पुनर्जन्म-11
मन के द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान को नकारते हुए कर्मेन्द्रियों तक भी संवेदन के आधार पर संदेश भेजे जाते हैं।जैसे एक जुआरी की आदत है, जुआ खेलने की। घर से पैसे लेकर चलता है, बच्चे की पढ़ाई के लिए पुस्तकें खरीदने और पहुंच जाता है, जुए के अड्डे पर।मस्तिष्क प्रत्यक्ष ज्ञान देने का प्रयास करता है परंतु मन उसके पैरों (पाद कर्मेन्द्रिय) को जुआ घर की ओर ले जाने का संवेदन संदेश प्रेषित कर देती है।इस प्रकार व्यक्ति बुद्धि के आदेश की अवहेलना कर मन की इच्छानुसार जुआ खेलने पहुंच ही जाता है।
मन की इच्छानुसार सभी संदेश मस्तिष्क(बुद्धि) के द्वारा ही भेजे जाते हैं परंतु ये आदेश प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधारित न होकर संवेदन पर आधारित होते हैं।इसी कारण से मन के कार्य का दोष सीधे सीधे बुद्धि के मत्थे मढ़ दिया जाता है और कह दिया जाता है कि अमुक व्यक्ति की तो बुद्धि ही भ्रष्ट हो गयी थी।
विवेचन के इस मोड़ पर आकर यह स्पष्ट हो जाता है कि न तो ज्ञानेन्द्रियाँ दोषी है और न ही कर्मेन्द्रियाँ। दोषी है तो केवल मन।नहीं, केवल मन ही नहीं मस्तिष्क में स्थित बुद्धि और अहंकार भी इसके लिए जिम्मेदार है। ओहो, तो क्या बुद्धि और अहंकार प्रत्यक्ष ज्ञान को समझने में बाधक है? जटिलता बढ़ती जा रही है,किसको दोष दें पुनर्जन्म की ओर ले जाने का ? अहंकार बुद्धि पर पर पहले से ही प्रभावी है और ऊपर से बुद्धि पर मन भी हावी हो जाए,उसी का तो परिणाम होता है कि अवगम (प्रत्यक्ष ज्ञान)संवेदन में परिवर्तित हो जाता है।अगर बुद्धि मन पर प्रभावी होती तो संवेद प्रत्यक्ष ज्ञान के रूप में ही व्यक्त होता न कि संवेदन के रूप में। तो क्या यह मान लिया जाए कि अगर नियंत्रित करना ही आवश्यक है तो इंद्रियों के राजा मन को और मन के साथ साथ अहं और बुद्धि को भी करना चाहिए।मुझे तो मुख्य रूप से मन को ही नियंत्रित करना उचित जान पड़ता है क्योंकि दसों इन्द्रियां तो केवल अपने राजा के आदेश का ही पालन करती है, बुद्धि और अहंकार उन्हें प्रत्यक्ष रूप से आदेश दे ही नहीं सकते।
मस्तिष्क शब्द का उपयोग मुख्य रूप से बुद्धि और विवेक के लिए किया जाता है।बुद्धि और विवेक का संचालन मस्तिष्क के माध्यम से ही होता है।हालांकि मन का निवास भी मस्तिष्क में होता है परंतु मन का संचालन हृदय से होता है।यहां एक बात पुनः एक बार और स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि मन के भी दो भाग है,प्रथम भाग जो मानव शरीर में जन्म के समय मां के गर्भ में विकसित होता है और दूसरा भाग जिसमें सभी कर्म,स्मृतियां, कामनाएं,ममता,आसक्तियां आदि का अंकन होता है और देह की मृत्यु पर मन का यही भाग आत्मा के साथ शरीर छोड़ता है और पुनर्जन्म के लिए नए शरीर का चयन करता है। मन के इस भाग को चित्त कहते हैं जबकि आत्मा को चित कहा जाता है अर्थात जिसके कारण जड़ शरीर को चैतन्यता प्राप्त होती है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
