बताया गया है | अगर केवल मात्र शास्त्र अध्ययन से ही ज्ञान प्राप्त हो सकता तो फिर गुरुकुल और विद्यालयों की भी कोई आवश्यकता नहीं होती और न ही गुरु और शिक्षकों की | एक सर्वेक्षण बतलाता है कि विद्यालयों के नियमित विद्यार्थी जो कि परीक्षा में बैठते है, वे पांच गुना अधिक सफल होते है उन परीक्षार्थियों की तुलना में, जो कि स्वयंपाठी होते हैं | इसी से हम गुरु की भूमिका के महत्त्व को समझ सकते हैं | पढ़ लेने मात्र से ही ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता | गुरु ही आपको उस ज्ञान की उपयोगिता और महत्त्व को समझा सकता है |
             गुरु का अर्थ है, जिसमे गुरुत्व हो | गुरुत्व अर्थात आकर्षण | जिस किसी भी विषय में आपकी रुचि (Interest) हो और आप उस विषय को गहराई से (Deeply) जानने की इच्छा रखते हो, आपको वह विषय आकर्षित करेगा ही यह स्वाभाविक (Natural) है | जहाँ से उस विषय का सम्पूर्ण और स्पष्ट ज्ञान आपको मिल सकता है, वह स्रोत (Source) गुरु कहलाता है | गुरु के प्रति आकर्षण आपका इसीलिए होता है क्योंकि आप जानते हैं कि जिस विषय के ज्ञान की आपको आवश्यकता है, वह ज्ञान इस गुरु के पास उपलब्ध है | गुरु के पास उस विषय का केवल पुस्तकीय ज्ञान ही नहीं है बल्कि उसके पास उस विषय का अनुभव (Experience) भी होता है | विषय का अनुभव होना ही गुरु में आकर्षण (Attraction) पैदा करता है | जिस प्रकार मधुमक्खी (Honey bee) को किसी फूल से अधिक मधु मिलने की सम्भावना नज़र आती है, वह उसके आकर्षण में उस फूल तक पहुँच जाती है | गुरु में भी इसी प्रकार का आकर्षण होता है, जिसे गुरुत्व कहा जाता है |  गुरु में यह गुरुत्व पैदा होता है, ज्ञान के द्वारा शुद्ध हो जाने से, ज्ञान का अभिमान (Ego) होने से नहीं | यही कारण है कि जब आप गुरु के पास जाते हो तब वह सबसे पहले आपके शास्त्रीय ज्ञान की परीक्षा लेता है और फिर वह यह अनुमान लगाता है कि आपके इस ज्ञान को सुन्दरता किस प्रकार प्रदान की जाये जिससे वह आपके लिए उपयोगी सिद्ध हो सके | प्रायः शिष्य जब शास्त्र पठन से पैदा हुए ज्ञान के बोझ तले दबा होता है तब वह अपने आपको गुरु से अधिक ज्ञानी भी समझने लग जाता है | ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम गुरु उसको इस तथाकथित ज्ञान (So called knowledge) से मुक्ति दिलाता है | उसके बाद ही वह उसको ज्ञान के नए आयाम (angle or dimension) से परिचय करवाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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