Wednesday, October 24, 2018

पुरुषार्थ-29-धर्म-6


पुरुषार्थ – 29-धर्म-6
                     सत्य के मार्ग पर चलना, सभी प्राणियों के प्रति दया का भाव मन में रखना, परमात्मा और सत्य की प्राप्ति के लिए तप करना और असहायों की दान देकर सहायता करना आदि सभी धर्म के अंतर्गत आते हैं और ऐसे धर्म मार्ग पर चलना वर्तमान मानव जीवन में पुरुषार्थ करने से ही संभव है | इसके लिए पूर्वजन्म का पुरुषार्थ यानि दैव, प्रारब्ध किसी उपयोग के नहीं है | संसार में जब मानव जन्म लेता है तब वह किसी भी प्रकार के व्यवहार और आचरण के प्रति सपाट कोरे कागज (Blank paper) की तरह होता है | उसमे और अन्य मूक प्राणियों में किसी भी प्रकार का अंतर आपको नज़र नहीं  आएगा | उसमे ‘धर्म’ का स्फुरण (Ignition) वर्तमान जीवन में होना ही संभव है | यह स्फुरण स्वतः (automatically) ही होना संभव नहीं है | इसके लिए पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है | यही कारण है कि चारों पुरुषार्थ में धर्म एक मुख्य पुरुषार्थ है |
            भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म में धर्म को विस्तृत रूप से स्पष्ट किया गया है | जैन धर्म के ग्रन्थ ‘तत्वार्थ-सूत्र’ में धर्म के दस लक्षण बताये गए हैं | 1.उत्तम क्षमा 2.उत्तम मार्दव-ह्रदय की कोमलता,सरलता,मृदुता (leniency) 3.उत्तम आर्जव –सीधापन,सहजता (rectitude) 4.उत्तम शौच- भीतर और बाहर की शुद्धि  5. उत्तम सत्य 6. उत्तम संयम 7. उत्तम तप 8.उत्तम त्याग 9. उत्तम आकिंचन्य (नगण्यता) और 10. उत्तम ब्रहमचर्य | जैन समाज में इसी आधार पर दस लक्षण व्रत रखे जाते हैं जो भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी से लेकर चतुर्दशी तिथि तक समपन्न होते हैं | प्रत्येक दिन क्रमानुसार (serial) एक एक व्रत का पालन किया जाता है |
           अब प्रश्न उठता है कि हम धर्मानुरागी कैसे बनें ? जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चूका है कि प्रत्येक मनुष्य में प्रकृति के तीनों गुण उपस्थित होते हैं | ये गुण हैं –सत, रज और तम | व्यक्ति में तीनों गुण जीवन के प्रारम्भ में समान रूप से उपस्थित होते हैं | परन्तु ज्यों ज्यों वह बड़ा होता जाता है त्यों त्यों उसमे किसी एक गुण की प्रधानता होती जाती  है | उसी गुण की प्रधानता से  उसको सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक प्रकृति का माना जाता है | एक गुण शेष दो गुणों को दबाकर ही बढ़ सकता है | धर्म के मार्ग पर चलना सात्विकता का लक्षण है | अतः मनुष्य को धर्म पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए शेष दो गुण रजस और तमस को दबाकर अपने में सत गुण को बढ़ाना होगा | सत गुण को बढ़ने पर मनुष्य असत्य को त्यागकर सत्य के मार्ग पर चल पड़ता है | हिंसा (violence) से उसका दूर दूर का सम्बन्ध नहीं रहता | परमात्मा में विश्वास (faith) रखकर वह तप करता है और असहायों की सहायता में सदैव ही तत्पर रहता है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

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