Friday, October 26, 2018

पुरुषार्थ-31-धर्म-8


पुरुषार्थ-31-धर्म-8-
           अभी तक हमने धर्म पर बड़ी गंभीर चर्चा की है | धर्म क्या है, इसको जानना बड़ा ही कठिन है और बड़ा सरल भी | कठिन इसलिए कि धर्म और अधर्म को एक बारीक रेखा विभाजित करती है जिससे कई बार हम अधर्म को धर्म समझ बैठते हैं और सरल इस दृष्टि से है कि जो बात हमारे अंतर्मन को सुखद और शास्त्रोक्त लगे, जिस कर्म को करने में हमें कठिनाई और घबराहट नहीं हो वही धर्म है | इससे अधिक सरल शब्दों में धर्म को स्पष्ट नहीं किया जा सकता | एक दृष्टान्त के साथ धर्म पर चर्चा का समापन करना चाहूँगा जिसे मैंने Facebook पर किसी मित्र की post से लिया है |
                    वनवास के समय पाण्डव एक दिन घूमते घूमते थककर एक विशाल वटवृक्ष के नीचे विश्राम करने बैठ गये। उस समय उन्हें प्यास भी लगी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने नकुल से पानी लाने को कहा | नकुल ने वृक्ष पर चढ़कर देखा तो एक स्थान पर हरियाली तथा जल होने के अन्य चिह्न देखकर वे उसी ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचकर जैसे ही वे सरोवर में उतरे उन्हें अदृश्य वाणी सुनाई दीः "तात ! इस सरोवर का पानी पीने का साहस मत करो। पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो, उसके बाद पानी पीना और ले जाना।"
                 नकुल बहुत प्यासे थे | उन्होंने उस बात पर बहुत ध्यान नहीं दिया और सरोवर का जल पीने लगे | जल पीते ही वे निर्जीव होकर पृथ्वी पर गिर पड़े | इधर नकुल को गये बहुत देर हो गयी तो युधिष्ठिर ने सहदेव को भेजा | उनको भी वही अदृश्य वाणी सुनाई दी | उन्होंने भी ध्यान नहीं दिया और जल पीते ही वे भी प्राणहीन होकर गिर गये | फिर धर्मराज ने एक एक कर अर्जुन और भीमसेन को भी भेजा | उनकी भी यही दशा हुई |
            जब कोई वापस नहीं लौटा तब युधिष्ठिर बहुत चिंतित हुए। बहुत थके होने पर भी स्वयं ही उस सरोवर के पास पहुँचे | अपने प्राणप्रिय भाइयों को पृथ्वी पर प्राणहीन अवस्था में पड़े देखकर उन्हें बहुत दुःख हुआ | देर तक भाइयों के लिए शोक करके अंत में वे भी जल पीने को उद्यत हुए | उसी समय उन्हें भी वही अदृश्य वाणी सुनाई दी - "इस जल पर मैंने अधिकार कर रखा है | जल पीने से पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो | मैंने ही तुम्हारे चारों भाइयों को मारा है | यदि तुम उत्तर नहीं दोगे तो पाँचवें तुम भी इन्हीं की तरह प्राणहीन होकर गिर पड़ोगे |"
युधिष्ठिर ने पूछाः "तुम कौन हो ?"
"मैं बगुला हूँ | "
"यह काम किसी पक्षी का तो नहीं हो सकता |"
"मैं कोरा जलचर पक्षी नहीं हूँ, यक्ष हूँ |"
तब धर्मात्मा युधिष्ठिर ने उस विशालकाय यक्ष को वृक्ष के ऊपर बैठे देखकर कहा -
"यक्ष ! मैं दूसरे के अधिकार की वस्तु नहीं लेना चाहता | तुमने सरोवर के जल पर पहले ही अधिकार कर लिया है तो यह जल तुम्हारा रहे। तुम जो प्रश्न पूछना चाहते हो पूछो, मैं अपनी बुद्धि के अनुसार उनका उत्तर देने का प्रयत्न करूँगा | "
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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