Tuesday, March 26, 2019

रामकथा30-रामावतार के हेतु-

रामकथा-30-रामावतार के हेतु-
         ऐसा नहीं है कि एक असुर योनि को भोगने के तत्काल बाद ही जय विजय ने अपनी दूसरी असुर योनि प्राप्त कर ली हो। बीच में कई योनियों से और निकले हैं।ऐसा ही मनुष्य के साथ भी होता है, एक मानव योनि से दूसरी मानव योनि तक पहुंचते पहुंचते कई अन्य योनियों से होकर गुजरना पड़ता है। जय विजय की प्रथम असुर योनि हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप थी।इस असुर योनि में उन्होंने केवल अनुचित कार्य ही किये हों, ऐसा नहीं है।मनुष्य में तीनों गुण उपस्थित रहते हैं, सत्व,रज और तम।तीनों गुणों में से जिस गुण की बहुलता होती है व्यक्ति उसी के अनुसार सात्विक, तामसिक अथवा राजसिक प्रवृति का माना जाता है।असुर तामसिक प्रवृति के होते हैं परंतु उनमें सात्विक गुण भी होते हैं जिसके कारण यदा कदा वे सत्कर्म भी करते हैं।इन सत्कर्मों के प्रभाव से उन्हें पुनः असुर  बनने से पहले कुछ अच्छा मनुष्य बनने का अवसर भी मिलता है। यहां यह ध्यान में रखने योग्य है कि सनकादिक ऋषियों के श्राप का प्रभाव भी उनके अच्छे जीवन को प्रभावित करेगा। इसी प्रकार हमारे जीवन में भी किये गए कर्म हमें प्रत्येक जीवन में प्रभावित करते हैं, हम उन कर्मों के फलों को बिना भुगते मुक्त नहीं हो सकते चाहे उन कर्मों का फल मिलने में सहस्रों वर्ष लग जाए।
      अपने पहले असुर शरीर से मुक्त होने के बाद जय विजय का पुनर्जन्म होता है, राजा प्रतापभानु और उसके भाई के रूप में।गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने ग्रंथ में इस प्रतापभानु की कथा का बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है।राजा प्रतापभानु महान सम्राट थे। समस्त प्रजा का हित करने वाले एक लोकप्रिय नृप आखिर कैसे राक्षस योनि में चले गए?सनकादिक ऋषियों के श्राप को सत्य सिद्ध करने के लिए परमात्मा ने यहां भी लीला की और उस लीला के जाल में आखिर एक दिन प्रतापभानु फंस ही गए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

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