Sunday, March 31, 2019

रामकथा-35-रामावतार के हेतु-

रामकथा-35-रामावतार के हेतु-
     हाँ, होता वही है जो होना होता है परन्तु प्रतापभानु के समस्त राजशाही जीवन को देखें तो उनका कोई भी कर्म ऐसा दिखलाई नहीं पड़ता जो उन्हें असुर योनि में जाने की ओर उन्हें धकेल दे। हम अपने जीवन में भी कई बार ऐसे अनुभवों से दो चार होते हैं, जिन पर दृष्टिपात करें तो लगता है कि इतना भगवत प्रेमी अपने जीवन में किस प्रकार दुःखों का सामना कर रहा है।नहीं, दुःख सुख का संबंध केवल वर्तमान जीवन के कर्मों से नहीं है।हमारे सैंकड़ों जन्म पूर्व के कर्म तक उनके पीछे होते हैं जो फल दिए बिना हमारा पीछा नहीं छोड़ते।
      असुर होते हुए भी हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप परमात्मा को सदैव याद रखते थे। उसी का परिणाम था कि वे इस जन्म में प्रतापभानु और अरिमर्दन बने।असुर  से सीधे राज योनि में।केवल एक ही कारण, असुर होते हुए भी उन्होंने श्रीहरि को कभी विस्मृत नहीं होने दिया। भगवान कहते हैं कि "आप चाहे मित्र भाव से भजो चाहे शत्रु भाव से, भजने के कारण आप मेरे प्रिय हो जाते हो।" इसी का परिणाम उन्हें इस जीवन में राजपरिवार में जन्म लेने के रूप में मिला।परंतु परमात्मा को उन्हें फिर एक और असुर योनि में भेजना है। इसीलिए उनका वह कर्म फल देने के लिए सामने ले आये जो उन्होंने अहंकारवश और व्यवहार रूप से सनकादिक ऋषियों के साथ किया था।
      इस कथा का सार यही है कि कर्म करने में सदैव सावधान रहो। न जाने कौन सा कर्म किस जन्म में जाकर फ़लीभूत होगा।निषिद्ध कर्म करते हुए जब उसका विपरीत परिणाम हमें उस जीवन मे नहीं मिलता तो हम समझ बैठते हैं कि ऐसे कर्म करने से भी कोई हानि नहीं होती है।नहीं,हमारी सोच गलत है। कोई भी कर्म किसी भी जीवन में कभी भी फल दे सकता है, इसलिए सदैव शास्त्र सम्मत कर्म ही करें और निषिद्ध कर्म करने से बचे।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

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