रामकथा-27-रामावतार के हेतु-
श्रीहरि के दो द्वारपाल, जय और विजय।जिसके दोनों द्वारपालों के नाम में ही जय हो, उन परमात्मा की जयजयकार भला क्यों न हो? इस कारण से दोनों में कुछ अहंकार भी हो गया था।श्रीहरि भीतर लक्ष्मीजी र्के साथ बैठे हैं और द्वार पर जय-विजय पार्षद द्वारपाल बन खड़े हैं।जय-विजय जानते हैं कि उनके स्वामी समस्त संसार के स्वामी हैं, वे उनके आदेश की अवहेलना किसी भी कारण से करेंगे ही नहीं। चाहे संसार का कोई भी महान से महान व्यक्ति ही उस समय क्यों न आ जाये, उसको वे भीतर प्रवेश करने से पूर्व ही रोक लेंगे। अब उनको क्या पता कि स्वामी का जो भक्त होता है वह अपने स्वामी से भी बड़ा होता है। जय और विजय तो मात्र पार्षद हैं उस स्वामी के, जबकि स्वामी के दास और स्वामी का आपसी संबंध ऐसा होता है, जहां दास की इच्छा को पूर्ण करना ही स्वामी के लिए सर्वोपरि होता है।
"मैं भक्तन को दास, भगत मेरा मुकुट मणि", लो जी स्वामी के मुकुटमणि आ पहुंचे, स्वामी के दास यानि ब्रह्मा पुत्र सनकादिक ऋषि। स्वामी के गृह में प्रवेश पाने के लिए उन्हें किसी से अनुमति लेने की कभी भी कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वे तो केवल प्रभु के दर्शन चाहते हैं।परंतु भगवान के पार्षदों को तो अपना कर्तव्य निर्वहन करना ही पड़ता है।जय विजय ने उन्हें द्वार पर ही अंदर प्रवेश करने से रोक दिया।ऋषियों द्वारा बहुत ही विनय पूर्वक बार बार आग्रह किया गया ।स्वामी चाहे कितने ही विनयशील हों परंतु उनके पार्षद भला अहंकारवश किसी की कब सुनते हैं? "स्वामी की आज्ञा है", कह कर अंतिम रूप से स्पष्टतः प्रवेश करने से रोक दिया गया।ऋषि ठहरे ज्ञानी भक्त, उनको यह स्वीकार कैसे होता? श्रीहरि के द्वारपाल और इतना अहंकार, निकाला कमण्डल में से जल और दे दिया श्राप। "जाओ, पृथ्वी पर जाकर निशाचर हो जाओ। तीन जन्मों तक राक्षस रहोगे और तुम दोनों का उद्धार भी श्रीहरि के हाथों ही होगा।" जय विजय तीन बार असुर योनि में जाएंगे।उनकी एक असुर योनि निकल चुकी है, हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के रूप में।उनकी दूसरी असुर योनि रावण कुम्भकरण के रूप में इस त्रेता युग में अभी लंका में सक्रिय है। अब तो श्रीहरि को राम रूप में अवतरित होना ही होगा।
अब प्रश्न यह उठता है कि पहले जय विजय को श्राप मिला अथवा मनु शतरूपा को वरदान। आपको क्या लगता है, कौन सी घटना पहले घटी थी ? मैं तो कहता हूँ कि चाहे कोई सी भी घटना पहले घटी हो,एक के बाद दूसरी घटना का घटना अवश्यम्भावी हो गया था, इसलिए फिर दूसरी घटना भी घटी। कहने का अर्थ है कि एक घटना दूसरी घटना की पूरक है। फिर भी प्रश्न उठा है तो उत्तर भी जानना आवश्यक है कि कौन सी घटना बाद में घटी क्योंकि यह कथा है, कहानी नहीं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
श्रीहरि के दो द्वारपाल, जय और विजय।जिसके दोनों द्वारपालों के नाम में ही जय हो, उन परमात्मा की जयजयकार भला क्यों न हो? इस कारण से दोनों में कुछ अहंकार भी हो गया था।श्रीहरि भीतर लक्ष्मीजी र्के साथ बैठे हैं और द्वार पर जय-विजय पार्षद द्वारपाल बन खड़े हैं।जय-विजय जानते हैं कि उनके स्वामी समस्त संसार के स्वामी हैं, वे उनके आदेश की अवहेलना किसी भी कारण से करेंगे ही नहीं। चाहे संसार का कोई भी महान से महान व्यक्ति ही उस समय क्यों न आ जाये, उसको वे भीतर प्रवेश करने से पूर्व ही रोक लेंगे। अब उनको क्या पता कि स्वामी का जो भक्त होता है वह अपने स्वामी से भी बड़ा होता है। जय और विजय तो मात्र पार्षद हैं उस स्वामी के, जबकि स्वामी के दास और स्वामी का आपसी संबंध ऐसा होता है, जहां दास की इच्छा को पूर्ण करना ही स्वामी के लिए सर्वोपरि होता है।
"मैं भक्तन को दास, भगत मेरा मुकुट मणि", लो जी स्वामी के मुकुटमणि आ पहुंचे, स्वामी के दास यानि ब्रह्मा पुत्र सनकादिक ऋषि। स्वामी के गृह में प्रवेश पाने के लिए उन्हें किसी से अनुमति लेने की कभी भी कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वे तो केवल प्रभु के दर्शन चाहते हैं।परंतु भगवान के पार्षदों को तो अपना कर्तव्य निर्वहन करना ही पड़ता है।जय विजय ने उन्हें द्वार पर ही अंदर प्रवेश करने से रोक दिया।ऋषियों द्वारा बहुत ही विनय पूर्वक बार बार आग्रह किया गया ।स्वामी चाहे कितने ही विनयशील हों परंतु उनके पार्षद भला अहंकारवश किसी की कब सुनते हैं? "स्वामी की आज्ञा है", कह कर अंतिम रूप से स्पष्टतः प्रवेश करने से रोक दिया गया।ऋषि ठहरे ज्ञानी भक्त, उनको यह स्वीकार कैसे होता? श्रीहरि के द्वारपाल और इतना अहंकार, निकाला कमण्डल में से जल और दे दिया श्राप। "जाओ, पृथ्वी पर जाकर निशाचर हो जाओ। तीन जन्मों तक राक्षस रहोगे और तुम दोनों का उद्धार भी श्रीहरि के हाथों ही होगा।" जय विजय तीन बार असुर योनि में जाएंगे।उनकी एक असुर योनि निकल चुकी है, हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के रूप में।उनकी दूसरी असुर योनि रावण कुम्भकरण के रूप में इस त्रेता युग में अभी लंका में सक्रिय है। अब तो श्रीहरि को राम रूप में अवतरित होना ही होगा।
अब प्रश्न यह उठता है कि पहले जय विजय को श्राप मिला अथवा मनु शतरूपा को वरदान। आपको क्या लगता है, कौन सी घटना पहले घटी थी ? मैं तो कहता हूँ कि चाहे कोई सी भी घटना पहले घटी हो,एक के बाद दूसरी घटना का घटना अवश्यम्भावी हो गया था, इसलिए फिर दूसरी घटना भी घटी। कहने का अर्थ है कि एक घटना दूसरी घटना की पूरक है। फिर भी प्रश्न उठा है तो उत्तर भी जानना आवश्यक है कि कौन सी घटना बाद में घटी क्योंकि यह कथा है, कहानी नहीं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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