रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-12-
रामकथा युगों युगों से गाई जा रही है, पढ़ी जा रही है,सुनी जा रही है और सुनाई जा रही है।इसके कारण हमारे में से चाहे कोई भी क्यों न हो, विभोर,विह्वल अथवा विकल हो सकता है। अब आप देख ही लीजिए, रामकथा बाल्मिकी जी ने सबसे पहले लिखी, सुनी लव कुश ने और जाकर सुनाई अपने पिता राम को। फिर इस कथा को सुनने और सुनाने वालों की एक लम्बी विवरणिका है। गोस्वामीजी ने अपने आराध्य के लिए अपनी भाषा में रामकथा लिखी, जिसमें शंकर भगवान ने यह कथा अपनी पत्नी देवी पार्वती को सुनाई है।बहुत ही आत्म विभोर कर देने वाली कथा है। यहां तक कि शंकर भगवान भी कथा सुनाते सुनाते अनेकों बार विभोर हो जाते हैं।
गोस्वामीजी ने सुंदरकांड में विकल,विह्वल और विभोर होने का बहुत ही सुंदर चित्रण किया है।वे लिखते हैं-सीता का पता लगाकर हनुमान आ गए हैं। राम के दोनों नयन जल से भर आये हैं।वे हनुमानजी को पूछ रहे है कि सीता ने कुछ कहा है क्या ?'
'नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी।।'
हनुमान सीता की विरह स्थिति की बात भगवान श्रीराम को बताते हैं,बड़े ही विकल होकर । विकलता इतनी अधिक है कि वे कह उठते हैं,'जल्दी चलिए प्रभु, उस दुष्ट रावण को जीत कर सीता को ले आते हैं।'
'बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।।' यह बात हनुमानजी की विकलता को प्रदर्शित करती है,"प्रभु जल्दी कीजिये।" हम भी विकल होकर कई बार प्रत्येक कार्य में शीघ्रता दिखाते हैं।हनुमानजी के विकल होने के बाद आते है, उनके विह्वल होने की बात पर। गोस्वामीजी आगे लिखते हैं-
'बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।।'
प्रभु चरणों में गिरे हनुमान को राम उठाने का बार बार प्रयास करते हैं,परंतु हनुमान इतने अधिक विह्वल हैं कि उठना ही नहीं चाहते। प्रभु प्रेम में डूब गए हैं हनुमानजी महाराज। राम उठाना चाहते है परंतु वे इतने अधिक विह्वल हो गए हैं कि प्रभु के चरणों को छोड़ना ही नहीं चाहते।
अब आत्म विभोर की स्थिति पर थोड़ी दृष्टि भी डाल लेते हैं, देखिए अगली ही चौपाई । पार्वती को कथा सुनाते हुए शंकर भी हो गए हैं,आत्म विभोर।
'प्रभु कर पंकज कपि के सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।'
भला, रुद्रावतार हनुमान के सिर पर प्रभु का हाथ हो और रूद्र आत्मविभोर न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? शंकर भगवान कथा सुनाते हुए इस प्रकार अनुभव कर रहे हैं मानो उस समय स्वयं प्रभु राम ही उनके शीश पर हाथ फिरा रहे हों। ध्यान दीजिए, यहां न तो शंकर स्वयं को भूले हैं और न ही भगवान राम को, केवल मगन हुए हैं।
क्या विभोर होना सही है? सत्य तो यह है कि आत्म कल्याण के लिए तीनों ही स्थितियों से हमारा बाहर आना आवश्यक है क्योंकि इन स्थितियों को बनाने में मुख्य रूप से मन की भूमिका रहती है।मन है तो संसार है, मन मिट गया तो परमात्मा है। अतः हमें मन को अमन करना है।इस विभोर, विह्वल और विकलता की स्थिति से बाहर कैसे निकला जाए?इस बात को जान लेंगे और समझ जाएंगे तो हमारा कल्याण निश्चित है ।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
