रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-11
रामकथा के एक प्रेमी में और हनुमान में, दोनों में कोई विशेष अंतर नहीं है। वह भी ऐसे विरह प्रसंग को सुनकर ही भाव विह्वल हो जाता है। हनुमान को तो सत्य का अनुभव हो गया।आज फिर एक बार उसने प्रभु को विस्मृत कर दिया था।'प्रभु पहिचान परेउ गहि चरना।सो सुख उमा जाहि नहीं बरना।।' भक्त भगवान के चरणों में गिर पड़ा । भक्त और भगवान में यही अंतर है। भगवान मनुष्य रूप में आकर भी स्वयं को नहीं भूलते हैं और भक्त बार बार स्वयं को भूल जाता है। हमारी दशा तो हनुमान से भी खराब है।हम भी लीला की कथा सुनकर राम को मनुष्य समझने लगते हैं ।राम और सीता, दोनों ही न तो कभी व्यथित हुए थे और न ही कभी हो सकते।वे तो व्यथित होने का नाटक कर रहे थे। लखन और हनुमान दोनों सीता के दुःख को अनुभव कर दुःखी हुए थे परंतु जाकर सीता को पूछो जरा। क्या वह किञ्चित मात्र भी दुःखी हुई थी?'केहि अपराध नाथ हौं त्यागी' सीता की छाया ही कह सकती है क्योंकि वास्तविक सीता तो उस समय अग्नि में समाहित थी। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर उस समय अशोक वाटिका में छाया सीता के स्थान पर वास्तविक सीता भी होती तो वह हनुमान को कभी ऐसा कहती ही नहीं।
हम कथा को सुनकर सीता के साथ हुए व्यवहार से दुखी हो सकते हैं क्योंकि हम उनको हमारी ही तरह के मानव समझते हैं।जब संसार में दुःख सुख नाम की कोई चीज है ही नहीं, तो फिर हम सुखी दुःखी क्यों हों? हमारा मन ही हमें सुखी दुःखी करता है अर्थात सुख और दुःख केवल मन की अवस्था है, आत्मा की नहीं। जब हम आत्मिक स्तर पर कथा के घटनाक्रम को देखेंगे तो अनुभव करेंगे कि जो कुछ पूर्व नियोजित था, वही तो हो रहा था। जब नाटक में कलाकार दरिद्र होने की भूमिका निभाता है, तब वह केवल मंच पर ही दरिद्र बना रहता है, मंच से उतर जाने के बाद नहीं।दर्शक उसकी भूमिका की सराहना करते हैं क्योंकि वे उस कलाकार के वास्तविक स्वरूप से परिचित होते हैं।हमें भी परमात्मा के मानव रूप के अभिनय को मात्र अभिनय ही समझना चाहिए और सदैव उस अभिनय के पीछे का उद्देश्य जानना चाहिए। हमें रामकथा को सुनकर विभोर (delighted) होना सकते हैं।हाँ, कभी कभी विह्वल(over whelmed) भी हुआ जा सकता है परंतु विकल(discomfort) तो कभी भी नहीं होना चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
रामकथा के एक प्रेमी में और हनुमान में, दोनों में कोई विशेष अंतर नहीं है। वह भी ऐसे विरह प्रसंग को सुनकर ही भाव विह्वल हो जाता है। हनुमान को तो सत्य का अनुभव हो गया।आज फिर एक बार उसने प्रभु को विस्मृत कर दिया था।'प्रभु पहिचान परेउ गहि चरना।सो सुख उमा जाहि नहीं बरना।।' भक्त भगवान के चरणों में गिर पड़ा । भक्त और भगवान में यही अंतर है। भगवान मनुष्य रूप में आकर भी स्वयं को नहीं भूलते हैं और भक्त बार बार स्वयं को भूल जाता है। हमारी दशा तो हनुमान से भी खराब है।हम भी लीला की कथा सुनकर राम को मनुष्य समझने लगते हैं ।राम और सीता, दोनों ही न तो कभी व्यथित हुए थे और न ही कभी हो सकते।वे तो व्यथित होने का नाटक कर रहे थे। लखन और हनुमान दोनों सीता के दुःख को अनुभव कर दुःखी हुए थे परंतु जाकर सीता को पूछो जरा। क्या वह किञ्चित मात्र भी दुःखी हुई थी?'केहि अपराध नाथ हौं त्यागी' सीता की छाया ही कह सकती है क्योंकि वास्तविक सीता तो उस समय अग्नि में समाहित थी। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर उस समय अशोक वाटिका में छाया सीता के स्थान पर वास्तविक सीता भी होती तो वह हनुमान को कभी ऐसा कहती ही नहीं।
हम कथा को सुनकर सीता के साथ हुए व्यवहार से दुखी हो सकते हैं क्योंकि हम उनको हमारी ही तरह के मानव समझते हैं।जब संसार में दुःख सुख नाम की कोई चीज है ही नहीं, तो फिर हम सुखी दुःखी क्यों हों? हमारा मन ही हमें सुखी दुःखी करता है अर्थात सुख और दुःख केवल मन की अवस्था है, आत्मा की नहीं। जब हम आत्मिक स्तर पर कथा के घटनाक्रम को देखेंगे तो अनुभव करेंगे कि जो कुछ पूर्व नियोजित था, वही तो हो रहा था। जब नाटक में कलाकार दरिद्र होने की भूमिका निभाता है, तब वह केवल मंच पर ही दरिद्र बना रहता है, मंच से उतर जाने के बाद नहीं।दर्शक उसकी भूमिका की सराहना करते हैं क्योंकि वे उस कलाकार के वास्तविक स्वरूप से परिचित होते हैं।हमें भी परमात्मा के मानव रूप के अभिनय को मात्र अभिनय ही समझना चाहिए और सदैव उस अभिनय के पीछे का उद्देश्य जानना चाहिए। हमें रामकथा को सुनकर विभोर (delighted) होना सकते हैं।हाँ, कभी कभी विह्वल(over whelmed) भी हुआ जा सकता है परंतु विकल(discomfort) तो कभी भी नहीं होना चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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