Wednesday, January 30, 2019

पुनर्जन्म-14

पुनर्जन्म-14
        भावन के अनुसार ही मन मनुष्य के जीवन में क्रियाशील रहता है और रुचिकर संवेदन को बार बार प्राप्त करने के लिए इंद्रियों को आदेश देता रहता है। भावन के कारण ही मन में उस विषय का सतत चिंतन चलता रहता है।चिंतन से ही मन मे कामना का जन्म होता है।आप अगर मन के भावन को महत्व नहीं देंगे तो स्वतः ही उस विषय का चिंतन नहीं होगा और न ही उस विषय-भोग की कामना जगेगी।अतः यह स्पष्ट है कि चिंतन चित(आत्मा)करता है अर्थात हम स्वयं करते हैं इसमें इंद्रियादि की भूमिका केवल संवेद (ज्ञान) कराने तक की है।मन ही संवेदन और भावन के रूप में उसे परिवर्तित करता है।इसलिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि मन के कहे को महत्व न दें, वह तो असत है,उसको सत्ता देंगे तो आप सत होते हुए भी जीवन भर असत में उलझ कर ही रह जाएंगे।
          प्रथम बार मन का दिया आदेश कामना कहलाता है और जब वही इन्द्रिय सुख बार बार प्राप्त करने की कामना उठती है,तब वह वासना (greed) कहलाती है।अपूर्ण कामना हो अथवा वासना, सभी का अंकन मन के दूसरे भाग चित्त जो कि आत्मा का ही विस्तार है, में सतत अंकित होता रहता है।इन्द्रिय सुख का भोक्ता मन नहीं है।समस्त इन्द्रिय सुखों को मन के माध्यम से आत्मा ही भोगता है और यही आत्मा/भोक्ता मन के माध्यम से बार बार विषयों को भोगने की कामना करता रहता है।यहां मन और आत्मा के मध्य बुद्धि भी है परंतु आत्मा बुद्धि का भी उल्लंघन कर देती है।वास्तव में देखा जाए तो अपने मूल स्वभाव से आत्मा न तो कर्ता है और न ही भोक्ता परंतु मन को आकर्षित कर  उसके साथ हो जाने के कारण(मन की हाँ में हाँ मिलाने से) वह कर्ता और भोक्ता होकर शरीर के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है।यही तादात्म्य शरीर छूटने के बाद भी नहीं टूटता और पुनः नए शरीर प्राप्त करने को छटपटाने लगता है। नये शरीर के मिलने की प्रक्रिया कैसे घटित होती है,यह जानने के लिए हमें मन के दूसरे भाग चित्त में प्रवेश करना होगा।
      मन का शरीर के साथ संबंध है और चित्त का चैतन्य (आत्मा/चित)के साथ क्योंकि आत्मा जब विस्तार को प्राप्त होती है,तब निराकार से साकार बनने की प्रक्रिया में मध्य में तरल बनना आवश्यक है, जैसे वाष्प को बर्फ बनने से पूर्व जल बनना पड़ता है।ठोस का स्थायित्व नहीं रह सकता, इसलिए ही शरीर का क्षरण होता है और आत्मा जोकि अक्षर है, वह जर्जर हुए शरीर को त्याग कर अपने साथ तरल चित्त को लेकर शरीर से अलग हो जाती है।ऐसी स्थिति में शरीर मृत माना जाता है। चित (आत्मा)  चित्त(मन का आत्मा के निकट का भाग) को ही साथ क्यों ले जाती है ? इसका कारण है, आत्मा शरीर और मन के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेने के कारण अपने मूल स्वभाव "न करोति न लिप्यते" को भूल चुकी है, और स्वयं को कर्ता, भोक्ता मान बैठी है। उसे जर्जर हुई देह के कारण अपनी अधूरी कामनाएं, आसक्तियां और बिना फल प्राप्त हुए कर्मों का फल प्राप्त करना असंभव नज़र आता है और इन तीनों का ही अंकन चित्त में अंकित है ।उस अंकन के अनुसार उसे नई देह प्राप्त करनी होगी, इसलिए वह जर्जर हुए शरीर को छोड़ने से पूर्व चित्त को अपने साथ ले जाती है।आत्मा कौन है ? हम जिसको 'मैं' कहते हैं वही आत्मा है अर्थात हम स्वयं आत्मा हैं। परंतु मनुष्य देह पाकर उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेने के कारण हम इस शरीर को ही 'मैं" होना मान लेते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

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