Monday, October 22, 2018

पुरुषार्थ-27-धर्म-4


पुरुषार्थ – 27-धर्म-4  
          मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बतलाये गए हैं | मनु लिखते हैं –
धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिनयनिग्रहः |
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ||मनुस्मृति-6/92||
अर्थात धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, आंतरिक तथा बाह्य शुद्धि, इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धि, शिक्षा, सत्य और क्रोध न करना, ये धर्म के दस लक्षण हैं | Patience, abstinence,no stealing, internal and external cleanness, controlling sense organs(mortify), intelligence, knowledge, truth and be cool or free from anger.
महाभारत में धर्म को अर्थ और काम का स्रोत माना गया है –
उर्ध्वबाहुर्विरौम्येष्य न च कश्चित शृणोति में |
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते ||
अर्थात भीष्म पितामह कह रहे हैं कि मैं बाँहों को उठाकर जोर-शोर से चिल्ला रहा हूँ किन्तु मेरी बात को कोई नहीं सुनता | धर्म से ही अर्थ और काम प्राप्त होते हैं, फिर उस धर्म का पालन किसलिए नहीं किया जाता ?
             श्री मद्भगवद्गीता में भी धर्म के महत्त्व को स्वीकार किया गया है | गीता के 18 वें अध्याय में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को धर्म का महत्त्व बतलाते हुए कह रहे हैं –
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ||गीता-18/47||
अर्थात गुणरहित होने पर भी स्वधर्म पालन करना अच्छा है, चाहे दूसरे का धर्म (कर्तव्य-कर्म) कितना भी अच्छा क्यों न हो | यदि मनुष्य अपने धर्म का पालन करता है तो वह पाप से सदैव बचा रहता है | गीता तो यहाँ तक कह देती है कि ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह:’ (गीता-3/35) अर्थात अपने धर्म (स्वविवेक) के पालन के लिए अपने प्राण भी गवां देना दूसरे के धर्म का पालन करने से अच्छा है क्योंकि दूसरे का धर्म भयावह है अर्थात अपरिचित है | जैसे एक चिकित्सक का धर्म है रोगी को रोगमुक्त करना | उसका चिकित्सा सेवा देना ही धर्म है | अगर वह अन्य क्षेत्र में जाकर कार्य करता है, तो वह कार्य उसको नहीं रुचेगा | इसलिए गीता में दूसरे धर्म को भयावह कहा गया है | यहाँ धर्म का अभिप्राय संप्रदाय से नहीं लेना है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

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