मन के द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान को नकारते हुए कर्मेन्द्रियों तक भी संवेदन के आधार पर संदेश भेजे जाते हैं।जैसे एक जुआरी की आदत है, जुआ खेलने की। घर से पैसे लेकर चलता है, बच्चे की पढ़ाई के लिए पुस्तकें खरीदने और पहुंच जाता है, जुए के अड्डे पर।मस्तिष्क प्रत्यक्ष ज्ञान देने का प्रयास करता है परंतु मन उसके पैरों (पाद कर्मेन्द्रिय) को जुआ घर की ओर ले जाने का संवेदन संदेश प्रेषित कर देती है।इस प्रकार व्यक्ति बुद्धि के आदेश की अवहेलना कर मन की इच्छानुसार जुआ खेलने पहुंच ही जाता है।
मन की इच्छानुसार सभी संदेश मस्तिष्क(बुद्धि) के द्वारा ही भेजे जाते हैं परंतु ये आदेश प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधारित न होकर संवेदन पर आधारित होते हैं।इसी कारण से मन के कार्य का दोष सीधे सीधे बुद्धि के मत्थे मढ़ दिया जाता है और कह दिया जाता है कि अमुक व्यक्ति की तो बुद्धि ही भ्रष्ट हो गयी थी।
विवेचन के इस मोड़ पर आकर यह स्पष्ट हो जाता है कि न तो ज्ञानेन्द्रियाँ दोषी है और न ही कर्मेन्द्रियाँ। दोषी है तो केवल मन।नहीं, केवल मन ही नहीं मस्तिष्क में स्थित बुद्धि और अहंकार भी इसके लिए जिम्मेदार है। ओहो, तो क्या बुद्धि और अहंकार प्रत्यक्ष ज्ञान को समझने में बाधक है? जटिलता बढ़ती जा रही है,किसको दोष दें पुनर्जन्म की ओर ले जाने का ? अहंकार बुद्धि पर पर पहले से ही प्रभावी है और ऊपर से बुद्धि पर मन भी हावी हो जाए,उसी का तो परिणाम होता है कि अवगम (प्रत्यक्ष ज्ञान)संवेदन में परिवर्तित हो जाता है।अगर बुद्धि मन पर प्रभावी होती तो संवेद प्रत्यक्ष ज्ञान के रूप में ही व्यक्त होता न कि संवेदन के रूप में। तो क्या यह मान लिया जाए कि अगर नियंत्रित करना ही आवश्यक है तो इंद्रियों के राजा मन को और मन के साथ साथ अहं और बुद्धि को भी करना चाहिए।मुझे तो मुख्य रूप से मन को ही नियंत्रित करना उचित जान पड़ता है क्योंकि दसों इन्द्रियां तो केवल अपने राजा के आदेश का ही पालन करती है, बुद्धि और अहंकार उन्हें प्रत्यक्ष रूप से आदेश दे ही नहीं सकते।
मस्तिष्क शब्द का उपयोग मुख्य रूप से बुद्धि और विवेक के लिए किया जाता है।बुद्धि और विवेक का संचालन मस्तिष्क के माध्यम से ही होता है।हालांकि मन का निवास भी मस्तिष्क में होता है परंतु मन का संचालन हृदय से होता है।यहां एक बात पुनः एक बार और स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि मन के भी दो भाग है,प्रथम भाग जो मानव शरीर में जन्म के समय मां के गर्भ में विकसित होता है और दूसरा भाग जिसमें सभी कर्म,स्मृतियां, कामनाएं,ममता,आसक्तियां आदि का अंकन होता है और देह की मृत्यु पर मन का यही भाग आत्मा के साथ शरीर छोड़ता है और पुनर्जन्म के लिए नए शरीर का चयन करता है। मन के इस भाग को चित्त कहते हैं जबकि आत्मा को चित कहा जाता है अर्थात जिसके कारण जड़ शरीर को चैतन्यता प्राप्त होती है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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