Thursday, March 14, 2019

रामकथा-18-अवतार के हेतु-

रामकथा-18-अवतार के हेतु-
             इस संसार में किसी का भी अवतरण होता है तो उसमें उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का योगदान अवश्य होता है।  हाँ कर्म, परंतु किसके कर्म?परमात्मा तो "न करोति न लिप्यते" है। जब वे कर्म करते ही नहीं है तो फिर कौन से और किसके द्वारा किये गए कर्म परिणाम देने के लिए उनको विवश कर सकते हैं? यही तो कर्म रहस्य है। उन्हीं के बनाये विधान के अनुसार स्वयं उनको भी चलना पड़ता है।हम सोचते हैं कि केवल हमारे द्वारा किये गए कर्म ही हमारे भावी जन्म को प्रभावित करते हैं ।नहीं,केवल हमारे कर्म ही नहीं, हमारे से संबंधित प्रत्येक व्यक्ति के कर्म, विचार और यहां तक कि उनके कथन तक भी हमारे महाजीवन की दिशा निश्चित करते हैं।अब हम उन कर्मों का विश्लेषण करेंगे जिनके कारण कर्म न करते हुए भी परमात्मा को अवतार लेना पड़ता है।इस विषय पर चर्चा प्रारम्भ करने से पूर्व महाभारत काल की एक कथा को देखते हुए आगे बढ़ते हैं।
      अर्जुन को अहंकार हो गया कि वही भगवान के सबसे बड़े भक्त हैं।भगवान श्रीकृष्ण ने उसके मन की बात को तुरंत समझ लिया। एक दिन वह अर्जुन को अपने साथ घुमाने ले गए। रास्ते में उनका सामना एक गरीब ब्राह्मण से हुआ। उसका व्यवहार उन्हें थोड़ा विचित्र लगा। वह सूखी घास खा रहा था और उसकी कमर में तलवार लटक रही थी। अर्जुन ने पूछा, ‘‘आप तो अहिंसा के पुजारी हैं। जीव हिंसा के भय से सूखी घास खाकर अपना गुजारा करते हैं लेकिन फिर हिंसा का यह उपकरण तलवार क्यों आपके साथ है?’’
ब्राह्मण ने जवाब दिया, ‘‘मैं कुछ लोगों को दंडित करना चाहता हूँ।’’
‘‘आपके वे शत्रु कौन कौन हैं? कृपया बतलाइए।’’ अर्जुन ने जिज्ञासा जाहिर की।
ब्राह्मण ने कहा, ‘‘मैं उन चार लोगों को खोज रहा हूँ,ताकि उनसे अपना हिसाब चुकता कर सकूं।उन्होंने मेरे प्रभु को बहुत कष्ट दिया है।
       सबसे पहले तो मुझे नारद की तलाश है। नारद मेरे प्रभु को कभी आराम ही नहीं करने देते, सदा भजन-कीर्तन कर उन्हें जाग्रत रखते हैं। फिर मैं द्रौपदी पर भी बहुत क्रोधित हूँ। उसने मेरे प्रभु को ठीक उस समय पुकारा, जब वह भोजन करने बैठे थे। उन्हें तत्काल खाना छोड़ पांडवों को दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने जाना पड़ा। उसकी धृष्टता तो देखिए। उसने मेरे भगवान को जूठा खाना तक खिलाया।"
 ‘‘आपके दो और शत्रु कौन कौन हैं?’’ अर्जुन ने पूछा।
     "तीसरा शत्रु  है हृदयहीन प्रह्लाद। उस निर्दयी ने मेरे प्रभु को गर्म तेल के कड़ाह में प्रविष्ट कराया, हाथी के पैरों तले कुचलवाया और अंत में खंभे से प्रकट होने के लिए विवश किया और चौथा शत्रु है अर्जुन। जरा उसकी दुष्टता तो देखिए। उसने मेरे भगवान को अपना सारथी तक बना डाला। उसे भगवान की असुविधा का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। कितना कष्ट हुआ होगा मेरे प्रभु को?" यह कहते कहते ब्राह्मण की आंखों में आंसू आ गए।
       यह देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया। उसने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहा, ‘‘मान गया प्रभु, इस संसार में न जाने आपके कितने तरह के भक्त हैं। मैं तो उनके समक्ष कुछ भी नहीं हूँ।"
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

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