रामकथा-19-अवतार के हेतु-
महाभारत काल की इस कथा को प्रस्तुत करने के पीछे मेरा यह मंतव्य है कि भले ही परमात्मा न तो कुछ कर्म करते हो और न ही उन कर्मों को करके उनमें लिप्त होते हों,परंतु एक बात सत्य है कि उनसे भक्तों का कष्ट देखा नहीं जाता। भक्तों को कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिए ही वे बार बार इस धरा पर अवतार लेते हैं। भक्त भी चार प्रकार के होते हैं,"चतुर्विधा भजन्ते मां...."-अर्थार्थी,आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी।अर्थार्थी और आर्त भक्त के लिए भगवान तुरंत दौड़े चले आते हैं।जिज्ञासु भक्त को भगवान गुरु उपलब्ध कराते हैं जबकि ज्ञानी भक्त तो परमात्म स्वरूप ही होते हैं।इसीलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि ज्ञानी भक्त मुझे सर्वाधिक प्रिय है।इसका अर्थ है कि सभी भक्त भगवान को प्रिय होते हैं परंतु ज्ञानी भक्त उन्हें सबसे प्रिय हैं। इन चारों में से कौन से भक्त के लिए उन्हें अवतार लेना पड़ता है?आइए,यही जानने का प्रयास करते हैं।
ज्ञानी भक्त के लिए भगवान को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं उठाना पड़ता क्योंकि ज्ञानी भक्त की सभी कामनाएं समाप्त हो जाती है।उसके मन में कोई कामना उठती ही नहीं है। "सन्तुष्टो सततं योगी..."वह सभी प्रकार से संतुष्ट होता है।जब कामना ही नहीं है तो भगवान को आर्त होकर अथवा अर्थ के लिए पुकारने की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती। कृष्ण-अर्जुन को मिला वह गरीब ब्राह्मण ज्ञानी भक्त है। परमात्मा श्री कृष्ण उसकी लेश मात्र भी चिन्ता नहीं कर रहे हैं।इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवान उनसे विमुख हो जाते हैं।नहीं, ज्ञानी भक्त जब स्वयं ही भगवान हो जाता है, तो फिर कौन तो चिंता करे और किसकी चिंता करे?
परमात्मा अवतार लेते हैं, अपने भक्तों के लिए, विशेष रूप से इन्हीं ज्ञानी भक्तों के लिए। आर्त और अर्थार्थी भक्तों के लिए तो वे किसी भी रूप में , कहीं भी और कभी भी दौड़ कर आ जाते हैं, चाहे वे अवतरित हुए हों अथवा नहीं परंतु ज्ञानी भक्तों की रक्षा के लिए तो स्वयं उनको अवतार ही लेना पड़ता है। गजेंद्र आर्त था, उसके पुकारते ही भगवान दौड़े चले आये, अवतार नहीं लिया।द्रोपदी आर्त हुई,भरी सभा में वस्त्र विहीन होने जा रही थी, भगवान अवतार अवस्था में थे, दौड़कर चले गए, वस्त्र बनकर उसकी इज्ज़त बचा ली।परंतु प्रह्लाद ज्ञानी भक्त थे, भगवान को नरसिंह रूप में अवतार लेना पड़ा।उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में कभी भी सहायता के लिए श्री हरि को नहीं पुकारा।और तो और, जब नरसिंह भगवान ने उन्हें वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने यही वरदान मांगा कि मेरे मन में कभी किसी कामना का बीज तक अंकुरित न हो।
यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ ।
कामानां हृद्यसंरोहं भव तस्तु वृणे वरम् ।।
- भागवत-7/10/7।।
एक असुर बालक की ऐसी भक्ति को नमन।ऐसे परम ज्ञानी भक्त के लिए ही परमात्मा को अवतार लेना पड़ता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
महाभारत काल की इस कथा को प्रस्तुत करने के पीछे मेरा यह मंतव्य है कि भले ही परमात्मा न तो कुछ कर्म करते हो और न ही उन कर्मों को करके उनमें लिप्त होते हों,परंतु एक बात सत्य है कि उनसे भक्तों का कष्ट देखा नहीं जाता। भक्तों को कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिए ही वे बार बार इस धरा पर अवतार लेते हैं। भक्त भी चार प्रकार के होते हैं,"चतुर्विधा भजन्ते मां...."-अर्थार्थी,आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी।अर्थार्थी और आर्त भक्त के लिए भगवान तुरंत दौड़े चले आते हैं।जिज्ञासु भक्त को भगवान गुरु उपलब्ध कराते हैं जबकि ज्ञानी भक्त तो परमात्म स्वरूप ही होते हैं।इसीलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि ज्ञानी भक्त मुझे सर्वाधिक प्रिय है।इसका अर्थ है कि सभी भक्त भगवान को प्रिय होते हैं परंतु ज्ञानी भक्त उन्हें सबसे प्रिय हैं। इन चारों में से कौन से भक्त के लिए उन्हें अवतार लेना पड़ता है?आइए,यही जानने का प्रयास करते हैं।
ज्ञानी भक्त के लिए भगवान को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं उठाना पड़ता क्योंकि ज्ञानी भक्त की सभी कामनाएं समाप्त हो जाती है।उसके मन में कोई कामना उठती ही नहीं है। "सन्तुष्टो सततं योगी..."वह सभी प्रकार से संतुष्ट होता है।जब कामना ही नहीं है तो भगवान को आर्त होकर अथवा अर्थ के लिए पुकारने की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती। कृष्ण-अर्जुन को मिला वह गरीब ब्राह्मण ज्ञानी भक्त है। परमात्मा श्री कृष्ण उसकी लेश मात्र भी चिन्ता नहीं कर रहे हैं।इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवान उनसे विमुख हो जाते हैं।नहीं, ज्ञानी भक्त जब स्वयं ही भगवान हो जाता है, तो फिर कौन तो चिंता करे और किसकी चिंता करे?
परमात्मा अवतार लेते हैं, अपने भक्तों के लिए, विशेष रूप से इन्हीं ज्ञानी भक्तों के लिए। आर्त और अर्थार्थी भक्तों के लिए तो वे किसी भी रूप में , कहीं भी और कभी भी दौड़ कर आ जाते हैं, चाहे वे अवतरित हुए हों अथवा नहीं परंतु ज्ञानी भक्तों की रक्षा के लिए तो स्वयं उनको अवतार ही लेना पड़ता है। गजेंद्र आर्त था, उसके पुकारते ही भगवान दौड़े चले आये, अवतार नहीं लिया।द्रोपदी आर्त हुई,भरी सभा में वस्त्र विहीन होने जा रही थी, भगवान अवतार अवस्था में थे, दौड़कर चले गए, वस्त्र बनकर उसकी इज्ज़त बचा ली।परंतु प्रह्लाद ज्ञानी भक्त थे, भगवान को नरसिंह रूप में अवतार लेना पड़ा।उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में कभी भी सहायता के लिए श्री हरि को नहीं पुकारा।और तो और, जब नरसिंह भगवान ने उन्हें वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने यही वरदान मांगा कि मेरे मन में कभी किसी कामना का बीज तक अंकुरित न हो।
यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ ।
कामानां हृद्यसंरोहं भव तस्तु वृणे वरम् ।।
- भागवत-7/10/7।।
एक असुर बालक की ऐसी भक्ति को नमन।ऐसे परम ज्ञानी भक्त के लिए ही परमात्मा को अवतार लेना पड़ता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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