Wednesday, October 31, 2018

पुरुषार्थ-36-अर्थ-4

पुरुषार्थ- 36-अर्थ-4

             अर्थ पर चर्चा को विराम देने से पहले एक दृष्टान्त देना चाहूँगा | एक बार एक पर्यटक जंगल में रास्ता भटक गया | रास्ता खोजने में उसे शाम हो गयी | सूर्य बड़ी तेज गति से अस्ताचलगामी हो रहा था परन्तु पर्यटक को कोई सही रास्ता नज़र नहीं आ रहा था | जंगल में भटकते भटकते उसे एक संत की छोटी सी कुटिया दिखलाई पड़ी | पर्यटक बहुत अधिक चलने के कारण थक गया था और उसे जोर की भूख-प्यास भी लगी थी | उसने कुटिया के द्वार पर दस्तक दी | संत ने दरवाजा खोला और आगंतुक को शारीरिक रूप से पस्त देखकर कुटिया के भीतर आने को कहा | संत ने उसे चटाई पर बैठाकर खाने के लिए कुछ गुड और चने दिए, साथ ही पीने को शीतल जल भी दिया | कुछ खाने-पीने से पर्यटक की जान में जान आई | अब वह कुछ बोलने की स्थिति में आया | संत ने उससे उसका परिचय पूछा और अपने दैनिक कार्य में लग गए | पर्यटक उनके पास गया और उनसे वार्तालाप प्रारम्भ किया |
                      पर्यटक ने संत से पूछा-‘आप इस जंगल में कितने वर्षों से रह रहे हैं ?’संत ने उत्तर दिया-‘लगभग 70 वर्षों से |’  पर्यटक ने एक नज़र कुटिया के चारों और डालते हुए संत से पूछा-‘परन्तु आपका सामान कहाँ है ?’ सन्त ने सहज भाव से प्रत्युतर में पर्यटक से प्रश्न किया – ‘तुम्हारा सामान कहाँ है ?’ पर्यटक ने कहा-‘ मैं तो एक यात्री हूँ, कुछ दिन घूम फिर कर वापिस चला जाऊंगा | पर्यटन पर निकला एक पर्यटक हूँ | भला, मुझे अधिक सामान की कहाँ आवश्यकता है ?’  संत ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया-‘मैं भी तो तुम्हारी तरह ही इस भूलोक का एक यात्री हूँ | अपनी जीवन यात्रा पूरी करके वापिस लौट जाऊंगा | मुझे अधिक सामान का संग्रह करने की कहाँ आवश्यकता है ?’ यह सुनकर उस पर्यटक की आँखें खुल गयी | उसने आज जीवन यात्रा का एक सत्य जाना | उसने संत के चरण स्पर्श किये और उनका धन्यवाद किया तथा  अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गया |
                उस यात्री की तरह ही हमारे विचार हैं जबकि उस संत की तरह हमारा जीवन होना चाहिए | हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि ‘जीवन यात्रा में अपने साथ सामान और साथी जितने कम होंगे, हमारी यात्रा उतनी ही अधिक सुगम होगी |’ अर्थ जीवन के लिए आवश्यक है परन्तु जब जीवन केवल अर्थ के लिए ही होकर रह जाता है तब पास में पर्याप्त अर्थ होते हुए भी जीवन अर्थहीन बन जाता है | अर्थ को धर्मानुसार कर्म करते हुए ही प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, अधर्म के मार्ग पर चलकर नहीं | अतः अपने जीवन में ऐसा अनर्थ कभी भी न कीजिये कि जीवन भर अर्थ अर्थ करते करते यह मानव जन्म व्यर्थ ही बीत जाये |
           अर्थ के बाद तीसरा पुरुषार्थ है-काम | काम के बिना अर्थ को प्राप्त नहीं किया जा सकता और अर्थ के बिना जीवन सुखी नहीं हो सकता | तो आइये ! अब काम पर भी कुछ काम की बातें कर ली जाये |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Tuesday, October 30, 2018

पुरुषार्थ-35-अर्थ-3


पुरुषार्थ-35 -अर्थ-3
           अर्थ को भारतीय संस्कृति में वहीं तक महत्त्व प्राप्त है, जहाँ तक वह मनुष्य को शिष्ट और सभ्य बनाये रखने में अर्थात उसके विवेक में सहायक हो | सदैव यह बात स्मृति में रखें कि मनुष्य के जीवन के लिए अर्थ है परन्तु अर्थ के लिए मनुष्य का जीवन नहीं है और न ही होना चाहिए | इसलिए भारतीय संस्कृति में धन को एकत्रित करने को महत्त्व नहीं दिया गया है | धन केवल साधन मात्र है | धन को साध्य मान लेने पर समाज का पतन होने लगता है | संभवतः इसीलिए हमारे हिन्दू-दर्शन में दान की परम्परा है |
               ‘अर्थ’ मनुष्य के पूर्वजन्म का वह पुरुषार्थ है जो उसे वर्तमान जीवन में उपलब्ध होता है | इस पुरुषार्थ का मौद्रिक मूल्य (economic value) होता है | बिना मौद्रिक मूल्य के व्यक्ति सांसारिक सुख को उपलब्ध नहीं हो सकता | मनुष्य जीवन के पालन-पोषण के लिए भी अर्थ की आवश्यकता होती है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण स्वयं अर्जुन को कह रहे हैं कि जनक जैसे जीवन-मुक्त पुरुष भी अपने जीवन को सुगमता पूर्वक चलाने के लिए अर्थार्जन करते थे | धन कमाना भी एक प्रकार का कर्म है | अतः धन के लिए कर्म करना भी अनुचित नहीं है | धन के अभाव में जीवन निर्वाह भी संभव नहीं है | भगवान श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को कह रहे हैं –
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:|
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण: ||गीता-3/8||
अर्थात हे अर्जुन ! तू शास्त्र विहित कर्म कर | कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है | कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा |
                    अर्थ को अगर कोई व्यक्ति सबसे निम्न वस्तु मानता अथवा कहता है, तो वह सर्वथा अनुचित है | धर्म के चार अंगों में एक अंग दान को बताया गया है और बिना अर्थार्जन के दान कैसे संभव है ? हाँ, अर्थार्जन करते हुए अर्थ-संग्रह करने को अनुचित अवश्य कहा गया है | जैन धर्म में अपरिग्रह को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है | अपरिग्रह का अर्थ है, धन का संचय नहीं करना | इस प्रकार स्पष्ट है की अर्थ एक पुरुषार्थ है, जो अति आवश्यक है | इस पुरुषार्थ का फल भले ही इस जन्म में न मिले परन्तु जन्म-मरण की चलने वाली सतत प्रक्रिया में यह कभी भी व्यर्थ नहीं जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Monday, October 29, 2018

