पुरुषार्थ-35 -अर्थ-3
अर्थ को भारतीय संस्कृति में वहीं तक
महत्त्व प्राप्त है, जहाँ तक वह मनुष्य को शिष्ट और सभ्य बनाये रखने में अर्थात
उसके विवेक में सहायक हो | सदैव यह बात स्मृति में रखें कि मनुष्य के जीवन के लिए
अर्थ है परन्तु अर्थ के लिए मनुष्य का जीवन नहीं है और न ही होना चाहिए | इसलिए
भारतीय संस्कृति में धन को एकत्रित करने को महत्त्व नहीं दिया गया है | धन केवल
साधन मात्र है | धन को साध्य मान लेने पर समाज का पतन होने लगता है | संभवतः
इसीलिए हमारे हिन्दू-दर्शन में दान की परम्परा है |
‘अर्थ’ मनुष्य के पूर्वजन्म का वह
पुरुषार्थ है जो उसे वर्तमान जीवन में उपलब्ध होता है | इस पुरुषार्थ का मौद्रिक
मूल्य (economic
value) होता है | बिना मौद्रिक मूल्य के व्यक्ति सांसारिक सुख को
उपलब्ध नहीं हो सकता | मनुष्य जीवन के पालन-पोषण के लिए भी अर्थ की आवश्यकता होती
है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण स्वयं अर्जुन को कह रहे हैं कि जनक जैसे जीवन-मुक्त
पुरुष भी अपने जीवन को सुगमता पूर्वक चलाने के लिए अर्थार्जन करते थे | धन कमाना भी
एक प्रकार का कर्म है | अतः धन के लिए कर्म करना भी अनुचित नहीं है | धन के अभाव
में जीवन निर्वाह भी संभव नहीं है | भगवान श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को कह रहे
हैं –
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो
ह्यकर्मण:|
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:
||गीता-3/8||
अर्थात हे अर्जुन ! तू शास्त्र विहित
कर्म कर | कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है | कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह
भी नहीं सिद्ध होगा |
अर्थ को अगर कोई व्यक्ति सबसे
निम्न वस्तु मानता अथवा कहता है, तो वह सर्वथा अनुचित है | धर्म के चार अंगों में एक
अंग दान को बताया गया है और बिना अर्थार्जन के दान कैसे संभव है ? हाँ, अर्थार्जन
करते हुए अर्थ-संग्रह करने को अनुचित अवश्य कहा गया है | जैन धर्म में अपरिग्रह को
महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है | अपरिग्रह का अर्थ है, धन का संचय नहीं करना | इस
प्रकार स्पष्ट है की अर्थ एक पुरुषार्थ है, जो अति आवश्यक है | इस पुरुषार्थ का फल
भले ही इस जन्म में न मिले परन्तु जन्म-मरण की चलने वाली सतत प्रक्रिया में यह कभी
भी व्यर्थ नहीं जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||
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