पुनर्जन्म-7
ज्ञानेंद्रियों से हम मस्तिष्क तक पहुंचे फिर मस्तिष्क से कर्मेन्द्रियों तक।कर्मेन्द्रियों को कार्य करने का आदेश मस्तिष्क देता है फिर कर्मेन्द्रियाँ क्यों कभी कभी अनुचित कर्म भी कर जाती है?ज्ञानेन्द्रियाँ केवल संवेद के संदेश मस्तिष्क तक पहुंचाने का कार्य करती है, फिर उन पर नियंत्रण करने को क्यों कहा जाता है? इन सबको नियंत्रण करने का कार्य भले मुख्य रूप से मस्तिष्क का ही क्यों न हो, परंतु मस्तिष्क पर जिसका नियंत्रण हो जाता है, उसी की भूमिका इन इंद्रियों के नियंत्रण में हो सकती है। मस्तिष्क में बुद्धि निवास करती है और मस्तिष्क में ही शरीर के जन्म के समय जीवात्मा का प्रवेश होता है। यहां आकर हमें पुनर्जन्म की प्रक्रिया को समझने के लिए विज्ञान के साथ साथ सनातन धर्म शास्त्रों का सहारा भी लेना होगा क्योंकि विज्ञान इससे आगे अभी तक बढ़ नहीं पाया है।
जीवात्मा का अर्थ है जीव और आत्मा। मन को ही जीव कहा जाता है और आत्मा के विस्तार को मन कहा गया है।आत्मा जब विस्तारित होती है तो सर्वप्रथम महतत्त्व और फिर महतत्त्व से अहंकार उत्पन्न होता है। अहंकार के बाद बुद्धि, मन, इन्द्रियां और इंद्रियों के विषय आदि उत्पन्न हुए हैं।मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार मिलकर अंतःकरण कहलाते हैं। जब संकल्प-विकल्प होते है, सोचा-विचारी होती है, तब उस चेतन वृति को मन कहते हैं।जब कई यादों के संग्रह के रूप में देखा जाता है तो उसे चित्त कहते है।जब निर्णय करना उस चेतन वृति का काम होता है तब उसे बुद्धि की संज्ञा दी जाती है।जब “मैं” भाव के रूप में इसका उपयोग होता तब इसका नाम अहंकार पड़ जाता है।गहरे में देखा जाए तो एक ही चेतन वृति है, स्पंदन है। पर कार्य के आधार पर उसके चार नाम है - मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार।इनको ही जीव कहा जाता है।इसका अर्थ यह हुआ कि जीव और आत्मा एक ही है। अव्यक्त आत्मा को भौतिक शरीर से जोड़ने वाला आत्मा का जो विस्तार है,उसे मन कहा जाता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मन ही आत्मा (चिदाभास/चित) और शरीर को जोड़ने वाली एक मात्र कड़ी है। है भी यह सत्य, क्योंकि मन के साथ आत्मा संलग्न होकर अपने को शरीर के कर्मों का भोक्ता मान लेती है और अपना मूल स्वरूप परमात्मा होना भूल जाती है।
क्रमशः
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
ज्ञानेंद्रियों से हम मस्तिष्क तक पहुंचे फिर मस्तिष्क से कर्मेन्द्रियों तक।कर्मेन्द्रियों को कार्य करने का आदेश मस्तिष्क देता है फिर कर्मेन्द्रियाँ क्यों कभी कभी अनुचित कर्म भी कर जाती है?ज्ञानेन्द्रियाँ केवल संवेद के संदेश मस्तिष्क तक पहुंचाने का कार्य करती है, फिर उन पर नियंत्रण करने को क्यों कहा जाता है? इन सबको नियंत्रण करने का कार्य भले मुख्य रूप से मस्तिष्क का ही क्यों न हो, परंतु मस्तिष्क पर जिसका नियंत्रण हो जाता है, उसी की भूमिका इन इंद्रियों के नियंत्रण में हो सकती है। मस्तिष्क में बुद्धि निवास करती है और मस्तिष्क में ही शरीर के जन्म के समय जीवात्मा का प्रवेश होता है। यहां आकर हमें पुनर्जन्म की प्रक्रिया को समझने के लिए विज्ञान के साथ साथ सनातन धर्म शास्त्रों का सहारा भी लेना होगा क्योंकि विज्ञान इससे आगे अभी तक बढ़ नहीं पाया है।
जीवात्मा का अर्थ है जीव और आत्मा। मन को ही जीव कहा जाता है और आत्मा के विस्तार को मन कहा गया है।आत्मा जब विस्तारित होती है तो सर्वप्रथम महतत्त्व और फिर महतत्त्व से अहंकार उत्पन्न होता है। अहंकार के बाद बुद्धि, मन, इन्द्रियां और इंद्रियों के विषय आदि उत्पन्न हुए हैं।मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार मिलकर अंतःकरण कहलाते हैं। जब संकल्प-विकल्प होते है, सोचा-विचारी होती है, तब उस चेतन वृति को मन कहते हैं।जब कई यादों के संग्रह के रूप में देखा जाता है तो उसे चित्त कहते है।जब निर्णय करना उस चेतन वृति का काम होता है तब उसे बुद्धि की संज्ञा दी जाती है।जब “मैं” भाव के रूप में इसका उपयोग होता तब इसका नाम अहंकार पड़ जाता है।गहरे में देखा जाए तो एक ही चेतन वृति है, स्पंदन है। पर कार्य के आधार पर उसके चार नाम है - मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार।इनको ही जीव कहा जाता है।इसका अर्थ यह हुआ कि जीव और आत्मा एक ही है। अव्यक्त आत्मा को भौतिक शरीर से जोड़ने वाला आत्मा का जो विस्तार है,उसे मन कहा जाता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मन ही आत्मा (चिदाभास/चित) और शरीर को जोड़ने वाली एक मात्र कड़ी है। है भी यह सत्य, क्योंकि मन के साथ आत्मा संलग्न होकर अपने को शरीर के कर्मों का भोक्ता मान लेती है और अपना मूल स्वरूप परमात्मा होना भूल जाती है।
क्रमशः
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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