पुरुषार्थ-34-अर्थ-2


पुरुषार्थ – 34-अर्थ-2
               हमारे जीवन की चार अवस्थाओं के मार्गदर्शन हेतु धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि-
आद्ये वयसि नाद्योतं द्वितीये नार्जित धनम् |
तृतीय न तपस्तप्तं चतुर्थे किं करिष्यति ||
अर्थात जिसने जीवन की प्रथम अवस्था (ब्रह्मचर्याश्रम) में अगर विद्या प्राप्त नहीं की, द्वितीय अवस्था (गृहस्थाश्रम) में धनोपार्जन नहीं किया, तृतीय अवस्था (वानप्रस्थाश्रम) में तप नहीं किया, तो ऐसे में वह चौथी अवस्था (संन्यासाश्रम) में क्या कर सकेगा अर्थात उसका जीवन व्यर्थ ही चला गया |  द्वितीय अवस्था में धनार्जन इसलिए आवश्यक है क्योंकि इस अवस्था में मनुष्य का परिवार बनता है, बढ़ता है | ऐसे में उनकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अर्थ आवश्यक हो जाता है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि धर्म (कर्तव्य) और काम की पूर्ति का साधन भी अर्थ ही है | धर्म समाज को धारण करता है जबकि काम समाज में प्रवाह बनाये रखता है |
                   जीवन के दूसरे चतुर्थ भाग में ही केवल अर्थोपार्जन का कहा गया है | इसका प्रमुख कारण है, गृहस्थाश्रम में मनुष्य की दैनिक आवश्यकताओं का बढ़ जाना | आवश्यकताएं सदैव ही पूरी होती है क्योंकि उन आवश्यकताओं का आधार हमारा पूर्व मानव जीवन होता है | पूर्वजन्म के अनुसार आवश्यकताओं को पूरा करने का दायित्व प्रकृति के माध्यम से परोक्ष रूप से परम पिता ने स्वयं संभाल रखा है | इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य के द्वारा यह प्रकृति ही कर्म करवाती है | मनुष्य विवेकशील प्राणी अवश्य है परन्तु कभी कभी वह विवेक का अनादर कर जाता है | उसे यह समझना होगा कि आवश्यकता से अधिक को प्राप्त कर संग्रह करने की इच्छा रखना ही पाप है | वह अधिक श्रम करता ही इसीलिए है कि वह बहुत अधिक मात्रा में अर्थ प्राप्त कर ले | अधिक अर्थ प्राप्त करने की इच्छा ही हमें पतन के मार्ग पर ले जाती है और हमें जीवन भर मुक्त नहीं होने देती | जीवन मुक्त न हो पाने के कारण इस संसार से हमारा आवागमन कभी मिट नहीं पाता | अतः अर्थ प्रधान संसार में अगर हमारी आवश्यकताएं सुगमता के साथ पूरी हो रही है तो हमें इसी परिस्थति में संतुष्ट रहते हुए एक क्षमता से अधिक श्रम करने से बचना चाहिए और संतुष्टि का भाव सदैव मन में रखना चाहिए |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Sunday, October 28, 2018

पुरुषार्थ-33-अर्थ-1


पुरुषार्थ – 33 –अर्थ – 1
अर्थ (Prosperity/Substance) – Economic values
            सनातन जीवन दर्शन में अर्थ को दूसरा पुरुषार्थ कहा गया है | अर्थ का शाब्दिक अर्थ है, वस्तु अथवा पदार्थ | अर्थ के अंतर्गत वे सभी भौतिक वस्तुएं आ जाती हैं, जिन्हें मनुष्य जीवन यापन के लिए अपने अधिकार क्षेत्र में रखना चाहता है | अर्थ से ही मनुष्य की उदरपूर्ति होती है | कर्तव्य-निर्वहन में भी अर्थ की भूमिका महत्वपूर्ण होती है | अल्प शब्दों में कहूँ तो यह कहा जा सकता है कि वह वस्तु अथवा पदार्थ जिसको प्राप्त करने से हमें सुख प्राप्त होता है, वे सभी अर्थ के अंतर्गत आ जाती है | हमारे देश में कभी भी अर्थ को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा गया है | अर्थ में केवल धन या मुद्रा ही नहीं बल्कि वे सभी चीजें सम्मिलित हैं, जिनसे भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है | आज हम केवल धन को ही अर्थ समझ बैठे हैं और केवल उसके संग्रह में लग गए हैं, उसका समुचित उपयोग नहीं कर पा रहे हैं | आवश्यकता से अधिक धन संग्रह करने के कारण ही अर्थ अनुचित कहलाने लगा है | वास्तव में देखा जाये तो आवश्यकता से अधिक किया गया धन अथवा वस्तु संग्रह अनुचित है, अर्थ नहीं |        
                      संस्कृत में एक श्लोक है – ‘धनाद् धर्मः’ अर्थात धन से धर्म की सिद्धि होती है | हमारे धर्म शास्त्रों में केवल धर्म सम्बन्धी चर्चा ही नहीं बल्कि अर्थनीति, दंडनीति, राजनीति आदि कई विषयों पर हुई चर्चाएँ समाहित है | समाज में अर्थ नियोजन (planning) बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है | कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में बहुत से राजकुमारों की शिक्षा, मंत्रिमंडल,जासूस, राजदूत, शासन व्यवस्था, दुष्टों की रोकथाम, वस्तुओं में मिलावट, मूल्य नियंत्रण, युद्ध सञ्चालन, कूटनीति,गुप्त विद्या आदि अनेकानेक विषयों पर अपने विचार प्रस्तुत किये थे, जो अर्थशास्त्र से जुड़े हुए भी हैं | आधुनिक परिपेक्ष्य में ये विचार न केवल व्यवहारिक बल्कि समीचीन (proper) भी हैं |
             मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताएं (primary need) रोटी, कपड़ा और मकान आदि अर्थ से ही पूरी होती है | शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सुख-सुविधाओं के लिए भी अर्थ आवश्यक है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, October 27, 2018

पुरुषार्थ-32-धर्म-9


पुरुषार्थ-32-धर्म-9
                  युधिष्ठिर के इस प्रकार कहने से यक्ष ने अनेक प्रश्न पूछे | युधिष्ठिर ने सभी के उचित उत्तर दिये | इससे संतुष्ट होकर यक्ष ने कहा - "राजन ! तुमने मेरे प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर दिये हैं, इसलिए चारों में से जिस एक भाई को तुम चाहो, वह जीवित हो सकता है |"
 युधिष्ठिर ने कहा - "आप मेरे नकुल को जीवित कर दें |"
यक्ष ने चकित होते हुए कहाः "तुम राज्यहीन होकर वन में भटक रहे हो | शत्रुओं से तुम्हें अंत में युद्ध करना है, ऐसी दशा में अपने महापराक्रमी भीमसेन या शस्त्रज्ञ चूड़ामणि अर्जुन को छोड़कर नकुल को जिला देने की इच्छा तुम्हे क्यों है ?"
      ध्यान दीजिये, युधिष्ठिर ने प्रत्युतर में जो कहा वही वास्तव में धर्म है | उन्होंने कहा - "यक्ष ! राज्य का सुख या वनवास का दुःख तो भाग्य अनुसार मिलता है, किंतु मनुष्य को धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए | जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म स्वयं उसकी रक्षा करता है | इसलिए मैं धर्म को नहीं छोड़ूँगा | कुंती व माद्री दोनों मेरी माताएँ हैं |  कुंती का एक पुत्र, मैं जीवित हूँ | अतः मैं चाहता हूँ कि माता माद्री का वंश भी नष्ट न हो | आप नकुल को जीवित करके दोनों को पुत्रवती कर दो |"
 यक्ष युधिष्ठिर का उत्तर सुन प्रसन्न हो गया | वह बोला - "पुत्र! तुमने अर्थ और काम से भी समता का विशेष आदर किया है, अतः तुम्हारे सभी भाई जीवित हो जायें | मैं तुम्हारा पिता धर्म, तुम्हें देखने तथा तुम्हारी धर्मनिष्ठा की परीक्षा लेने आया था।" इस प्रकार धर्म ने अपना स्वरूप प्रकट कर दिया | चारों मृत पाण्डव तत्काल उठ बैठे
               धर्म का प्रत्येक परिस्थिति में पालन करने वाले की सदैव जय होती है | इसी कारण से युधिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता है | इस दृष्टान्त से जो मुख्य सन्देश निकल कर आता है कि हमें सभी स्वार्थों से ऊपर उठकर हमारे अंतर्मन की बात को महत्त्व देना चाहिए | 
               यहाँ आकर योगवासिष्ठ में धर्म के जो चार चरण बतलाये गए हैं, वे ही धर्माचरण के लिए सर्वोत्तम प्रतीत होते हैं | ये चार चरण हैं - सत्य (truth), अहिंसा (nonviolence) अथवा दया (kindness) , तप (penance) और दान (donation) | इन चारों के विलोम (opposite) अर्थात विपरीत होना अथवा चलना ही अधर्म है | धर्म की चर्चा को यहीं समाप्त करते हुए आइये, अब हम सभी के सर्वाधिक प्रिय विषय अर्थ की ओर चलते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, October 26, 2018