रामकथा युगों युगों से गाई जा रही है, पढ़ी जा रही है,सुनी जा रही है और सुनाई जा रही है।इसके कारण हमारे में से चाहे कोई भी क्यों न हो, विभोर,विह्वल अथवा विकल हो सकता है। अब आप देख ही लीजिए, रामकथा बाल्मिकी जी ने सबसे पहले लिखी, सुनी लव कुश ने और जाकर सुनाई अपने पिता राम को। फिर इस कथा को सुनने और सुनाने वालों की एक लम्बी विवरणिका है। गोस्वामीजी ने अपने आराध्य के लिए अपनी भाषा में रामकथा लिखी, जिसमें शंकर भगवान ने यह कथा अपनी पत्नी देवी पार्वती को सुनाई है।बहुत ही आत्म विभोर कर देने वाली कथा है। यहां तक कि शंकर भगवान भी कथा सुनाते सुनाते अनेकों बार विभोर हो जाते हैं।
गोस्वामीजी ने सुंदरकांड में विकल,विह्वल और विभोर होने का बहुत ही सुंदर चित्रण किया है।वे लिखते हैं-सीता का पता लगाकर हनुमान आ गए हैं। राम के दोनों नयन जल से भर आये हैं।वे हनुमानजी को पूछ रहे है कि सीता ने कुछ कहा है क्या ?'
'नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी।।'
हनुमान सीता की विरह स्थिति की बात भगवान श्रीराम को बताते हैं,बड़े ही विकल होकर । विकलता इतनी अधिक है कि वे कह उठते हैं,'जल्दी चलिए प्रभु, उस दुष्ट रावण को जीत कर सीता को ले आते हैं।'
'बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।।' यह बात हनुमानजी की विकलता को प्रदर्शित करती है,"प्रभु जल्दी कीजिये।" हम भी विकल होकर कई बार प्रत्येक कार्य में शीघ्रता दिखाते हैं।हनुमानजी के विकल होने के बाद आते है, उनके विह्वल होने की बात पर। गोस्वामीजी आगे लिखते हैं-
'बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।।'
प्रभु चरणों में गिरे हनुमान को राम उठाने का बार बार प्रयास करते हैं,परंतु हनुमान इतने अधिक विह्वल हैं कि उठना ही नहीं चाहते। प्रभु प्रेम में डूब गए हैं हनुमानजी महाराज। राम उठाना चाहते है परंतु वे इतने अधिक विह्वल हो गए हैं कि प्रभु के चरणों को छोड़ना ही नहीं चाहते।
अब आत्म विभोर की स्थिति पर थोड़ी दृष्टि भी डाल लेते हैं, देखिए अगली ही चौपाई । पार्वती को कथा सुनाते हुए शंकर भी हो गए हैं,आत्म विभोर।
'प्रभु कर पंकज कपि के सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।'
भला, रुद्रावतार हनुमान के सिर पर प्रभु का हाथ हो और रूद्र आत्मविभोर न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? शंकर भगवान कथा सुनाते हुए इस प्रकार अनुभव कर रहे हैं मानो उस समय स्वयं प्रभु राम ही उनके शीश पर हाथ फिरा रहे हों। ध्यान दीजिए, यहां न तो शंकर स्वयं को भूले हैं और न ही भगवान राम को, केवल मगन हुए हैं।
क्या विभोर होना सही है? सत्य तो यह है कि आत्म कल्याण के लिए तीनों ही स्थितियों से हमारा बाहर आना आवश्यक है क्योंकि इन स्थितियों को बनाने में मुख्य रूप से मन की भूमिका रहती है।मन है तो संसार है, मन मिट गया तो परमात्मा है। अतः हमें मन को अमन करना है।इस विभोर, विह्वल और विकलता की स्थिति से बाहर कैसे निकला जाए?इस बात को जान लेंगे और समझ जाएंगे तो हमारा कल्याण निश्चित है ।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
सबसे सही था
ReplyDeleteमन को अमन करना है
अद्भुत