पुरुषार्थ – 33 –अर्थ – 1
अर्थ
(Prosperity/Substance) – Economic values
सनातन जीवन दर्शन में अर्थ को दूसरा
पुरुषार्थ कहा गया है | अर्थ का शाब्दिक अर्थ है, वस्तु अथवा पदार्थ | अर्थ के
अंतर्गत वे सभी भौतिक वस्तुएं आ जाती हैं, जिन्हें मनुष्य जीवन यापन के लिए अपने
अधिकार क्षेत्र में रखना चाहता है | अर्थ से ही मनुष्य की उदरपूर्ति होती है |
कर्तव्य-निर्वहन में भी अर्थ की भूमिका महत्वपूर्ण होती है | अल्प शब्दों में कहूँ
तो यह कहा जा सकता है कि वह वस्तु अथवा पदार्थ जिसको प्राप्त करने से हमें सुख
प्राप्त होता है, वे सभी अर्थ के अंतर्गत आ जाती है | हमारे देश में कभी भी अर्थ को
उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा गया है | अर्थ में केवल धन या मुद्रा ही नहीं
बल्कि वे सभी चीजें सम्मिलित हैं, जिनसे भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है | आज हम
केवल धन को ही अर्थ समझ बैठे हैं और केवल उसके संग्रह में लग गए हैं, उसका समुचित
उपयोग नहीं कर पा रहे हैं | आवश्यकता से अधिक धन संग्रह करने के कारण ही अर्थ
अनुचित कहलाने लगा है | वास्तव में देखा जाये तो आवश्यकता से अधिक किया गया धन
अथवा वस्तु संग्रह अनुचित है, अर्थ नहीं |
संस्कृत में
एक श्लोक है – ‘धनाद् धर्मः’ अर्थात धन से धर्म की सिद्धि होती है | हमारे धर्म
शास्त्रों में केवल धर्म सम्बन्धी चर्चा ही नहीं बल्कि अर्थनीति, दंडनीति, राजनीति
आदि कई विषयों पर हुई चर्चाएँ समाहित है | समाज में अर्थ नियोजन (planning)
बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है | कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में
बहुत से राजकुमारों की शिक्षा, मंत्रिमंडल,जासूस, राजदूत, शासन व्यवस्था, दुष्टों
की रोकथाम, वस्तुओं में मिलावट, मूल्य नियंत्रण, युद्ध सञ्चालन, कूटनीति,गुप्त
विद्या आदि अनेकानेक विषयों पर अपने विचार प्रस्तुत किये थे, जो अर्थशास्त्र से
जुड़े हुए भी हैं | आधुनिक परिपेक्ष्य में ये विचार न केवल व्यवहारिक बल्कि समीचीन
(proper) भी हैं |
मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताएं (primary
need) रोटी, कपड़ा और मकान आदि अर्थ से ही पूरी होती है | शिक्षा,
स्वास्थ्य और अन्य सुख-सुविधाओं के लिए भी अर्थ आवश्यक है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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