पुरुषार्थ-31-धर्म-8


पुरुषार्थ-31-धर्म-8-
           अभी तक हमने धर्म पर बड़ी गंभीर चर्चा की है | धर्म क्या है, इसको जानना बड़ा ही कठिन है और बड़ा सरल भी | कठिन इसलिए कि धर्म और अधर्म को एक बारीक रेखा विभाजित करती है जिससे कई बार हम अधर्म को धर्म समझ बैठते हैं और सरल इस दृष्टि से है कि जो बात हमारे अंतर्मन को सुखद और शास्त्रोक्त लगे, जिस कर्म को करने में हमें कठिनाई और घबराहट नहीं हो वही धर्म है | इससे अधिक सरल शब्दों में धर्म को स्पष्ट नहीं किया जा सकता | एक दृष्टान्त के साथ धर्म पर चर्चा का समापन करना चाहूँगा जिसे मैंने Facebook पर किसी मित्र की post से लिया है |
                    वनवास के समय पाण्डव एक दिन घूमते घूमते थककर एक विशाल वटवृक्ष के नीचे विश्राम करने बैठ गये। उस समय उन्हें प्यास भी लगी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने नकुल से पानी लाने को कहा | नकुल ने वृक्ष पर चढ़कर देखा तो एक स्थान पर हरियाली तथा जल होने के अन्य चिह्न देखकर वे उसी ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचकर जैसे ही वे सरोवर में उतरे उन्हें अदृश्य वाणी सुनाई दीः "तात ! इस सरोवर का पानी पीने का साहस मत करो। पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो, उसके बाद पानी पीना और ले जाना।"
                 नकुल बहुत प्यासे थे | उन्होंने उस बात पर बहुत ध्यान नहीं दिया और सरोवर का जल पीने लगे | जल पीते ही वे निर्जीव होकर पृथ्वी पर गिर पड़े | इधर नकुल को गये बहुत देर हो गयी तो युधिष्ठिर ने सहदेव को भेजा | उनको भी वही अदृश्य वाणी सुनाई दी | उन्होंने भी ध्यान नहीं दिया और जल पीते ही वे भी प्राणहीन होकर गिर गये | फिर धर्मराज ने एक एक कर अर्जुन और भीमसेन को भी भेजा | उनकी भी यही दशा हुई |
            जब कोई वापस नहीं लौटा तब युधिष्ठिर बहुत चिंतित हुए। बहुत थके होने पर भी स्वयं ही उस सरोवर के पास पहुँचे | अपने प्राणप्रिय भाइयों को पृथ्वी पर प्राणहीन अवस्था में पड़े देखकर उन्हें बहुत दुःख हुआ | देर तक भाइयों के लिए शोक करके अंत में वे भी जल पीने को उद्यत हुए | उसी समय उन्हें भी वही अदृश्य वाणी सुनाई दी - "इस जल पर मैंने अधिकार कर रखा है | जल पीने से पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो | मैंने ही तुम्हारे चारों भाइयों को मारा है | यदि तुम उत्तर नहीं दोगे तो पाँचवें तुम भी इन्हीं की तरह प्राणहीन होकर गिर पड़ोगे |"
युधिष्ठिर ने पूछाः "तुम कौन हो ?"
"मैं बगुला हूँ | "
"यह काम किसी पक्षी का तो नहीं हो सकता |"
"मैं कोरा जलचर पक्षी नहीं हूँ, यक्ष हूँ |"
तब धर्मात्मा युधिष्ठिर ने उस विशालकाय यक्ष को वृक्ष के ऊपर बैठे देखकर कहा -
"यक्ष ! मैं दूसरे के अधिकार की वस्तु नहीं लेना चाहता | तुमने सरोवर के जल पर पहले ही अधिकार कर लिया है तो यह जल तुम्हारा रहे। तुम जो प्रश्न पूछना चाहते हो पूछो, मैं अपनी बुद्धि के अनुसार उनका उत्तर देने का प्रयत्न करूँगा | "
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, October 25, 2018

पुरुषार्थ-30-धर्म-7


पुरुषार्थ- 30-धर्म-7  
           सत्व गुण को मनुष्य कैसे बढा सकता है ? इसको बढाने के लिए कई बार परिस्थितियां ऐसी पैदा हो जाती है जो उसे तामसिकता से दूर कर देती है | जैसा कि महर्षि वाल्मीकि और अंगुलिमाल के साथ हुआ था | दोनों ही व्यक्ति अपने जीवनकाल में भयानक डाकू (dacoit) रहे हैं | एक तो श्री राम का अनुरागी बन गया और दूसरा भगवान बुद्ध का शिष्य | तामसिकता से सात्विकता की ओर बढ़ना आपके स्वयं के पुरुषार्थ से ही संभव है | सनातन शास्त्र और गुरु व महान संत आपको केवल मार्ग ही दिखला सकते हैं | उस मार्ग को अपनाकर, उस मार्ग पर चलकर ही आप धर्म को उपलब्ध हो सकते हैं | इसीलिए धर्म को एक पुरुषार्थ कहा गया है |
         धर्म के मार्ग पर चलना ही नैतिक आदर्श (ideal morality) है | धर्म को अपनाकर ही आप शांति का अनुभव कर सकते हैं | धर्म से चाहे आपको सांसारिक वस्तुएं उपलब्ध न हो परन्तु जिस प्रकार की शांति का अनुभव आपको होगा वह अमूल्य है | धर्म की तुलना आप किसी भी अन्य सांसारिक वस्तु से नहीं कर सकते | इसीलिए धर्म का मूल्य मुद्रा में न होकर नैतिकता में निहित है अर्थात धर्म का केवल नैतिक मूल्य (Moral value) है | महत्वपूर्ण यह है कि नैतिक मूल्य सदैव ही मौद्रिक मूल्य (monetary value) से अधिक शक्तिशाली (powerful) होता है |
           अतः यह स्पष्ट है कि धर्म और सम्प्रदाय दोनों अलग अलग है | संप्रदाय अलग अलग हो सकते हैं परन्तु सभी सम्प्रदायों का धर्म लगभग एक ही होता है | कोई भी सम्प्रदाय असत्य भाषण को धर्म नहीं कहता, हिंसा की सभी संप्रदाय आलोचना ही करते हैं और इसी प्रकार सभी सम्प्रदायों में तप करने और दान देने का विशेष महत्त्व है | जो लोग धर्म का नाम लेकर झगड़ते हैं अथवा दंगा फसाद करते हैं वे सभी अधार्मिक लोग हैं | धार्मिक व्यक्ति कभी भी हिंसा में विश्वास नहीं रखता है | आज की आवश्यकता है कि हम सम्प्रदाय को धर्म से अलग समझकर केवल और केवल धर्म की राह पर चलें | धर्म का पालन करना ही हमें इंसान बनाता है अन्यथा एक पशु में और हमारे में कोई अंतर ही नहीं है | धर्म ही हमें पवित्र करता है | धर्म इसी जीवन का पुरुषार्थ है और धर्म पर चलते हुए कर्म करते रहने से ही इस की उपलब्धि संभव है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Wednesday, October 24, 2018

