पुरुषार्थ – 24 – धर्म -1
धर्म (Righteousness/Persuasions/Faith/Duty)
– Moral values
भारतीय संस्कृति
के मूल में ‘धर्म’ ही है | मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि ‘धर्म’ हमारी संस्कृति का
प्राण है | भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भौतिकता की प्रधानता (Predominance)
है वहीँ हमारी संस्कृति (Culture) में धर्म की
प्रधानता है | पश्चिम की संस्कृति में भौतिकता की मुख्यता होने के कारण वह सुख
प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रकार के कर्म करने को कहती है जबकि भारतीय संस्कृति
में मुख्यता धर्म की होने के कारण वह आनंद को उपलब्ध होने के लिए धर्मानुसार कर्म करने
को प्राथमिकता देती है | वहां पश्चिम में भौतिकता के कारण स्वाद (Taste) के लिए हिंसा की जा सकती है, यहाँ धार्मिकता के आधार पर स्वाद पर नियंत्रण
रख अहिंसा (Non violence) की अनुपालना (Follow) करने पर जोर दिया जाता है | धर्म हमें यह सिखाता है कि हमें क्या तो करना
चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए | इसीलिए भारतीय संस्कृति को आध्यात्मिक संस्कृति
कहा जाता है |
‘धर्म’ शब्द की परिभाषा (Definition)
करना बहुत ही कठिन है | ‘धर्म’, संस्कृत के
शब्द ‘धातु’ से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है, धारण करना (Possess) | ‘धारणात धर्ममित्याहु: धर्मो धारयति प्रजाः’’ (महाभारत)
अर्थात जिसको धारण किया जाता है उसको धर्म कहते हैं और इसी प्रकार धर्म प्रजा (Subjects)
को धारण करता है | इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म केवल व्यक्ति ही
धारण नहीं करता बल्कि स्वयं धर्म भी व्यक्ति को धारण करता है |
पञ्चतंत्र में ‘धर्म’ को वह तत्व
बताया है जिसके आधार पर मनुष्य और प्राणियों में अंतर प्रकट होता है |
आहार निद्रा भय मैथुनंच सामान्यमेतत
पशुभिर्नराणम |
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण
हीनाः पशुभिर्समाना ||पञ्चतंत्र||
अर्थात आहार, निद्रा, भय और
संतानोत्पत्ति में तो सामान्यतया मनुष्य सहित सभी जीव रत (Indulge)
रहते हैं लेकिन धर्म मनुष्य
को अन्य जीवधारियों से पृथक करता है | अगर मनुष्य में से धर्म तत्व को अलग कर दिया
जाये, तो फिर मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं रह जायेगा |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||
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