अविरल जीवन (Life is continuous)-19
इतने विवेचन के बाद यह स्पष्ट हो चूका है कि जीवन क्या है ? परमात्मा द्वारा स्वयं के स्पंदित होने का नाम ही जीवन है | प्रत्येक स्पंदन से पैदा हुई आवाज को सुर कहा जाता है | सुर सात प्रकार के होते हैं-सा, रे, गा, मा, पा, धा, नि और इसके बाद आठवें स्थान पर पुनः सा आ जाता है। इस प्रकार सा नि धा पा मा गा रे सा... विभिन्न आवृतियों (frequency) में स्पंदन से सुर बनते रहते हैं | इस प्रकार यह स्पंदन ही सुरों के माध्यम से जीवन को अभिव्यक्त करता है | सुरों से पद बनते हैं, जिन्हें लयबद्ध करके गाया जा सकता है | इस पद से ही पदार्थ शब्द बना है अर्थात जब विभिन्न सुरों से बने पद एक निश्चित अर्थ पा लेते हैं, तब पदार्थ (पद+अर्थ) का प्रकटीकरण हो जाता है | इस प्रकार परमात्मा स्पंदित होकर, पहले सुर में, फिर पद में और अंततः पदार्थ के रूप में प्रकट हुआ | पदार्थ से ही प्राणियों के शरीर बने हैं अर्थात शरीर भी एक पदार्थ है।इसीलिए हमारी संस्कृति कहती है कि सृष्टि के कण-कण में भगवान है |
आधुनिक विज्ञान भी आज हमारी इसी बात को सिद्ध कर रहा है। रसायन विज्ञान (chemistry)में तत्व सारिणी (periodic table) में तत्वों को गुणों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि सुरों की तरह ही यहां भी आठवें स्थान पर पुनः समान गुणधर्मों वाला एक और तत्व आ जाता है, जैसे सुरों में 'सा' पुनः आठवें स्थान पर आ जाता है। अतः आदिकाल से हमारा ऐसा मानना केवल थोथी बात नहीं है | महर्षि कणाद ने परमाण्विक सिद्धांत दिया है | वे कहते हैं कि प्रत्येक परमाणु में भी स्पंदन होता है और उस परमाणु का भी एक निश्चित जीवन होता है | आधुनिक विज्ञान भी इसी प्रकार प्रत्येक अणु के अर्द्ध जीवन (Half life) की बात कहता है |
हमारे देश में शास्त्रीय गायन के अंतर्गत कई राग प्रसिद्ध है | शास्त्रीय गायन राग पर ही आधारित होता है, जिसमें सातों सुरों का एक व्यवस्थित प्रकार से समायोजन किया जाता है | इन रागों का उपयोग कर दीप जलाये जा सकते हैं, बरसात कराई जा सकती है, यहाँ तक कि अचेतन मस्तिष्क में चेतना तक लौटाई जा सकती है | दुर्भाग्य से हमने अपनी वह सही राह छोड़ दी है, जिसके कारण इस प्रकार की राग गाने वाले इस देश में अंगुलियों पर गिने जाने लायक ही व्यक्ति बचे हैं और जो कुछ बचे भी हैं, उनको न तो उचित सम्मान मिल रहा है और न ही इस कला को बनाये रखने के लिए सहयोग | एक लुप्त होती जा रही विधा के लिए उदासीन बने रहना दु:खद है | आज आधुनिक विज्ञान संगीत के माध्यम से नित नए प्रयोग कर रहा है और हम हैं कि हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं | हमें अपनी इस कला के संरक्षण के लिए कोई न कोई सार्थक कदम उठाना ही होगा |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
इतने विवेचन के बाद यह स्पष्ट हो चूका है कि जीवन क्या है ? परमात्मा द्वारा स्वयं के स्पंदित होने का नाम ही जीवन है | प्रत्येक स्पंदन से पैदा हुई आवाज को सुर कहा जाता है | सुर सात प्रकार के होते हैं-सा, रे, गा, मा, पा, धा, नि और इसके बाद आठवें स्थान पर पुनः सा आ जाता है। इस प्रकार सा नि धा पा मा गा रे सा... विभिन्न आवृतियों (frequency) में स्पंदन से सुर बनते रहते हैं | इस प्रकार यह स्पंदन ही सुरों के माध्यम से जीवन को अभिव्यक्त करता है | सुरों से पद बनते हैं, जिन्हें लयबद्ध करके गाया जा सकता है | इस पद से ही पदार्थ शब्द बना है अर्थात जब विभिन्न सुरों से बने पद एक निश्चित अर्थ पा लेते हैं, तब पदार्थ (पद+अर्थ) का प्रकटीकरण हो जाता है | इस प्रकार परमात्मा स्पंदित होकर, पहले सुर में, फिर पद में और अंततः पदार्थ के रूप में प्रकट हुआ | पदार्थ से ही प्राणियों के शरीर बने हैं अर्थात शरीर भी एक पदार्थ है।इसीलिए हमारी संस्कृति कहती है कि सृष्टि के कण-कण में भगवान है |
आधुनिक विज्ञान भी आज हमारी इसी बात को सिद्ध कर रहा है। रसायन विज्ञान (chemistry)में तत्व सारिणी (periodic table) में तत्वों को गुणों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि सुरों की तरह ही यहां भी आठवें स्थान पर पुनः समान गुणधर्मों वाला एक और तत्व आ जाता है, जैसे सुरों में 'सा' पुनः आठवें स्थान पर आ जाता है। अतः आदिकाल से हमारा ऐसा मानना केवल थोथी बात नहीं है | महर्षि कणाद ने परमाण्विक सिद्धांत दिया है | वे कहते हैं कि प्रत्येक परमाणु में भी स्पंदन होता है और उस परमाणु का भी एक निश्चित जीवन होता है | आधुनिक विज्ञान भी इसी प्रकार प्रत्येक अणु के अर्द्ध जीवन (Half life) की बात कहता है |
हमारे देश में शास्त्रीय गायन के अंतर्गत कई राग प्रसिद्ध है | शास्त्रीय गायन राग पर ही आधारित होता है, जिसमें सातों सुरों का एक व्यवस्थित प्रकार से समायोजन किया जाता है | इन रागों का उपयोग कर दीप जलाये जा सकते हैं, बरसात कराई जा सकती है, यहाँ तक कि अचेतन मस्तिष्क में चेतना तक लौटाई जा सकती है | दुर्भाग्य से हमने अपनी वह सही राह छोड़ दी है, जिसके कारण इस प्रकार की राग गाने वाले इस देश में अंगुलियों पर गिने जाने लायक ही व्यक्ति बचे हैं और जो कुछ बचे भी हैं, उनको न तो उचित सम्मान मिल रहा है और न ही इस कला को बनाये रखने के लिए सहयोग | एक लुप्त होती जा रही विधा के लिए उदासीन बने रहना दु:खद है | आज आधुनिक विज्ञान संगीत के माध्यम से नित नए प्रयोग कर रहा है और हम हैं कि हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं | हमें अपनी इस कला के संरक्षण के लिए कोई न कोई सार्थक कदम उठाना ही होगा |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
अद्भुत उल्लेख
ReplyDeleteआपका धन्यवाद
हृदय से आभार