पुरुषार्थ-29-धर्म-6


पुरुषार्थ – 29-धर्म-6
                     सत्य के मार्ग पर चलना, सभी प्राणियों के प्रति दया का भाव मन में रखना, परमात्मा और सत्य की प्राप्ति के लिए तप करना और असहायों की दान देकर सहायता करना आदि सभी धर्म के अंतर्गत आते हैं और ऐसे धर्म मार्ग पर चलना वर्तमान मानव जीवन में पुरुषार्थ करने से ही संभव है | इसके लिए पूर्वजन्म का पुरुषार्थ यानि दैव, प्रारब्ध किसी उपयोग के नहीं है | संसार में जब मानव जन्म लेता है तब वह किसी भी प्रकार के व्यवहार और आचरण के प्रति सपाट कोरे कागज (Blank paper) की तरह होता है | उसमे और अन्य मूक प्राणियों में किसी भी प्रकार का अंतर आपको नज़र नहीं  आएगा | उसमे ‘धर्म’ का स्फुरण (Ignition) वर्तमान जीवन में होना ही संभव है | यह स्फुरण स्वतः (automatically) ही होना संभव नहीं है | इसके लिए पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है | यही कारण है कि चारों पुरुषार्थ में धर्म एक मुख्य पुरुषार्थ है |
            भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म में धर्म को विस्तृत रूप से स्पष्ट किया गया है | जैन धर्म के ग्रन्थ ‘तत्वार्थ-सूत्र’ में धर्म के दस लक्षण बताये गए हैं | 1.उत्तम क्षमा 2.उत्तम मार्दव-ह्रदय की कोमलता,सरलता,मृदुता (leniency) 3.उत्तम आर्जव –सीधापन,सहजता (rectitude) 4.उत्तम शौच- भीतर और बाहर की शुद्धि  5. उत्तम सत्य 6. उत्तम संयम 7. उत्तम तप 8.उत्तम त्याग 9. उत्तम आकिंचन्य (नगण्यता) और 10. उत्तम ब्रहमचर्य | जैन समाज में इसी आधार पर दस लक्षण व्रत रखे जाते हैं जो भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी से लेकर चतुर्दशी तिथि तक समपन्न होते हैं | प्रत्येक दिन क्रमानुसार (serial) एक एक व्रत का पालन किया जाता है |
           अब प्रश्न उठता है कि हम धर्मानुरागी कैसे बनें ? जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चूका है कि प्रत्येक मनुष्य में प्रकृति के तीनों गुण उपस्थित होते हैं | ये गुण हैं –सत, रज और तम | व्यक्ति में तीनों गुण जीवन के प्रारम्भ में समान रूप से उपस्थित होते हैं | परन्तु ज्यों ज्यों वह बड़ा होता जाता है त्यों त्यों उसमे किसी एक गुण की प्रधानता होती जाती  है | उसी गुण की प्रधानता से  उसको सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक प्रकृति का माना जाता है | एक गुण शेष दो गुणों को दबाकर ही बढ़ सकता है | धर्म के मार्ग पर चलना सात्विकता का लक्षण है | अतः मनुष्य को धर्म पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए शेष दो गुण रजस और तमस को दबाकर अपने में सत गुण को बढ़ाना होगा | सत गुण को बढ़ने पर मनुष्य असत्य को त्यागकर सत्य के मार्ग पर चल पड़ता है | हिंसा (violence) से उसका दूर दूर का सम्बन्ध नहीं रहता | परमात्मा में विश्वास (faith) रखकर वह तप करता है और असहायों की सहायता में सदैव ही तत्पर रहता है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Tuesday, October 23, 2018

पुरुषार्थ-28-धर्म-5


पुरुषार्थ – 28-धर्म-5  
                धर्म के महत्त्व को पुराणों में भी स्वीकार किया गया है | पुराणों का कहना है कि अधर्मी (अपने विवेक से च्युत) पुरुष (impious) यदि काम और अर्थ सम्बन्धी क्रियाएं करता है तो उसका फल बाँझ स्त्री (sterile) के पुत्र जैसा होता है अर्थात उनसे किसी प्रकार के कल्याण की सिद्धि नहीं होती | जैसे बाँझ स्त्री के पुत्र नहीं हो सकता, उसी प्रकार अपने कर्तव्य कर्म के विरुद्ध कार्य करने वाले का भी कभी कल्याण नहीं हो सकता | पद्मपुराण में लिखा है –
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा नित्यवर्तनैः |
दानेन नियमैश्चापि क्षमा शौचेन वल्लभः ||
अहिंसया च शक्त्या वाSस्तेयेनापि प्रवर्तते |
एतैर्दशभिरंगैश्च धर्ममेवं प्रसूचयते ||पद्मपुराण-5/89/8-9||
अर्थात ब्रह्मचर्य (celibacy), सत्य (truth), तप (penance),दान(donation), नियम (principle), क्षमा (forgiveness), शुद्धि (cleanness), अहिंसा (non violence), शांति (peace) और चोरी न करना, इन दस अंगों के धारण करने से ही धर्म की वृद्धि होती है |  
श्री मद्भागवत महापुराण के सातवें स्कंध में धर्म के तीस लक्षण बतलाये गए हैं | इसी प्रकार श्री रामचरित मानस के लंकाकांड में गोस्वामीजी ने धर्म का एक रथ के रूप में वर्णन किया है |
                             योगवासिष्ठ के अनुसार धर्म के चार चरण या चार आधार होते हैं | ये धर्म के चरण ही मनुष्य  के कर्तव्य के आधार है | इन चारों चरणों  में विश्वास रखते हुए कर्तव्य करते रहना ही वास्तविकता में धर्म हैं | धर्म के चरण हैं – सत्य (truth), अहिंसा (nonviolence) अथवा दया (kindness) , तप (penance) और दान (donation) | इन चारों के विलोम (opposite) अर्थात विपरीत होना अथवा चलना ही अधर्म है | आप किसी भी सम्प्रदाय के साहित्य और शास्त्रों को उठाकर देख लिजीये, आपको मुख्यतः इन्हीं चार बातों का अनुसरण करने का कहा जाता है | हिंसा, असत्य, कलह और असंतोष जैसे अधार्मिक बातों का कोई भी संप्रदाय समर्थन नहीं करता क्योंकि ये सभी अधार्मिकता के अंतर्गत आते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Monday, October 22, 2018

