Tuesday, January 8, 2019

अविरल जीवन(Life is continuous)-सार-संक्षेप-समापन कड़ी-

अविरल जीवन (Life is continuous)- समापन कड़ी -सार-संक्षेप
        इस ब्रह्माण्ड की रचना करने के लिए सर्वप्रथम मन की रचना हुई | ‘सो कामयात् बहुस्यामि’ व ‘एकोSहम् बहुस्यामि’ अर्थात परमात्मा ने मन का सृजन किया और फिर उस मन में कामना उठी कि मैं एक से अनेक होना चाहता हूँ | यहाँ से ही ब्रह्माण्ड की रचना का सूत्र पात हुआ | मन बड़ा चंचल है, उसमें सदैव स्पंदन होता रहता है | उस स्पंदन से ही पदार्थ और जीव का आगमन हुआ और इस प्रकार जीवन का प्रारम्भ हुआ | यह जीवन सतत अथवा निरंतर चलता रहता है, कभी भी समाप्त नहीं होता | जीवन की निरंतरता के कारण ही इसे अविरल जीवन कहा जाता है | इस ब्रह्माण्ड में जीवन तीन अवस्थाओं से होकर प्रवाहित है- साधारण जीवन अथवा एक जन्म का जीवन, महा जीवन तथा परम जीवन | प्रथम व द्वितीय जीवन का उद्गम परम जीवन ही है | हालाँकि जीवन एक ही है, परन्तु इसको समझाने के लिए उसकी तीन अवस्थाएं बतलाई गयी है |
          एक जन्म का जीवन प्राणी के शरीर के जन्म लेने से प्रारम्भ होकर उस शरीर की मृत्यु होने तक की यात्रा है | एक जन्म का जीवन केवल उस शरीर के जन्म और मृत्यु के बीच की गति है जबकि महाजीवन विभिन्न शरीरों के जन्म-मृत्यु की अनन्त श्रृंखलाओं की महागति है | परम जीवन परमात्मा में परमगति अर्थात परम विश्राम है | परम जीवन पूर्ण रूप से शांति की अवस्था का नाम है | कहने का अर्थ है कि परमात्मा से प्रस्फुटित हुआ जीवन अंत में परमात्मा में ही जाकर विलीन हो जाता है और परमात्मा में परमगति पाने पर उसे परम जीवन कहा गया है | इस प्रकार यह स्पष्ट है कि परमात्मा और परम जीवन में कोई अंतर नहीं है | जीवन कभी समाप्त नहीं होता, वह अविरल बहता रहता है, केवल उसका रूप परिवर्तित होता रहता है |यह जीवन है और इस जीवन से ही परमात्मा को जाना जा सकता है अन्यथा उसे जानना असंभव है | दूसरे शब्दों में कहूँ तो कह सकता हूँ कि परमात्मा ने अपने स्पंदन से जीवन बनाया ही इसलिए है, जिससे मनुष्य उस परम को जान सके | हम इस भौतिक शरीर को ही सब कुछ मान बैठे हैं, जबकि इस भौतिक शरीर में जीवन न हो तो यह किसी भी काम का नहीं है | हाँ, यह सत्य है कि परमात्मा ने अवश्य ही जीवन के लिए शरीर बनाया है परन्तु केवल शरीर को ही जीवन मान लेना गलत है | पदार्थ से बना शरीर, मन और जीवन, सब कुछ परमात्मा ही है | इस बात को एक दोहे के माध्यम से स्पष्ट करते हुए इस श्रृंखला को विराम देना चाहूँगा -
तन तम्बूरा तार मन, अद्भूत है यह साज |
हरि के कर से बज रहा, हरि की है आवाज़ ||
तन अर्थात शरीर, तार अर्थात मन जो कि सदैव स्पंदित होता रहता है, इन दो के मिलने से ही यह शरीर एक साज (वाद्य यंत्र)बनता है | शरीर के साज बनने का अर्थ है कि इससे फिर ध्वनि निकल सकती है अर्थात शरीर सक्रिय हो जाता है | इस शरीर रुपी साज से जो विभिन्न सुर निकलते है, उसके पीछे भी परमात्मा ही हैं | हाथ भी परमात्मा है, जिससे यह साज बज रहा है और उस साज़ से निकलने वाली आवाज़ भी परमात्मा की है |
          छान्दोग्योपनिषद् 3/14/1 में कहा गया है - ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्’ अर्थात सर्वत्र ब्रह्म ही है | इस ब्रह्माण्ड में सब कुछ ब्रह्म ही है | ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं।अतः छोड़िए इस एक शरीर के जीवन की बात को, भूल जाइए भिन्न भिन्न शरीरों के माध्यम से महाजीवन की यात्रा को और जाग्रत हो जाइए उस परम जीवन को जीने के लिए, जिसमें परम गति, परम शांति और परम विश्राम है।लेकिन ऐसा होना तभी संभव हो सकेगा,जब परमात्मा स्वयं आप पर कृपा करेंगे और ईश्वर-कृपा के लिए अनासक्ति पूर्ण शुद्ध अंतःकरण चाहिए जो केवल परमात्मा की अनन्य भक्ति से ही प्राप्य है अन्यथा नहीं।
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
नई श्रृंखला कुछ दिनों बाद -

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