Thursday, January 3, 2019

अविरल जीवन(Life is continuous)-17

अविरल जीवन (Life is continuous)-17
          साधु और सिकंदर के मध्य हुआ यह संवाद स्पष्ट करता है कि जीवन का प्रवाह अविरल है | इस शरीर में भी जीवन है, नए शरीर में भी जीवन रहेगा और जब यह शरीर भी नहीं रहेगा तो भी जीवन स्पन्दित होता रहेगा | संसार का उद्भव और संसार का प्रलय, दोनों ही चलते रहेंगे परन्तु जीवन में कहीं कोई प्रलय अथवा उद्भव नहीं होना है | परन्तु यह सत्य है कि जीवन की अभिव्यक्ति केवल संसार के उद्भव के साथ होती है | अभिव्यक्ति होना और पुनः अव्यक्त हो जाना सिद्ध करता है, जीवन के अविरल होने को | अभिव्यक्ति के लिए कोई साधन चाहिए और वह साधन है, पदार्थ अर्थात शरीर | शरीर जीवन के कारण मिला है न कि शरीर के कारण जीवन है | काष्ठ में जैसे अग्नि है, चाहे वह प्रकट हो अथवा अप्रकट रहे, वैसे ही परमात्मा में अप्रकट जीवन है, प्रकट तो वह केवल पदार्थ अथवा शरीर के माध्यम से ही हो सकता है।
       गंभीरता के साथ देखा जाये तो परोक्ष रूप से परमात्मा ही जीवन है | जीवन के अभाव में परमात्मा नहीं है और परमात्मा के अभाव में जीवन नहीं है | हम जिस शरीर को लेकर अहंकारित है, उसका कोई मोल नहीं है इस जीवन के अभाव में | यही कारण है कि हम प्रत्येक शरीर में अभिव्यक्त हो रहे जीवन को देखकर बहुत प्रभावित होते हैं | जीवन यानि परमात्मा की अभिव्यक्ति किन्हीं दो जीवों में भिन्नता लिए हुए नहीं होती | इसीलिए संत जन कहते हैं कि सभी को आप स्वयं के समान ही समझो | गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को छठे अध्याय में कहते हैं-
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||30||
जो सम्पूर्ण भूतों (जीवों) में मुझ परमात्मा को देखता है और सम्पूर्ण भूतों (जीवों) को मुझ परमात्मा के अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता |
           परमात्मा ही जीवन है और जीवन अविरल है | गीता के इस श्लोक के अनुसार सोच रखना और समग्र रूप से आत्मसात कर लेना ही सख्य भाव है, सामीप्य मुक्ति है | सभी का जीवन एक ही है, जीवन का प्रवाह निरंतर चलता रहता है, इस बात को जिसने स्वीकार कर लिया वह फिर शरीर के सुख-दुःख से ऊपर उठ जाता है और शीघ्र ही गुणातीत होकर अविरल जीवन के साथ प्रवाहित होता रहता है और अंततः परम जीवन को उपलब्ध हो जाता है | भला, फिर परमात्मा से दूरी रह ही कहाँ जाती है, जब वह स्वयं ही परमात्मा हो जाता है |ऐसी स्थिति को उपलब्ध हो जाने पर जीवन और परमात्मा एक हो जाते है।यही जीवनमुक्ति है।
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् || 

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