पुरुषार्थ-27-धर्म-4


पुरुषार्थ – 27-धर्म-4  
          मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बतलाये गए हैं | मनु लिखते हैं –
धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिनयनिग्रहः |
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ||मनुस्मृति-6/92||
अर्थात धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, आंतरिक तथा बाह्य शुद्धि, इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धि, शिक्षा, सत्य और क्रोध न करना, ये धर्म के दस लक्षण हैं | Patience, abstinence,no stealing, internal and external cleanness, controlling sense organs(mortify), intelligence, knowledge, truth and be cool or free from anger.
महाभारत में धर्म को अर्थ और काम का स्रोत माना गया है –
उर्ध्वबाहुर्विरौम्येष्य न च कश्चित शृणोति में |
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते ||
अर्थात भीष्म पितामह कह रहे हैं कि मैं बाँहों को उठाकर जोर-शोर से चिल्ला रहा हूँ किन्तु मेरी बात को कोई नहीं सुनता | धर्म से ही अर्थ और काम प्राप्त होते हैं, फिर उस धर्म का पालन किसलिए नहीं किया जाता ?
             श्री मद्भगवद्गीता में भी धर्म के महत्त्व को स्वीकार किया गया है | गीता के 18 वें अध्याय में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को धर्म का महत्त्व बतलाते हुए कह रहे हैं –
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ||गीता-18/47||
अर्थात गुणरहित होने पर भी स्वधर्म पालन करना अच्छा है, चाहे दूसरे का धर्म (कर्तव्य-कर्म) कितना भी अच्छा क्यों न हो | यदि मनुष्य अपने धर्म का पालन करता है तो वह पाप से सदैव बचा रहता है | गीता तो यहाँ तक कह देती है कि ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह:’ (गीता-3/35) अर्थात अपने धर्म (स्वविवेक) के पालन के लिए अपने प्राण भी गवां देना दूसरे के धर्म का पालन करने से अच्छा है क्योंकि दूसरे का धर्म भयावह है अर्थात अपरिचित है | जैसे एक चिकित्सक का धर्म है रोगी को रोगमुक्त करना | उसका चिकित्सा सेवा देना ही धर्म है | अगर वह अन्य क्षेत्र में जाकर कार्य करता है, तो वह कार्य उसको नहीं रुचेगा | इसलिए गीता में दूसरे धर्म को भयावह कहा गया है | यहाँ धर्म का अभिप्राय संप्रदाय से नहीं लेना है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Sunday, October 21, 2018

पुरुषार्थ-26-धर्म-3


पुरुषार्थ – 26-धर्म-3
धर्म के लक्षण -  
              हमारे सनातन शास्त्रों में धर्म की व्याख्या विभिन्न प्रकार से की गई है | सभी का अनुसन्धान करने पर हम पते हैं कि सब एक ही प्रकार की सोच रखते हैं | धर्म का अर्थ है – “व्यक्ति का कर्तव्य” (Duty as a human being) | जब मनुष्य को परमात्मा ने अपनी ही सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में प्रस्तुत किया है तो उसका कर्तव्य भी शेष सभी प्राणियों से अलग ही होगा | वैशेषिक दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद ने ‘वैशेषिक-सूत्र’ में धर्म के बारे में कहते हैं –‘यतोभ्युदयनिरुश्रेयस सिद्ध: स धर्मः’ अर्थात जिससे अभ्युदय (सांसारिक सुख) और निरुश्रेयस (आध्यात्मिक कल्याण) दोनों ही प्राप्त हो जाये, वही धर्म है | धर्म का यह लक्षण स्पष्ट रूप से भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों पक्षों में समन्वय (Coordination) स्थापित करता है | जो धर्म आध्यात्मिक पक्ष (Spiritual part)  की अवहेलना (Avoid) कर केवल भौतिक उन्नति (Materialistic development) को ही केंद्र में रखता है, वह एकांगी (Unilateral or one sided) है, धर्म नहीं है |
             मनुस्मृति में धर्म के चार स्रोत बताये गए हैं – श्रुति(revelation), स्मृति(remembrance), सदाचार (moral) तथा जो अपनी आत्मा (soul) को प्रिय लगे | धर्म में सबका कल्याण निहित (include) है | सर्व के कल्याण (Well being of all) से इसमें नैतिकता(morality), आदर्श (ideal) और मूल्य (value) समाहित (Include) हो गए हैं | गौत्तम ने अपने धर्मसूत्र में कहा है –
‘अथाष्टा वात्मार्गुणा: दया सर्वभूतेषु: क्षान्तिरनसूया शौच मता मासौ मंगलमय कार्यण्य स्पृहति |’
अर्थात सब प्राणियों पर दया(kindness), क्षमा(forgiveness), अनुसूया (आलोचना और ईर्ष्या न करना), शुचिता(निष्कपटता,cleanness), अतिश्रम वर्जन(avoid over working) , शुभ में प्रवृति (auspious), दानशीलता (liberal) तथा निर्लोभता(लोभ रहित), ये आठ आत्म-गुण हैं अर्थात ये धर्म हैं |
         उपनिषदों में कहा गया है कि धर्म समस्त विश्व का आधार है, क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति के आचरण की सभी वे बुराइयाँ दूर हो जाती हैं, जो विश्व कल्याण में बाधक हैं | कौटिल्य ने धर्म को एक शाश्वत-सत्य मन कहा है, जो समस्त संसार पर शासन करता है | बौद्ध धर्म के अनुसार धर्म अच्छे तथा बुरे, सत्य और असत्य में अंतर को स्पष्ट करता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Saturday, October 20, 2018

पुरुषार्थ-25-धर्म-2


पुरुषार्थ – 25-धर्म-2  
             हमारी सनातन संस्कृति का प्राण धर्म है परन्तु हमारे कथित सभ्य समाज (So called cultured society) ने ‘धर्म’ शब्द को जिस प्रकार समझा है वह अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है | आज धर्म को केवल पूजा पाठ और उपासना पद्धति से जोड़ दिया गया है, जबकि इन कर्मकांडों से धर्म का कहीं दूर दूर तक लेना देना नहीं है | आपके कर्मकांड, पूजा पद्धति और इनको विविध प्रकार से समझाती हुई पुस्तकें आपका व्यक्तिगत मामला (Personal matter) हो सकता है | यह सब आपकी निजता (Personality) को अवश्य ही प्रकट करता है परन्तु यह सब आपका धर्म निर्धारित नहीं करता | एक ही प्रकार की पूजा पद्धति और रहन सहन आपका समाज (Society) बना सकती है, वह आपका संप्रदाय (Community) निर्धारित कर सकती है परन्तु आपका धर्म नहीं | अतः इस “धर्म” शब्द को, इस शब्द की आत्मा को जाने और समझे बिना इसका अनुचित प्रयोग करना अनुचित ही नहीं निंदनीय भी है | आज किसी को भी पूछो कि ‘तुम्हारा धर्म क्या है’, प्रत्युतर में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि ही सुनने को मिलेगा | वास्तविकता यह है कि ये सभी कथित धर्म, ‘धर्म’ न होकर सम्प्रदाय मात्र है | एक सम्प्रदाय के लोगों की जीवन शैली, पूजा पद्धति और ईश्वरीय विश्वास लगभग एक समान (Similar) होता है | सभी सम्प्रदायों में चाहे मत विभिन्नता (Difference) कितनी ही हो परन्तु सबका धर्म एक ही होगा | इस बात को आप किसी भी प्रकार से नकार नहीं सकते | कोई भी संप्रदाय अगर अपने धर्म को किसी अन्य धर्म से अलग अथवा श्रेष्ठ भी मानता है तो यह आप मान लीजिये कि वह “धर्म” के अतिरिक्त किसी अन्य विषय की बात कर रहा है | सभी सम्प्रदायों का धर्म भी एक ही होता है, पूजा पद्धति भिन्न भिन्न हो सकती है | अतः आवश्यकता है कि सर्वप्रथम हम  अपने “धर्म” को जानें और पहिचाने और सम्प्रदायवाद से ऊपर उठें | 
             अगर ‘धर्म’ का सम्बन्ध ईश्वरीय विश्वास, पूजापाठ और संप्रदाय आदि से नहीं है तो फिर “धर्म” क्या है ? यह प्रश्न पूछना जितना आसान है, उसका उत्तर ढूंढ पाना उतना ही मुश्किल है | इसका कारण यह है कि हमने विभिन्न सम्प्रदायों के ठेकेदारों से इस शब्द की व्याख्या को कई वर्षों से इतना अधिक आत्मसात (Adapt) कर लिया है कि हम अपने अपने सम्प्रदायों को ही अपना धर्म मान बैठे हैं | सम्प्रदाय कहीं से भी गलत नहीं है और न ही कोई सम्प्रदाय कभी गलत हो सकता है | विभिन्न सम्प्रदाय होने भी आवश्यक है क्योंकि सम्प्रदाय और उनसे जुड़े शास्त्र हमें अपने “धर्म” के बारे में समुचित जानकारी उपलब्ध कराते हैं | हमारे अपने सम्प्रदाय के ज्ञानीजन समय समय पर इन शास्रों और पुस्तकों से हमें निर्देशित करते रहते हैं | अगर कोई कथित ज्ञानीजन इन पुस्तकों की व्याख्या गलत रूप से हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है तो यह उसकी गलती है, संप्रदाय अथवा उससे जुडी पुस्तकों की नहीं | अतः आज के इस समय में यह अत्यावश्यक हो गया है कि हम अपनी धार्मिक पुस्तकों को स्वयं पढ़ें और अगर कोई व्यक्ति इनमे वर्णित ज्ञान को गलत रूप से प्रस्तुत कर रहा हो, तो उसका खुलकर विरोध (Oppose) करें | किसी भी संप्रदाय के शास्त्र आपको “धर्म” के बारे में दिग्भ्रमित (Misguide) नहीं कर सकते, यह मेरा दावा ही नहीं बल्कि सत्य भी है | आइये, अब हम यह जानने का प्रयास करें कि हमारा “धर्म” क्या है ? धर्म के क्या लक्षण है अर्थात धर्म के अंतर्गत क्या क्या करना होता है ?
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Friday, October 19, 2018

