Wednesday, March 6, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-10

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-10
          लक्ष्मण तो राम के छोटे भाई होने के साथ साथ उनकी शैया (शेषनाग)भी थे। क्षीरसागर में ही तो हरि शेषनाग पर शयन करते हैं । लक्ष्मण तो थोड़े से समझाने से शीघ्र ही समझ गए परंतु हनुमान,वे तो मनुष्य न होकर एक वानर थे।इतनी जल्दी कैसे समझ सकते थे।दिन रात सीता के वन में वाल्मीकि आश्रम में दुःखी रहने की कल्पना कर कर रोते रहते।राम सोचते, "कैसा बावला भक्त है? भगवान पास है और भगवान की माया को खोकर रो रहा है। मायापति के पास होते हुए भी माया के ओझल हो जाने पर रो रहा है।मायापति तो सदा के लिए है, माया का तो आना जाना लगा ही रहता है। आते जाते रहने वाली माया के आगमन पर क्या तो खुश होना और उसके चले जाने पर क्या विलाप करना?" भगवान से भक्त का रोना अधिक देर तक नहीं देखा जा सकता। पहुंच गए भक्त के पास। हनुमान रोते हुए चरणों में गिर पड़े ।"भगवान, यह क्या कर दिया?एक धोबी के कहने मात्र से माता को वन में भेज दिया। मैं अपनी माता का वियोग सहन नहीं कर सकता।मेरे जीवन में ऐसा होना वज्रपात होने से किसी भी प्रकार से कम नहीं है।मैं अपनी माता को तपस्वी वेश में एक बार फिर से नहीं देख सकता।एक पति अपनी पत्नी के प्रति जिसका कि कोई दोष न हो,ऐसे निष्ठुर कैसे हो सकता है?"
      भगवान ने अपने प्रिय भक्त को उठाकर गले से लगाया और फिर उसका सिर अपनी गोद में रख सहलाने लगे। जब हनुमान कुछ शांत हुए तो बोले- "हनुमान! तुम्हें याद है न, मैंने तुम्हें एक बार पूछा था कि तुम कौन हो और मैं कौन हूँ?"
'हाँ याद आया, पूछा था। परंतु आज उस बात को याद दिलाने से क्या लाभ प्रभु?'
"तुम भूल गए थे, इसलिए आज पुनः याद दिलाना मैंने आवश्यक समझा है।तुमने कहा था न कि स्थूल दृष्टि से आप मनुष्य हैं मैं एक वानर हूँ, आप प्रभु हैं मैं आपका सेवक हूँ।सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो मैं आपका अंश हूँ और आप अंशी। अगर कारण दृष्टि से देखें तो जो आप हैं वही मैं हूँ, आपमें और मेरे में कोई अंतर नहीं है।"
हनुमान बोले, 'हाँ, याद आया, यही कहा था प्रभु।क्या उस समय मेरा यह कहना उचित नहीं था जो आज याद दिला रहे हो?'
"नहीं, तुमने उस समय तो सब कुछ उचित ही कहा था परंतु उस कहे को अपने जीवन में न अपनाकर तुम आज बहुत अनुचित कर रहे हो। जो मैं हूँ वही तुम हो तो फिर सीता के वन में जाने पर तुम व्यथित क्यों हो रहे हो? मैं तो जरा भी व्यथित नहीं हो रहा हूँ। बाहर से तुम्हें मैं व्यथित प्रतीत हो सकता हूँ परंतु भीतर से नहीं हूँ। तुम बाहर और भीतर दोनों ही ओर से व्यथित हो रहे हो। बात को समझो, वास्तव में न तो कोई वन में गया है और न ही किसी ने किसी को वन में भेजा है। यह तो केवल लीला संवरण करने के लिए मेरे ही द्वारा की जा रही एक लीला है।"
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

2 comments:

  1. गजब विवरण हनुमान जी की बात का भगवान के प्रति काही गयी

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