Saturday, October 13, 2018

पुरुषार्थ-18


पुरुषार्थ – 18    
            “अँधा अँधे ठेलिया, दोनों कूप पड़न्त”, इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक दृष्टान्त देना चाहूँगा | किसी रियासत का राजा अपने दरबारी पंडित से सदैव ही जीवन-मुक्ति और मोक्ष के बारे में ज्ञान प्राप्त करता रहता था | राजा को इसके उपरांत भी अपने जीवन में शांति (Peace) का अनुभव नहीं हुआ | भला, बिना शांति के मुक्ति की कल्पना (Imagination) भी कैसे की जा सकती है ? एक बार एक संत उनकी रियासत में पधारे | राजा ने ससम्मान राजदरबार में उन्हें आमंत्रित किया | राजा ने संत से प्रश्न किया मैं इतने वर्षों से हमारे दरबार के ज्ञानी पुरुष से मुक्त होने के लिए ज्ञान प्राप्त कर रहा हूँ, फिर भी मुझे शांति  प्राप्त नहीं हो रही है, इस्का क्या कारण है ? संत ने उत्तर देने के लिए कुछ समय माँगा और उसने उस ज्ञानी  दरबारी के बारे में कुछ जानकारियां (Information) प्राप्त की | अब संत की समझ में सब कुछ आ गया था | एक दिन राजा ने संत से पुनः वही प्रश्न पूछते हुए उत्तर देकर संतुष्ट (Satisfy) करने का आग्रह किया | संत ने कहा कि इसके लिए मुझे आपका सिंहासन (Crown) चाहिए | राजा ने सादर उनको सिंहासन सौंप दिया और सभी दरबारियों को आदेश दिया कि अभी से तत्काल प्रभाव से संत के प्रत्येक आदेश (Order) की पलना हो | संत ने सिंहासन सम्हाला और आदेश दिया कि दरबार में बैठे ज्ञानी दरबारी को मेरे बायीं और के खम्भे (Pillar) से बाँध दिया जाये | सेवकों ने तुरंत ही आज्ञा पालन की और ज्ञानी दरबारी को खम्भे से बाँध दिया | संत ने तुरंत ही दूसरा आदेश दिया कि दाहिनी ओर के खम्भे से राजा को बाँध दिया जाये | संत के इस आदेश पर सिपाही कुछ झिझके (Hesitated) परन्तु राजा ने इशारों में उन्हे संत के आदेश की पालना करते रहने को कहा | अब राज दरबार की स्थिति कुछ इस प्रकार बनी हुई है कि राजा और उसका ज्ञानी दरबारी अपनी ही राजसभा में खम्भों से बंधे हुए हैं और राज सिंहासन पर विराजे हुए हैं संत | अन्य सभी दरबारी राज सभा में सन्न (Silent) हुए बैठे हैं क्योंकि उनके दरबार के ही सर्वोच्च दोनों व्यक्तियों को सिंहासन पर विराजे संत ने खम्भों से बंधवा रखा है |
                 संत ने राजा को आदेश दिया कि अब वह ज्ञानी दरबारी को खम्भे से खोल दे | राजा बोला ’मैं कैसे  खोल सकता हूँ, मैं तो स्वयं ही बंधा हुआ हूँ |”  अब संत ज्ञानी दरबारी की और मुड़े और आदेश दिया कि वह राजा को खोल दे | उसका उत्तर भी वही था जो राजा का था कि वह स्वयं बंधा हुआ है, भला बंधा हुआ व्यक्ति किसी दूसरे बंधे हुए को कैसे खोल सकता है ? अंत में संत ने सिपाहियों को आदेश दिया कि वे राजा तथा ज्ञानी दरबारी दोनों को खोल दे | सिपाहियों ने दोनों को खम्भे से खोल दिया | संत ने राजा को ससम्मान बुलाकर उनका सिंहासन वापिस उन्हीं को सौंपते हुए कहा कि “राजन ! आप स्वयं समझदार हैं, मेरा मंतव्य समझ ही गए होंगे | जिस प्रकार एक व्यक्ति जो स्वयं बंधा हुआ है, किसी अन्य को बंधन मुक्त नहीं कर सकता | ठीक ऐसा ही आपके इस ज्ञानी दरबारी के साथ है | वह स्वयं अभी सांसारिक बंधनों में जकड़ा हुआ है, अपने इस कथित ज्ञान जो कि वास्तव में अज्ञान है, के साथ बंधा हुआ है; भला वह आपको संसार के बंधनों से मुक्त कैसे कर सकता है ? आपको अगर मुक्त होना है तो किसी ऐसे व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त करें, जो स्वयं मुक्त हो | अन्य कोई भी व्यक्ति आपको मुक्ति का मार्ग नहीं बता सकता |” कहने का अर्थ है कि जिसको ज्ञान का अनुभव हो चूका है, केवल वही ज्ञान देने का अधिकारी हो सकता है, वही आदर्श गुरु हो सकता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

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