पुरुषार्थ-24-धर्म-1


पुरुषार्थ – 24 धर्म -1
धर्म (Righteousness/Persuasions/Faith/Duty) – Moral values
                   भारतीय संस्कृति के मूल में ‘धर्म’ ही है | मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि ‘धर्म’ हमारी संस्कृति का प्राण है | भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भौतिकता की प्रधानता (Predominance) है वहीँ हमारी संस्कृति (Culture) में धर्म की प्रधानता है | पश्चिम की संस्कृति में भौतिकता की मुख्यता होने के कारण वह सुख प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रकार के कर्म करने को कहती है जबकि भारतीय संस्कृति में मुख्यता धर्म की होने के कारण वह आनंद को उपलब्ध होने के लिए धर्मानुसार कर्म करने को प्राथमिकता देती है | वहां पश्चिम में भौतिकता के कारण स्वाद (Taste) के लिए हिंसा की जा सकती है, यहाँ धार्मिकता के आधार पर स्वाद पर नियंत्रण रख अहिंसा (Non violence) की अनुपालना (Follow) करने पर जोर दिया जाता है | धर्म हमें यह सिखाता है कि हमें क्या तो करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए | इसीलिए भारतीय संस्कृति को आध्यात्मिक संस्कृति कहा जाता है |
               ‘धर्म’ शब्द की परिभाषा (Definition) करना बहुत ही कठिन है | ‘धर्म’, संस्कृत के शब्द ‘धातु’ से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है, धारण करना (Possess) | ‘धारणात धर्ममित्याहु: धर्मो धारयति प्रजाः’’ (महाभारत) अर्थात जिसको धारण किया जाता है उसको धर्म कहते हैं और इसी प्रकार धर्म प्रजा (Subjects) को धारण करता है | इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म केवल व्यक्ति ही धारण नहीं करता बल्कि स्वयं धर्म भी व्यक्ति को धारण करता है |
पञ्चतंत्र में ‘धर्म’ को वह तत्व बताया है जिसके आधार पर मनुष्य और प्राणियों में अंतर प्रकट होता है |
आहार निद्रा भय मैथुनंच सामान्यमेतत पशुभिर्नराणम |
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिर्समाना ||पञ्चतंत्र||
अर्थात आहार, निद्रा, भय और संतानोत्पत्ति में तो सामान्यतया मनुष्य सहित सभी जीव रत (Indulge) रहते हैं  लेकिन धर्म मनुष्य को अन्य जीवधारियों से पृथक करता है | अगर मनुष्य में से धर्म तत्व को अलग कर दिया जाये, तो फिर मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं रह जायेगा |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Thursday, October 18, 2018

पुरुषार्थ-23


पुरुषार्थ – 23
             केवल अर्थ और काम प्राप्त करने के लिए तो मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी प्राणी हैं ही | सभी प्राणियों को अर्थ और काम तो पूर्व मानव जीवन में किये गए पुरुषार्थ के कारण प्रारब्ध (Destiny) के रूप में उपलब्ध होते हैं और उनको अपने प्रारब्ध का उपयोग भी फल प्राप्त करने के अनुसार ही करना पड़ता है | परन्तु मनुष्य को यह अधिकार (Right) है कि वह प्रारब्ध स्वरूप मिले अर्थ और काम का उपयोग (Use) अपने विवेकानुसार कर सकता है | कहने का अर्थ यह है कि मनुष्य को भाग्यानुसार (according to destiny) मिलने वाले अर्थ और काम का सदुपयोग अथवा दुरूपयोग करने का अधिकार है | अर्थ और काम का सदुपयोग करना ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है | अर्थ और काम से पूर्व धर्म को स्थान देने का कारण भी यही है कि मनुष्य अपने धर्म के अनुसार प्रारब्ध में मिले अर्थ और काम का उपयोग कर जीवन मुक्त होने का प्रयास करे | स्वामी शरणानन्द जी महाराज कहते हैं कि प्रारब्ध का सदुपयोग करना ही मनुष्य का पुरुषार्थ है | अर्थ और काम का सदुपयोग धर्म के आचरण से ही हो सकता है अन्यथा नहीं | यही कारण है कि धर्म को मनुष्य का प्रथम पुरुषार्थ कहा गया है |
               मैंने जीवन में अपने चारों ओर (Around) उपस्थित सगे सम्बन्धियों, मित्रों आदि के साथ रहते हुए अनुभव किया है कि जिसने अपने भाग्य से मिले अर्थ और काम का धर्मानुसार सदुपयोग किया वे जीवन मुक्त होने की दिशा में आगे बढ (Progressive) रहे हैं | हाँ, यह बात अलग है कि उनकी संख्या नगण्य है (Negligible) और उनमें से कोई एक भी जीवन मुक्त हो पायेगा या नहीं; कहा नहीं जा सकता | परन्तु इतना अवश्य है कि वे व्यक्ति इस जीवन में नहीं तो धीरे धीरे अगले मानव जीवन में जीवन मुक्ति की राह पर उतरोत्तर प्रगति करते जायेंगे | सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि प्रायः लोग प्रारब्ध स्वरुप मिले अर्थ और काम का सदुपयोग नहीं करते बल्कि और अधिक काम और अर्थ प्राप्ति के लिए कामनाएं पाल रहे हैं | ऐसे व्यक्ति जीवन मुक्त कभी भी नहीं हो सकते | इन व्यक्तियों में एक तीसरी प्रकार के लोग भी हैं, जो भाग्य से मिले काम और अर्थ का दुरूपयोग कर रहे हैं और परिणाम स्वरुप दु:खों को प्राप्त हो रहे है | उनके जीवन को देखकर दया भी आती है और मन में रोष भी पैदा होता है कि लाख समझाने के बाद भी वे समझे नहीं और पतन को प्राप्त हुए हैं |
          अतः हमें यह समझना चाहिए कि हम अपने जीवन में मिल रहे अर्थ और काम को भाग्य और परमात्मा का प्रसाद मानें और उसका सदुपयोग करें जिससे हमारी आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होने के मार्ग पर प्रगति होती रहे | अर्थ और काम का सदुपयोग करना सिखाता है, हमारा धर्म | हमरा धर्म क्या है ? यह जानने के लिए आइये! अब हम धर्म पर चिंतन करते है | धर्म के बाद शेष तीन पुरुषार्थों पर भी चर्चा करेंगे |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, October 17, 2018

