Monday, October 29, 2018

पुरुषार्थ-34-अर्थ-2


पुरुषार्थ – 34-अर्थ-2
               हमारे जीवन की चार अवस्थाओं के मार्गदर्शन हेतु धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि-
आद्ये वयसि नाद्योतं द्वितीये नार्जित धनम् |
तृतीय न तपस्तप्तं चतुर्थे किं करिष्यति ||
अर्थात जिसने जीवन की प्रथम अवस्था (ब्रह्मचर्याश्रम) में अगर विद्या प्राप्त नहीं की, द्वितीय अवस्था (गृहस्थाश्रम) में धनोपार्जन नहीं किया, तृतीय अवस्था (वानप्रस्थाश्रम) में तप नहीं किया, तो ऐसे में वह चौथी अवस्था (संन्यासाश्रम) में क्या कर सकेगा अर्थात उसका जीवन व्यर्थ ही चला गया |  द्वितीय अवस्था में धनार्जन इसलिए आवश्यक है क्योंकि इस अवस्था में मनुष्य का परिवार बनता है, बढ़ता है | ऐसे में उनकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अर्थ आवश्यक हो जाता है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि धर्म (कर्तव्य) और काम की पूर्ति का साधन भी अर्थ ही है | धर्म समाज को धारण करता है जबकि काम समाज में प्रवाह बनाये रखता है |
                   जीवन के दूसरे चतुर्थ भाग में ही केवल अर्थोपार्जन का कहा गया है | इसका प्रमुख कारण है, गृहस्थाश्रम में मनुष्य की दैनिक आवश्यकताओं का बढ़ जाना | आवश्यकताएं सदैव ही पूरी होती है क्योंकि उन आवश्यकताओं का आधार हमारा पूर्व मानव जीवन होता है | पूर्वजन्म के अनुसार आवश्यकताओं को पूरा करने का दायित्व प्रकृति के माध्यम से परोक्ष रूप से परम पिता ने स्वयं संभाल रखा है | इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य के द्वारा यह प्रकृति ही कर्म करवाती है | मनुष्य विवेकशील प्राणी अवश्य है परन्तु कभी कभी वह विवेक का अनादर कर जाता है | उसे यह समझना होगा कि आवश्यकता से अधिक को प्राप्त कर संग्रह करने की इच्छा रखना ही पाप है | वह अधिक श्रम करता ही इसीलिए है कि वह बहुत अधिक मात्रा में अर्थ प्राप्त कर ले | अधिक अर्थ प्राप्त करने की इच्छा ही हमें पतन के मार्ग पर ले जाती है और हमें जीवन भर मुक्त नहीं होने देती | जीवन मुक्त न हो पाने के कारण इस संसार से हमारा आवागमन कभी मिट नहीं पाता | अतः अर्थ प्रधान संसार में अगर हमारी आवश्यकताएं सुगमता के साथ पूरी हो रही है तो हमें इसी परिस्थति में संतुष्ट रहते हुए एक क्षमता से अधिक श्रम करने से बचना चाहिए और संतुष्टि का भाव सदैव मन में रखना चाहिए |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

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