Tuesday, October 23, 2018

पुरुषार्थ-28-धर्म-5


पुरुषार्थ – 28-धर्म-5  
                धर्म के महत्त्व को पुराणों में भी स्वीकार किया गया है | पुराणों का कहना है कि अधर्मी (अपने विवेक से च्युत) पुरुष (impious) यदि काम और अर्थ सम्बन्धी क्रियाएं करता है तो उसका फल बाँझ स्त्री (sterile) के पुत्र जैसा होता है अर्थात उनसे किसी प्रकार के कल्याण की सिद्धि नहीं होती | जैसे बाँझ स्त्री के पुत्र नहीं हो सकता, उसी प्रकार अपने कर्तव्य कर्म के विरुद्ध कार्य करने वाले का भी कभी कल्याण नहीं हो सकता | पद्मपुराण में लिखा है –
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा नित्यवर्तनैः |
दानेन नियमैश्चापि क्षमा शौचेन वल्लभः ||
अहिंसया च शक्त्या वाSस्तेयेनापि प्रवर्तते |
एतैर्दशभिरंगैश्च धर्ममेवं प्रसूचयते ||पद्मपुराण-5/89/8-9||
अर्थात ब्रह्मचर्य (celibacy), सत्य (truth), तप (penance),दान(donation), नियम (principle), क्षमा (forgiveness), शुद्धि (cleanness), अहिंसा (non violence), शांति (peace) और चोरी न करना, इन दस अंगों के धारण करने से ही धर्म की वृद्धि होती है |  
श्री मद्भागवत महापुराण के सातवें स्कंध में धर्म के तीस लक्षण बतलाये गए हैं | इसी प्रकार श्री रामचरित मानस के लंकाकांड में गोस्वामीजी ने धर्म का एक रथ के रूप में वर्णन किया है |
                             योगवासिष्ठ के अनुसार धर्म के चार चरण या चार आधार होते हैं | ये धर्म के चरण ही मनुष्य  के कर्तव्य के आधार है | इन चारों चरणों  में विश्वास रखते हुए कर्तव्य करते रहना ही वास्तविकता में धर्म हैं | धर्म के चरण हैं – सत्य (truth), अहिंसा (nonviolence) अथवा दया (kindness) , तप (penance) और दान (donation) | इन चारों के विलोम (opposite) अर्थात विपरीत होना अथवा चलना ही अधर्म है | आप किसी भी सम्प्रदाय के साहित्य और शास्त्रों को उठाकर देख लिजीये, आपको मुख्यतः इन्हीं चार बातों का अनुसरण करने का कहा जाता है | हिंसा, असत्य, कलह और असंतोष जैसे अधार्मिक बातों का कोई भी संप्रदाय समर्थन नहीं करता क्योंकि ये सभी अधार्मिकता के अंतर्गत आते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

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