Monday, March 18, 2019

रामकथा-22-रामावतार के हेतु-

रामकथा-22-रामावतार के हेतु-
     पार्वतीजी ने अपने पूर्वजन्म में एक अनुचित कार्य (परमात्मा पर संशय) किया था, जब वह दक्षसुता सती थी।शम्भू के लाख मना करने के बाद भी उसने अपना संशय दूर करने के लिए (मानस कर्म)परमात्मा की परीक्षा ली थी।राम वनगमन की अवस्था में थे और सती शंकर दोनों वनभ्रमण पर। सीता का रावण द्वारा हरण कर लिए जाने पर राम व्याकुल होकर रोते हुए सीता को पुकार रहे हैं।शंकर भगवान अपने प्रभु को सामने से आते देखकर नंदी से उतरे और उन्हें सादर प्रणाम किया।जगतपति शंकर एक साधारण वनवासी को सादर प्रणाम कर रहे हैं, सती यह देखकर अचम्भित रह गई। "जगतपति के ऊपर तो केवल एक परमात्मा ही हो सकता है अन्य कोई नहीं।फिर पतिदेव वनवासी को प्रणाम क्यों कर रहे हैं? एक वनवासी भला परमात्मा किस प्रकार से हो सकते हैं ? जो अपनी भार्या के खो जाने पर इतना अधिक व्याकुल होकर रो रहा है, वह तो ब्रह्म हो ही नहीं सकता।"
        शंकर-सती आगे भ्रमण पर चल पड़े परंतु सती का मन बेचैन।उनके मन में संशय उत्पन्न हो गया और वह भी परमात्मा के प्रति।भगवान शंकर से आज्ञा लेकर चल पड़ी उस वनवासी की परीक्षा लेने। "नहीं,वे परम ब्रह्म है, वनवासी समझकर उनकी परीक्षा लेने की भूल न करना।" शम्भू ने उन्हें अंतिम चेतावनी दी परंतु सती कहाँ मानने वाली थी, आखिर एक स्त्री जो ठहरी। बनाया सीता का वेश और चल पड़ी उधर, जिधर से राम लखन सीता को ढूंढने की लीला करते हुए आ रहे थे। सीता का वेश धारण किये हुए सती को सामने से राह में अकेले आते देखकर राम बोल पड़े-"माता, प्रणाम।आज आप वन में अकेले कैसे घूम रही हैं ? कहाँ है, जगतपति?" सती पुनः एक बार अचम्भित हुई। इन्होंने तो मुझ को सीता के वेश में भी पहचान लिया। ये कोई साधारण वनवासी नहीं है। ये तो साक्षात परम ब्रह्म ही हैं।सती को काटो तो खून नहीं। "हे भगवान, जानबूझकर कितना बड़ा अपराध कर बैठी मैं? शंकर के लाख समझाने पर भी इनको एक वनवासी ही समझकर क्यों संशय किया मैंने ?अब शंकर को क्या उत्तर दूंगी?" प्रणाम कर लौट पड़ी,मन में कुछ सोचते हुए शंकर के पास। 
         आते ही झूठ बोला शंकर को, अपने पति को। "मैंने उनकी कोई परीक्षा नहीं ली, आपकी तरह ही उनको प्रणाम कर के लौट आयी हूँ।" भला शंकर से भी कभी कुछ छुपा रह सकता है? नहीं, वे तो त्रिकालज्ञ हैं और त्रिलोकी के नाथ भी। सब कुछ समझ गए।
        अनायास उत्पन्न हुई उस स्थिति से शंकर बड़े आहत हुए और उन्होंने सती को त्याग दिया। मेरी पत्नी ने मेरे प्रभु पर संशय किया, अब इस जन्म में वह मेरी पत्नी कहलाने के योग्य नहीं रही। शम्भू ने आहत हुए मन को नियंत्रित किया और अखंड समाधि में लीन हो गए।हज़ारों साल बाद जगे, परंतु सती के साथ वह व्यवहार नहीं, जो एक पत्नी के साथ किया जाता है। सती के पिता दक्ष ने यज्ञ किया परंतु शंकर से वैमनस्य के चलते उन्हें आमंत्रित नहीं किया, सती को भी नहीं। परित्यक्ता का जीवन जीते जीते सती को अपना जीवन बोझ लगने लगा था, सोचा-"पिता के घर हो आऊं, सबसे मिलूंगी तो मन बहाल जाएगा।पिता के घर जाने के लिए किसी आमंत्रण की कोई आवश्यकता क्यों हो?" शम्भू ने लाख समझाया, सती तर्क वितर्क करती रही।
भांति अनेक संभू समझावा।
 भावी बस न ग्यानु उर आवा।।1/62/7।।
अंततः शम्भू ने आज्ञा दे दी। अपने गण उनके साथ कर दिये। वहाँ जाकर सती ने देखा कि यज्ञ में शम्भू का स्थान और भाग कहीं नहीं है। वह अपने पति का अपमान सहन नहीं कर सकी और अपने पिता दक्ष के घर में ही योगाग्नि में जलकर भस्म हो गई । कई वर्षों बाद हिमालय-मैना के घर पार्वती के रूप में पुनर्जन्म लिया। पूर्वजन्म की इच्छानुसार कठोर तपस्या के बाद उनका विवाह शंकर भगवान के साथ हुआ। इस जन्म में अब परम ब्रह्म के प्रति कोई भ्रम न पैदा हो, इसलिए वे अपने पति शंकर से रामकथा सुनना चाहती है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

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