पुरुषार्थ -22


पुरुषार्थ – 22  
मनुष्य जीवन में किये और प्राप्त हो सकने वाले चार पुरुषार्थ निम्न प्रकार से हैं -  
धर्म (Righteousness/Persuasions/Faith/Duty) – Moral values
अर्थ (Prosperity/Substance) – Economic values
काम (Pleasure/Business/Action) – Psychological values
मोक्ष (Liberation/Enlightenment) – Spiritual values
        संसार में मनुष्य के अतिरिक्त 84 लाख योनियाँ (Species) और भी है | अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी एक प्राणी है और उसकी भी एक योनी है -मनुष्य योनी | अन्य प्राणी और मनुष्य, दोनों ही जीवन भर कर्म करते रहते हैं परन्तु अन्य प्राणी इन कर्मों से केवल उसी जीवन में काम और अर्थ प्राप्त कर सकते हैं; अपने भावी जीवन के लिए उन कर्मों का कोई योगदान नहीं होता | अन्य प्राणी भी कर्म केवल पूर्व मनुष्य जीवन में किये गए कर्मों के फल को प्राप्त करने के लिए करते है | यही कारण है की वे अपने जीवन में धर्म और मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते जबकि मनुष्य अपने वर्तमान जीवन में कर्म करते हुए अर्थ और काम के साथ साथ धर्म और मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता है | 84 लाख प्रकार के प्राणियों और मनुष्य नामक प्राणी में यही मूलभूत अंतर (Basic difference) है | 
                धर्म को प्रथम पुरुषार्थ और मोक्ष को मनुष्य का अंतिम पुरुषार्थ कहा गया है, इसका क्या कारण है ? अर्थ और काम में से कोई एक भी तो प्रथम पुरुषार्थ हो सकता था परन्तु ऐसा नहीं है | हमारे मुनियों ने, हमारे दार्शनिक महात्माओं ने अर्थ और काम; दोनों में से किसी एक को भी पुरुषार्थ में प्राथमिकता (Priority) नहीं दी |  कहने को तो हम इस क्रम (Order) को अपनाने के लिए बाध्य नहीं है क्योंकि क्रम चाहे किसी भी प्रकार का हो, है तो मानव जीवन में किये और प्राप्त होने वाले पुरुषार्थ ही | हमारे दर्शन (Philosophy) की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ क्रम भी सोच समझकर निर्धारित किया जाता है | जिस प्रकार अगर को व्यक्ति हमारे परिवार के सदस्यों के बारे में पूछे तो सबसे पहले हम अपने परिवार के बुजुर्ग (senior) और अनुभवी(Experienced)  सदस्य के नाम से प्रारम्भ करते हुए सबसे छोटे बच्चे के क्रम तक में परिचय (Introduction) देते हैं | ऐसा नहीं होता कि पहले किसी एक का नाम ले लिया और फिर किसी और का | बुजुर्ग सदस्य हमारे परिवार की रीढ़ (Back bone) होती है, इसलिए उनका परिचय सर्वप्रथम दिया जाता है | क्रम व्यवस्थित (well arranged) होना चाहिए जिससे पूछने वाले के मन में एक बार में ही पूरी बात स्पष्ट (clear) हो जाये | इसी प्रकार पुरुषार्थ जैसे महत्वपूर्ण विषय को स्पष्ट करने के लिए ऊपर दिया गया क्रम ही श्रेष्ठ है | अर्थ के बाद धर्म को लिया जाये अथवा काम और अर्थ के बाद धर्म को लिया जाये तो पुरुषार्थ की महत्ता नहीं रहेगी | आइये ! सर्वप्रथम यह जानते हैं कि पुरुषार्थ के क्रम में अर्थ और काम से पहले धर्म को स्थान क्यों मिला है ?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Tuesday, October 16, 2018

पुरुषार्थ -21


पुरुषार्थ – 21
              हमने अभी तक यह जान लिया है कि मानव जीवन में पुरुषार्थ किस प्रकार संभव हो सकता है, जिसके तीन विकल्प क्रमवार संक्षेप में जाने | इन तीनों विकल्पों को उपयोग में लेकर हम पुरुषार्थ के पदार्थों को पा सकते हैं | पुरुषार्थ का समुचित उपयोग करने से हम आत्म-बोध (Realization) को उपलब्ध हो सकते हैं | आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाना ही भगवद-कृपा (Grace of the God) कहलाती है | परमात्मा की कृपा (भगवद्-कृपा) पहले छोर (Starting point) से लेकर अंतिम छोर (End point) तक सतत (Persistent) चाहिए, तभी हम परम पुरुषार्थ के अधिकारी हो सकते हैं | बिना परमात्मा की कृपा के मनुष्य में न तो शास्त्रों के प्रति रुचि जाग सकती है, न ही उसे सद्गुरु मिल सकते हैं | स्वयं के द्वारा किया जाने वाला  प्रयास भी परमात्मा की कृपा के बिना होना असंभव हैं | इस संसार में खरबों (Trillions) मनुष्य हैं, परन्तु वास्तव में आज तक आत्म-बोध को उपलब्ध होने वाले महापुरुषों की संख्या केवल अँगुलियों पर गिने जाने लायक ही है | अतः कहा जा सकता है कि परमात्मा की कृपा की आवश्यकता प्रत्येक चरण में रहती है और यह कृपा भी आपके पूर्वजन्म से प्राप्त हुए प्रारब्ध का सदुपयोग करते हुए इस जीवन में पुरुषार्थ करके ही पाया जा सकता है | कहने का अर्थ है कि पूर्व जन्म के पुरुषार्थ (प्रारब्ध) का सदुपयोग कर लेना ही इस जीवन का पुरुषार्थ है जो आपको परमात्मा के साथ एकाकार कर सकता है |
                     अब हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि इन चार पुरुषार्थ में क्या विशेषता है कि इन्हें प्राप्त करने के लिए इतने पापड़ बेलने पड़ते हैं | जब परमात्मा ने हमें अन्य सभी प्राणियों से श्रेष्ठ बनाया है तो कुछ न कुछ तो इसके पीछे कारण रहा ही होगा | क्यों बैठे बैठे परमात्मा के मन में यह बात आई कि मैं अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना (Best creation) बनाऊं ? जब उसने बना ही दी है यह रचना, तो हमारा भी यह प्रयास होना चाहिए कि हम उन उद्देश्यों (Aims) को प्राप्त करें जिनके लिए मनुष्य का इस धरा पर आगमन हुआ है | ये उद्देश्य हैं- धर्म, अर्थ, काम और अंत में मोक्ष | आहार (Feed), निद्रा (Sleep),भय (Terror) और मैथुन (Sex) में तो रत संसार के सभी प्राणी रहते हैं परन्तु मनुष्य को इनसे अलग, कुछ विशेष करने के बारे में भी जाना जाता है | हम अब एक एक करके इन चारों पर संक्षिप्त रूप से चर्चा करेंगे कि क्या इन चारों की क्या तो विशेषताएं हैं और क्यों ये हमारे लिये आवश्यक हैं ?
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Monday, October 15, 2018

