रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-13
गोस्वामीजी ने रामकथा क्या लिखी है, हमें आत्म कल्याण का सीधा और सरल मार्ग दिखला दिया है। जो इस रामकथा ग्रंथ अर्थात श्रीरामचरितमानस को पढ़कर केवल कहानी के रूप में इसको ग्रहण करता है, वह केवल दही को मथने पर घी निकालने के उपरांत शेष बची हुई छाछ का ही सेवन कर रहा है। केवल इसका ग्रंथ का सार समझने वाला ही घृत का पान करता है और अपना विवेक जाग्रत कर लेता है। हमने तुलसी बाबा रचित इस ग्रंथ में विभोर,विह्वल और विकल तीनों अवस्थाओं का चित्रण देखा। इन तीनों ही स्थितियों का त्याग करना आवश्यक है, आत्मकल्याण के लिए।शंकर भगवान तो आत्मविभोर हो गए ज्योंहि प्रभु राम ने हनुमान के सिर पर हाथ रखा। परंतु वे तो आदिदेव हैं, तुरंत ही विभोर की अवस्था को त्यागते हुए इस अवस्था से बाहर आने का मार्ग भी बता गए।
"सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुंदर।।"
जिसने अपने मन को सावधान कर साध लिया, वह प्रत्येक स्थिति से तत्काल ही बाहर निकल सकता है। रुद्रावतार के सिर पर हाथ, रूद्र का आत्मविभोर हो जाना किसी भी प्रकार से अनुचित नहीं है परंतु सदैव के लिए इस स्थिति में बने रहना अनुचित है।मन से सावधान रहते हैं तभी तो सती को त्याग देने के उपरांत भी वे एक क्षण के लिए भी विकल नहीं हुए। मन के अनुसार चलते तो विकल हुए होते और विकलता ही समाधिस्थ होने में सबसे बडी बाधा है। शंकर भगवान ने तो इतनी बड़ी घटना हो जाने के बाद भी बिना विकल हुए अपना स्वरूप सम्हाले रखा।
संकर सहज सरूप सम्हारा।
लागि समाधि अखंड अपारा ।।1/58/8।।
रामकथा का गहराई से अध्ययन करें तो अनुभव होगा कि इस कथा का प्रत्येक पात्र जो प्रभु से संबंधित है,सभी ने अपने मन की इन तीनों परिस्थितियों को बार बार अनुभव किया है ।प्रत्येक बार किसी स्थिति के आने पर वे अपने मन पर नियंत्रण स्थापित कर इन परिस्थितियों से बाहर आये हैं।फिर हम क्यों बार बार इन परिस्थितियों में उलझते रहते हैं? क्योंकि हम शंकर भगवान की तरह अपने मन को सावधान कर पाने में विफल रहते हैं।जिस दिन मन को साध लेंगे, रामकथा केवल लीला बनकर रह जायेगी और इसका मंथन कर हम भी घृत पान कर सकेंगे।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
गोस्वामीजी ने रामकथा क्या लिखी है, हमें आत्म कल्याण का सीधा और सरल मार्ग दिखला दिया है। जो इस रामकथा ग्रंथ अर्थात श्रीरामचरितमानस को पढ़कर केवल कहानी के रूप में इसको ग्रहण करता है, वह केवल दही को मथने पर घी निकालने के उपरांत शेष बची हुई छाछ का ही सेवन कर रहा है। केवल इसका ग्रंथ का सार समझने वाला ही घृत का पान करता है और अपना विवेक जाग्रत कर लेता है। हमने तुलसी बाबा रचित इस ग्रंथ में विभोर,विह्वल और विकल तीनों अवस्थाओं का चित्रण देखा। इन तीनों ही स्थितियों का त्याग करना आवश्यक है, आत्मकल्याण के लिए।शंकर भगवान तो आत्मविभोर हो गए ज्योंहि प्रभु राम ने हनुमान के सिर पर हाथ रखा। परंतु वे तो आदिदेव हैं, तुरंत ही विभोर की अवस्था को त्यागते हुए इस अवस्था से बाहर आने का मार्ग भी बता गए।
"सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुंदर।।"
जिसने अपने मन को सावधान कर साध लिया, वह प्रत्येक स्थिति से तत्काल ही बाहर निकल सकता है। रुद्रावतार के सिर पर हाथ, रूद्र का आत्मविभोर हो जाना किसी भी प्रकार से अनुचित नहीं है परंतु सदैव के लिए इस स्थिति में बने रहना अनुचित है।मन से सावधान रहते हैं तभी तो सती को त्याग देने के उपरांत भी वे एक क्षण के लिए भी विकल नहीं हुए। मन के अनुसार चलते तो विकल हुए होते और विकलता ही समाधिस्थ होने में सबसे बडी बाधा है। शंकर भगवान ने तो इतनी बड़ी घटना हो जाने के बाद भी बिना विकल हुए अपना स्वरूप सम्हाले रखा।
संकर सहज सरूप सम्हारा।
लागि समाधि अखंड अपारा ।।1/58/8।।
रामकथा का गहराई से अध्ययन करें तो अनुभव होगा कि इस कथा का प्रत्येक पात्र जो प्रभु से संबंधित है,सभी ने अपने मन की इन तीनों परिस्थितियों को बार बार अनुभव किया है ।प्रत्येक बार किसी स्थिति के आने पर वे अपने मन पर नियंत्रण स्थापित कर इन परिस्थितियों से बाहर आये हैं।फिर हम क्यों बार बार इन परिस्थितियों में उलझते रहते हैं? क्योंकि हम शंकर भगवान की तरह अपने मन को सावधान कर पाने में विफल रहते हैं।जिस दिन मन को साध लेंगे, रामकथा केवल लीला बनकर रह जायेगी और इसका मंथन कर हम भी घृत पान कर सकेंगे।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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