रामकथा-32-रामावतार के हेतु-
राजा प्रतापभानु ने समस्त विश्व को जीत लिया था । प्रायः राजा लोगों ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। कुछ राजाओं को दंड देकर छोड़ दिया गया । अब प्रतापभानु के समान जग में कोई अन्य राजा नहीं था।सचिव धर्मरूचि राजा को सदैव धर्माचरण के लिए प्रेरित करते थे और प्रतापभानु उनके कथनानुसार आचरण करते थे। उनके राज्य में कहीं पर भी किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं थी।गोस्वामीजी ने इस संबंध में मानस में लिखा है-
भूप धर्म जो बेद बखाने।सकल करइ सादर सुख माने।।
-1/155/5
राज्य में प्रजा को धर्म, अर्थ और काम, तीनों प्रकार के सुख उपलब्ध थे। चाहे प्रतापभानु कितना ही प्रजा हितैषी और धर्माचरण रत हो, पूर्वजन्म के किये कर्म, फल देने तक पीछा नहीं छोड़ते। अभी तक भगवान के दो पार्षद जय विजय ने केवल एक असुर योनि को ही भोगा है, अभी उनको ऐसे ही दो योनियों को और भोगना है।प्रतापभानु और अरिमर्दन पूर्वजन्म में हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप थे।अब उनके समीप दूसरी आसुरी योनि को भोगने के समय आ रहा है।
जब राज्य की प्रजा सुखी औऱ सुरक्षित रहती है, तब राजा उनकी देखभाल करने के साथ साथ अपनी रूचि के मनोरंजन कार्यों को भी करता रहता है। प्रतापभानु का ऐसा ही एक रूचि का कार्य था,आखेट। एक दिन राजा आखेट के लिए जंगल की ओर प्रस्थान करता है।अस्त्र शास्त्रों से सुसज्जित राजा वायुवेगी अश्व पर सवार होकर शिकार की तलाश में जंगल के रास्तों पर इधर उधर दृष्टि डालते हुए दौड़े चले जा रहे हैं।अनायास उनकी दृष्टि एक विशाल सुअर पर पड़ती है। राजा उसके जाने की दिशा में अपने अश्व को भी दौड़ा देते हैं।सुअर पर तीर पर तीर चलाये जा रहे हैं, परंतु कोई तीर उसको नहीं लगता है। इसी प्रकार पूरा दिन बीत जाता है और सुअर भी दृष्टि से ओझल हो जाता है। वास्तव में वह सुअर एक कालकेतु नामक राक्षस था। प्रतापभानु रास्ता भूल जाते हैं और भूख प्यास से त्रस्त होकर जल की तलाश में एक गुफा में प्रवेश करते हैं।वहां एक तपस्वी बैठे हुए हैं जोकि वास्तव में तपस्वी न होकर उनसे पराजित हुआ एक राजा होता है।कपटी तपस्वी तत्काल ही प्रतापभानु को पहचान जाता है परंतु अपने भीतर पराजित भाव से उपजे क्रोध को प्रकट नहीं होने देता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
राजा प्रतापभानु ने समस्त विश्व को जीत लिया था । प्रायः राजा लोगों ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। कुछ राजाओं को दंड देकर छोड़ दिया गया । अब प्रतापभानु के समान जग में कोई अन्य राजा नहीं था।सचिव धर्मरूचि राजा को सदैव धर्माचरण के लिए प्रेरित करते थे और प्रतापभानु उनके कथनानुसार आचरण करते थे। उनके राज्य में कहीं पर भी किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं थी।गोस्वामीजी ने इस संबंध में मानस में लिखा है-
भूप धर्म जो बेद बखाने।सकल करइ सादर सुख माने।।
-1/155/5
राज्य में प्रजा को धर्म, अर्थ और काम, तीनों प्रकार के सुख उपलब्ध थे। चाहे प्रतापभानु कितना ही प्रजा हितैषी और धर्माचरण रत हो, पूर्वजन्म के किये कर्म, फल देने तक पीछा नहीं छोड़ते। अभी तक भगवान के दो पार्षद जय विजय ने केवल एक असुर योनि को ही भोगा है, अभी उनको ऐसे ही दो योनियों को और भोगना है।प्रतापभानु और अरिमर्दन पूर्वजन्म में हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप थे।अब उनके समीप दूसरी आसुरी योनि को भोगने के समय आ रहा है।
जब राज्य की प्रजा सुखी औऱ सुरक्षित रहती है, तब राजा उनकी देखभाल करने के साथ साथ अपनी रूचि के मनोरंजन कार्यों को भी करता रहता है। प्रतापभानु का ऐसा ही एक रूचि का कार्य था,आखेट। एक दिन राजा आखेट के लिए जंगल की ओर प्रस्थान करता है।अस्त्र शास्त्रों से सुसज्जित राजा वायुवेगी अश्व पर सवार होकर शिकार की तलाश में जंगल के रास्तों पर इधर उधर दृष्टि डालते हुए दौड़े चले जा रहे हैं।अनायास उनकी दृष्टि एक विशाल सुअर पर पड़ती है। राजा उसके जाने की दिशा में अपने अश्व को भी दौड़ा देते हैं।सुअर पर तीर पर तीर चलाये जा रहे हैं, परंतु कोई तीर उसको नहीं लगता है। इसी प्रकार पूरा दिन बीत जाता है और सुअर भी दृष्टि से ओझल हो जाता है। वास्तव में वह सुअर एक कालकेतु नामक राक्षस था। प्रतापभानु रास्ता भूल जाते हैं और भूख प्यास से त्रस्त होकर जल की तलाश में एक गुफा में प्रवेश करते हैं।वहां एक तपस्वी बैठे हुए हैं जोकि वास्तव में तपस्वी न होकर उनसे पराजित हुआ एक राजा होता है।कपटी तपस्वी तत्काल ही प्रतापभानु को पहचान जाता है परंतु अपने भीतर पराजित भाव से उपजे क्रोध को प्रकट नहीं होने देता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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