पुरुषार्थ-20


 पुरुषार्थ – 20     
                          मोक्ष प्राप्ति के लिए तो अंततः आपको अपने प्रयत्न से शुभ वासना का भी त्याग करना होगा | मोक्ष प्राप्ति के लिए यही आपका सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण प्रयत्न होगा | इस बारे में केवल आपका प्रयास ही कार्य करेगा | हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्दराम शर्मा कहते हैं कि व्यक्ति के जीवन में आवश्यकता (Need) पूरी हो सकती है, जिन्हें पूरा करना परमात्मा का दायित्व है परन्तु उसकी इच्छाएं, वासनाएं (Lust) किसी भी जीवन में पूरी नहीं हो सकती | यह एकदम सत्य है |” अतः जीवन में शांति चाहते हैं तो अपने जीवन में कभी भी वासनाओं को न पनपने दें | वासना शून्य (Lust free) हो जाना ही संसार से मुक्ति है क्योंकि जहाँ वासना नहीं है वहां मन भी नहीं है | हमारा संसार ही स्वयं के मन के कारण ही है | इस प्रकार मन के मौन (Silent) होते ही संसार भी विलुप्त (Disappear) हो जाता है | मन ही संसार है और अमन हो जाना ही संसार से मुक्ति है | संसार की विलुप्तता ही आत्मज्ञान (Realization) है | जब आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जाते हो तो आप जीवित होते हुए भी मुक्त है | इसी को जीवन-मुक्त कहते हैं | अब इस संसार में रहते हुये भी आपके भीतर संसार नहीं रहता | आपकी सब कामनाएं, इच्छाएं और वासनाएं विलुप्त हो चुकी होती है | जब इन सभी से आप मुक्त हैं तो फिर बंधन कोई है ही नहीं | इस बंधन का खुल जाना ही मुक्ति है, मोक्ष है |
             आपके प्रयत्न ही आपके लिए मुक्ति द्वार को खोल सकते हैं | गुरु के मार्गदर्शन से आप शास्त्रों के ज्ञान को समुचित तरीके से आत्मसात करें और वासनाओं को पूर्णतया त्याग दें | वासनाओं का पूर्ण रूप से त्याग (Complete abolition) का अर्थ है कोई  शुभ वासना भी नहीं रहे, यहाँ तक कि मुक्ति और परमात्मा प्राप्ति की कामना का भी त्याग हो जाना चाहिए | जब वासनाओं का त्याग इस सीमा तक हो जाता है तो फिर मुक्ति के द्वार स्वतः ही खुल जाते हैं, उन्हें खोलना नहीं पड़ता | प्रयत्न तो वासना त्याग के लिए ही करना पड़ता है और वही त्याग मुक्ति के द्वार की कुंजी (Key) है |
                          इस मोक्ष के द्वार के चार द्वारपाल (Guard) बताये जाते हैं- शम (appease), विचार (contemplation) , संतोष (Contentment) और सतगुरु (true master)| ये चारों द्वारपाल आपके प्रयत्न करने से ही आपके पक्ष में हो सकते हैं अन्यथा नहीं | शम का अर्थ है वासनाओ का शमन, जिससे आप शांति को उपलब्ध हो सकें | विचार का अर्थ है शास्त्र पढ़कर विचार करें कि कौन सा कर्म उचित है और कौन सा अनुचित | संतोष का अर्थ है जो मिल गया उसी में संतुष्ट रहें | इससे आप अपनी वासनाओं को नियंत्रण में रख पाएंगे | सतगुरु अथवा साधू संगम का अर्थ है कि आप सतत इनके सानिध्य में रहने से सद् मार्ग (right path) से कभी भी भटकेंगे नहीं | अतः इन सभी द्वारपालों को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न आप स्वयं ही कर सकते है फिर ये आपके लिए मुक्ति का द्वार खोल देंगे |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Sunday, October 14, 2018

पुरुषार्थ-19


पुरुषार्थ – 19
                 “अँधा अँधे ठेलिया, दोनों कूप पड़न्त” के इस दृष्टान्त से यह स्पष्ट है कि आपको अगर मुक्त होना है, तो उसके लिए किसी मुक्त हुए व्यक्ति की शरण में ही जाना होगा | कई कथित ज्ञानी गुरु आपको मुक्त करने का आश्वासन अवश्य दे सकते हैं परंतु वे स्वयं ही बंधे हुए होते है, अपने समाज से, अपने परिवार से, अपने स्थान से और सबसे बड़ी बात, वे बंधे हुए होते हैं धन से, जिसको एकत्रित करने के लिए उसको आपके सहारे (Support) की आवश्यकता है | अतः सावधानी से गुरु की पहचान करें तभी आप मुक्त हो सकते हैं अन्यथा नहीं | शास्त्र अध्ययन और गुरु का मार्गदर्शन तभी सार्थक सिद्ध हो सकता है, जब हमारे भीतर आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होने की ललक हो | हमारी लगन ही हमें हमारे उद्देश्य तक पहुँचने में सहायक होती है, बिना लगन के शास्त्र और गुरु भी कुछ नहीं कर सकते |  तो आइये, अब बात करते हैं स्वयं के प्रयत्न अर्थात स्व-कृपा की |
स्वयं का प्रयत्न-(स्व-कृपा)-
            पुरुषार्थ में स्वयं के द्वारा प्रयत्न (Efforts) करने आवश्यक हैं | गुरु के निर्देशन (Directions) के बाद भी अगर आप अपनी तरफ से किसी भी प्रकार का प्रयास  नहीं करते हैं, अभीष्ट की प्राप्ति के लिए, तो आपको न तो गुरु किसी प्रकार की सहायता (Help) उपलब्ध (Provide) करवा सकता है और न हीं आपका शास्त्रों का ज्ञान | आपको इस स्थिति में पहुंचकर स्पष्ट हो जाता है कि आपको पुरुषार्थ की इन चार उपलब्धियों के लिए क्या, कैसे और कब करना होगा ? यहाँ बड़ी ही गंभीरता (Seriously) और तत्परता (Actively) के साथ आपके प्रयत्न से ही आप लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं | इसीलिए शेष 25 प्रतिशत प्राप्त करने की योग्यता आपके प्रयत्न में छुपी हुई है | शास्त्र चिंतन और शास्त्र अभ्यास आपको धर्म के मार्ग पर ला सकता है | गुरु के सानिध्य से आप धर्म के साथ साथ काम और अर्थ की प्राप्ति भी कर सकते हैं | परन्तु अगर आपको मोक्ष चाहिए तो याद रखें मोक्ष स्वाधीन (Independent) है | आप मुक्त स्वयं के प्रयत्न से ही हो सकते हैं | अतः प्रयत्न की भूमिका पुरुषार्थ में सबसे महत्वपूर्ण मानी गई है |
             प्रायः मनुष्य इस स्थिति में आकर अर्थात शास्त्रीय अभ्यास और गुरु का सानिध्य पाकर यूँ  महसूस करता है मानो वह परमात्मा के द्वार पर खड़ा है | एक सीमा तक यह सत्य भी है | परन्तु अभी भी परमात्मा के द्वार पर आप खड़े अवश्य हैं परन्तु यह द्वार आपके लिए न तो कोई शास्त्र खोल सकता और न ही कोई पहुंचा हुआ गुरु | इस द्वार को तो आप अपने प्रयत्न से ही खोल सकते हैं | यह द्वार खोला जा सकता है, वासना मुक्त होकर | इस विवेचन के प्रारम्भ में मैंने बताया था कि अशुभ वासना त्यागकर शुभ वासना ग्रहण करें | परन्तु ध्यान में रहे, यह शुभ वासना आपको धर्म, काम और अर्थ सुलभ करवा सकती है परन्तु मोक्ष नहीं | मोक्ष के लिए तो सभी प्रकार की कामनाओं का त्याग करना पड़ता है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||