रामकथा-25-रामावतार के हेतु-
मनु सांसारिक जीवन को छोड़कर वन में परमात्मा की भक्ति करने जा रहे हैं।अपने पुत्र उत्तानपाद (ध्रुव के पिता) को राज्य सौंपकर।धर्म पत्नी शतरूपा को साथ लिया और जीवन के चतुर्थ काल में संन्यास के लिए वन गमन कर लिया। भौतिक रूप से संसार को त्यागकर वन में चले जाना बहुत ही आसान है परंतु वन में रहते हुए मन से संसार को त्याग देना बड़ा ही कठिन है। संसार में रहकर समस्याओं का सामना करने से घबराकर वनगमन कर लेना संसार त्याग नहीं हो सकता वह तो संसार से पलायन करना हुआ।आज प्रायः कथित साधु लोग पलायन करने वाले हैं, संसार को त्यागने वाले नहीं।अगर किसी ने इस संसार को त्याग भी दिया है तो क्या हुआ? जंगल में बैठकर अपना नया संसार बना लिया।संसार को मन से निकालना आवश्यक है। मनु और शतरूपा मन से संसार को त्यागकर परमात्मा को पाने के लिए वन में आये हैं।
संसार को हम चाहे कितना ही छोड़ना चाहे, यह मन हमें इससे मुक्त होने ही नहीं देता।साधन और साधना चाहे कितनी ही कठोर क्यों न हो, मन का भटकाव तो चाहे तब इन सब पर प्रभावी हो सकता है।वन चले जाने का अर्थ यह नहीं है कि संसार समाप्त हो गया।संसार तो मन में बसता है, अगर मन चाहे तो संसार में ही वन बन जाता है अन्यथा वन में रहते हुए भी संसार का अस्तित्व मन में बना रह सकता है।"मन: एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो।" सत्य है, मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है।
साधन से कठोर तप और फिर भगवान का प्रकट होना और आशीर्वाद स्वरूप वर देना अर्थात तप को एक कर्म बनाते हुए उसका फल देना। यहीं आकर मनुष्य का मन मात खा जाता है।तप अगर कर्म है तो उसका फल भी मिलना निश्चित है। तप तभी कर्म बनता है जब तप के पीछे कोई कामना हो अन्यथा तप तो कामना रहित होता है।मनु शतरूपा के मन में तप करने के पीछे कोई कामना नहीं थी, फिर तप को कर्म मानते हुए फल के रूप में वरदान क्यों? वरदान इसलिए कि यह जाना जाए कि आप मन से मुक्त हुए अथवा नहीं।
वन में आकर भी मन से मुक्त नहीं हुआ जा सकता, मन पर तो स्वयं को ही प्रभावी बनाना पड़ता है।मन को दबाओ मत, मन तो दबाव से जरा सा छूटते ही आप पर हावी हो जाता है।मन को दबाने के स्थान पर उसे समझाना अधिक उपयुक्त है, जिससे वह आपकी तरह ही आपका भला-बुरा समझ सके।एक दृष्टि परमात्मा पर रखें परंतु साथ में मन पर भी दूसरी दृष्टि जमाये रखें। जरा मन पर से दृष्टि हटी नहीं कि आध्यात्मिक जीवन में कोई न कोई दुर्घटना घट सकती है। इतनी उच्च अवस्था पर आकर भी मन पर दृष्टि न रख पाने के कारण मनु और शतरूपा भी मात खा गए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
मनु सांसारिक जीवन को छोड़कर वन में परमात्मा की भक्ति करने जा रहे हैं।अपने पुत्र उत्तानपाद (ध्रुव के पिता) को राज्य सौंपकर।धर्म पत्नी शतरूपा को साथ लिया और जीवन के चतुर्थ काल में संन्यास के लिए वन गमन कर लिया। भौतिक रूप से संसार को त्यागकर वन में चले जाना बहुत ही आसान है परंतु वन में रहते हुए मन से संसार को त्याग देना बड़ा ही कठिन है। संसार में रहकर समस्याओं का सामना करने से घबराकर वनगमन कर लेना संसार त्याग नहीं हो सकता वह तो संसार से पलायन करना हुआ।आज प्रायः कथित साधु लोग पलायन करने वाले हैं, संसार को त्यागने वाले नहीं।अगर किसी ने इस संसार को त्याग भी दिया है तो क्या हुआ? जंगल में बैठकर अपना नया संसार बना लिया।संसार को मन से निकालना आवश्यक है। मनु और शतरूपा मन से संसार को त्यागकर परमात्मा को पाने के लिए वन में आये हैं।
संसार को हम चाहे कितना ही छोड़ना चाहे, यह मन हमें इससे मुक्त होने ही नहीं देता।साधन और साधना चाहे कितनी ही कठोर क्यों न हो, मन का भटकाव तो चाहे तब इन सब पर प्रभावी हो सकता है।वन चले जाने का अर्थ यह नहीं है कि संसार समाप्त हो गया।संसार तो मन में बसता है, अगर मन चाहे तो संसार में ही वन बन जाता है अन्यथा वन में रहते हुए भी संसार का अस्तित्व मन में बना रह सकता है।"मन: एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो।" सत्य है, मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है।
साधन से कठोर तप और फिर भगवान का प्रकट होना और आशीर्वाद स्वरूप वर देना अर्थात तप को एक कर्म बनाते हुए उसका फल देना। यहीं आकर मनुष्य का मन मात खा जाता है।तप अगर कर्म है तो उसका फल भी मिलना निश्चित है। तप तभी कर्म बनता है जब तप के पीछे कोई कामना हो अन्यथा तप तो कामना रहित होता है।मनु शतरूपा के मन में तप करने के पीछे कोई कामना नहीं थी, फिर तप को कर्म मानते हुए फल के रूप में वरदान क्यों? वरदान इसलिए कि यह जाना जाए कि आप मन से मुक्त हुए अथवा नहीं।
वन में आकर भी मन से मुक्त नहीं हुआ जा सकता, मन पर तो स्वयं को ही प्रभावी बनाना पड़ता है।मन को दबाओ मत, मन तो दबाव से जरा सा छूटते ही आप पर हावी हो जाता है।मन को दबाने के स्थान पर उसे समझाना अधिक उपयुक्त है, जिससे वह आपकी तरह ही आपका भला-बुरा समझ सके।एक दृष्टि परमात्मा पर रखें परंतु साथ में मन पर भी दूसरी दृष्टि जमाये रखें। जरा मन पर से दृष्टि हटी नहीं कि आध्यात्मिक जीवन में कोई न कोई दुर्घटना घट सकती है। इतनी उच्च अवस्था पर आकर भी मन पर दृष्टि न रख पाने के कारण मनु और शतरूपा भी मात खा गए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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