Saturday, January 26, 2019

पुनर्जन्म-10

पुनर्जन्म-10
इस प्रकार परोक्ष रूप से हमारा मन ही प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुभव में हस्तक्षेप करता है।मन केवल उन्हीं संवेद को प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुरूप स्वीकार नहीं करता जिस संवेद को उसने अपने भीतर पहले से ही अंकित कर रखा हो। मन में संवेद का यह अंकन पूर्व मानव जन्म से ही होकर आता है या फिर ज्ञानेंद्रियों से मस्तिष्क के माध्यम से पूर्व में मिले प्रत्यक्ष ज्ञान से होता है। केवल यही दो माध्यम है जिससे मन सही ज्ञान को संवेदन के रूप में अनुभव करता है।परिणाम स्वरूप जो संवेद प्रत्यक्ष ज्ञान के रूप में व्यक्त होना चाहिए वह मन के हस्तक्षेप के कारण संवेदन के रूप में व्यक्त होता है।
       संवेदन का अर्थ है, संवेद की प्रतिक्रिया अर्थात सही ज्ञान को स्वयं के अनुसार  परिवर्तित कर प्रतिक्रिया देना।मस्तिष्क जिस संवेद को बिना मन के हस्तक्षेप के अवगम/प्रत्यक्ष ज्ञान में परिवर्तित कर देता है,वह हमारे शरीर को सही रूप से संचालित करने के लिए आवश्यक है।मन उसमें इसलिए हस्तक्षेप नहीं करता क्योंकि मन को अपनी इच्छाएं पूरी करने ले लिए स्वस्थ शरीर भी चाहिए।मन केवल उन्हीं संवेदो के प्रत्यक्ष ज्ञान को सही रूप से व्यक्त होने में रोड़े डालता है, जो उसकी इच्छाओं की पूर्ति करने में बाधक बनते हों या फिर उन संवेद के प्रत्यक्ष ज्ञान बनने को संवेदन में परिवर्तित करता है,जिससे उसका हित सधता हो।
      पहले मैंने मस्तिष्क द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान में परिवर्तित करने के दो उदाहरण दिए थे,एक पैर में कील चुभने का और एक कड़वे स्वाद वाली वस्तु को थूक देने का।इन दोनों ही प्रत्यक्ष ज्ञान को व्यक्त करने में मन की कोई भूमिका नहीं है।जहां मन की भूमिका बनती है, उसका उदाहरण भी प्रस्तुत है।जैसे किसी व्यक्ति के मन में अपने कानों से आलोचनाएं सुनने का रस अंकित होता है, उसको संतों के प्रवचन नहीं सुहाते।इसी प्रकार किसी व्यक्ति को नशा करने की लत है,शराब का नशा करता है, उसको शराब का स्वाद मस्तिष्क(बुद्धि) तो प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुसार कड़वा बताने का प्रयास करेगा परंतु मन हस्तक्षेप कर उस स्वाद का मधुर संवेदन व्यक्त करेगा क्योंकि मन जानता है कि शराब के सेवन बिना उसे छद्म सुख की अनुभूति नहीं होगी। ये तो हुई ज्ञानेंद्रियों से संबंधित मन का संवेदन, अब कर्मेन्द्रियों को मन क्या कहता है, देखते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

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