Monday, March 25, 2019

रामकथा29-रामावतार के हेतु-

रामकथा-29-रामावतार के हेतु-
      इधर मनु शतरूपा को वरदान मिला और उधर जय विजय को उनके कर्मफल की द्वितीय किश्त मिलना निश्चित हो गया अर्थात त्रेता में निशाचर के रूप में रावण कुंभकर्ण के रूप में आना निश्चित हुआ। मेरे कहने का अर्थ है कि प्रत्येक कर्म का फल मिलना निश्चित है, यह परमात्मा का बनाया विधान है और उस विधान को सत्य सिद्ध करना भी परमात्मा के उत्तरदायित्व के अंतर्गत आता है।जय विजय को अपने कर्म के कारण श्राप मिला जिसका फल उन्होंने तीन जन्म पाकर पूर्ण रूप से भुगता और प्रत्येक बार श्रीहरि के हाथों ही उनका शरीर छूटा।प्रथम बार मे हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप बने जिनको उस शरीर से मुक्त श्रीहरि ने वराह और नरसिंह अवतार लेकर किया जबकि अंतिम आसुरी योनि उन्हें द्वापर में शिशुपाल और दन्तवक्त्र के रूप में मिली, जिससे भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें मुक्ति दिलाई।
जब जब होइ धरम के हानी।
बाढ़हि असुर अधम अभिमानी।।1/121/6।।
तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।1/121/8।।
       श्री रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने शंकर भगवान के मुख से यह कहलाकर राम के जन्म को परमात्मा का अवतार सिद्ध कर दिया है और साथ ही उनके जन्म लेने के दो मुख्य कारण भी बतला दिए हैं-एक,असुरों के द्वारा धर्म की हानि और दो, सज्जन व्यक्तियों का दुःख दूर करना।
     जय विजय भले ही श्री हरि के द्वारपाल रहे हों,श्राप उन्हें असुर होने का मिला था जिसके कारण उनमें धीरे धीरे देवी संपदा का ह्रास होता गया और आसुरी संपदा बढ़ती गई।अंततः एक दिन रावण कुम्भकरण के रूप में वे आसुरी सम्पदा के उत्कर्ष पर पहुंच गए।फिर रामावतार के कारण ही उनकी उन शरीरों से मुक्ति संभव हो सकी।हम अपनी इस श्रृंखला को रामकथा तक ही सीमित रखना चाहेंगे इसलिए जय विजय की दूसरी असुर योनि से मुक्त कराने वाली रामकथा पर ही अपनी चर्चा को केंद्रित रखेंगे।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

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