Tuesday, March 12, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-16

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-16
        परमात्मा को अपनी लीला समेटनी है। अश्वमेघ यज्ञ प्रस्तावित हुआ। समस्त वैदिक कार्य सम्पन कर अश्वमेघ का घोड़ा छोड़ा गया।लवकुश के द्वारा पकड़ा जाना ही था आखिर अयोध्या के राज सिंहासन के उत्तराधिकारी जो ठहरे। उस दिन राम राज को आखिर चुनौती मिल ही गयी। राजा राम के अतिरिक्त अन्य सभी परिवार जनों और सेना के साथ लवकुश का संघर्ष होता है।सभी पराजित होकर लौट आते हैं। हनुमान को चिरंजीव रहने का वरदान मिला हुआ है, 'अजर अमर गुननिधि सुत होउ ।करउ बहुत रघुनायक छोउ।।' वे लवकुश के द्वारा पकड़ कर राम के समक्ष लाये जाते हैं।साथ में सीता माता और महर्षि वाल्मीकिजी भी हैं। अपने दोनों पुत्रों लवकुश को राम को सौंपकर सीता पृथ्वी में समा जाती है। अंततः राम भी अपने पुत्रों को अयोध्या का राज्य सौंपकर सरयू में समा जाते हैं। इस प्रकार परम ब्रह्म की त्रेता की इस लीला का संवरण हो जाता है।
        राम पूरे जीवन में कभी भी व्यथित नहीं हुए, हाँ, हमें व्यथित प्रतीत अवश्य होते हैं। यही स्थिति शेष अवतारों(भरत,शत्रुघ्न लखन) की भी थी परंतु वे शीघ्र ही परमात्मा की लीला को समझ गए। हम सीता के राम से अलग होने का अनुभव कर व्यथित अवश्य हो जाते हैं क्योंकि इस कथा को हम स्वयं के साथ वास्तविक रूप से अनुभव करते हुए अपनी पति/पत्नी से वियोग हो जाने की कल्पना को उसके सर्वोच्च स्तर तक ले जाते हैं। सांसारिक दृष्टि से बने पति-पत्नी, इन दोनों का वियोग तो एक दिन होना ही है, यह निश्चित है।
        "हम मनुष्य हैं परमात्मा नहीं", जीवन भर यही समझते रहते है। जब कि वास्तविकता यह है कि हम स्वयं उस अंशी के ही अंश हैं। अंश कभी भी अपने अंशी से भिन्न होता ही नहीं है परंतु हम इस बात को भूला देते हैं।राम और सीता को मात्र मनुष्य समझते हुए उनके वियोग से उत्पन्न हो सकने वाले विरह को अपना विरह बना लेना इसी भूल के कारण संभव हो जाता है।
      हम मनुष्य हैं फिर भी मनुष्य राम की तरह व्यवहार नहीं कर सकते क्योंकि मनुष्य राम ने जीवन भर अपने परमात्मिक स्वरूप को अपनी स्मृति में बनाये रखा था जबकि हम अपने मूल स्वरूप को विस्मृत कर चुके हैं।इसीलिए संतजन हमें गृहस्थ जीवन में रहते हुए ही साधन करने की सलाह देते हैं।वे जानते हैं कि हम पत्नी/पति वियोग को क्षण भर के लिए भी सहन नहीं कर पाएंगे। प्राचीनकाल में राजा लोग अपना राज पाट अपने पुत्र को सौंपकर परमात्मा की साधना हेतु वन में चले जाते थे और साथ में अपनी भार्या को भी ले जाते थे। अगर साथ में नहीं ले जाते तो वे कभी भी साधना में मन नहीं लगा पाते क्योंकि उनका मन अपने पति/पत्नी के स्वास्थ्य सुख आदि का ही चिंतन करता रहता, परमात्मा में नहीं लगता।हम राम नहीं है और न ही बड़े ज्ञानी, जो समझ लें कि संसार एक रंगमंच है और हम अपनी अपनी भूमिका निभा रहे हैं।इसलिए साधना के लिए अपने जीवन साथी को साथ रखना उचित ही है, अनुचित नहीं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
पुनश्च: अभी तक प्राप्त हुए सभी प्रश्नों का मैंने अपने स्तर पर यथोचित समाधान करने का प्रयास किया है। कल से रामकथा पर चर्चा को और आगे बढ़ाएंगे।
।।हरि:शरणम्।।

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