पुनर्जन्म-5
ज्ञानेन्द्रियाँ जो भी प्राप्त करती है, उस संवेद को ठीक वैसा ही मस्तिष्क को प्रेषित कर देती है।अतः यह स्पष्ट है कि पांचों ज्ञानेंद्रियों की ज्ञान को परिवर्तित करने में कोई भूमिका नहीं है। वे तो एक पोस्टमैन की भूमिका निभाती है और संवेद को मस्तिष्क को डिलीवर कर देती है।इसलिए केवल ज्ञानेंद्रियों का दमन करन स्वयं के साथ अन्याय करना है, प्रकृति का अपमान करना है।मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूँ कि इंद्रियों के स्वाभाविक कार्य को जबर्दस्ती रोक दिया जाए। उनके प्राकृतिक कार्य को रोकने का अर्थ है स्वयं के शरीर के साथ शत्रुता करना।
मैंने एक प्रवचनकर्ता से सुना है कि सूरदासजी जन्मांध नहीं थे बल्कि सुंदर स्त्रियों के रूप को देखकर वे विचलित हो जाते थे । उनमें कामभाव आ जाता था और भगवान में उनका मन नहीं लगता था। उनका एकमात्र लक्ष्य परमात्मा का ध्यान करना था जबकि उनका ध्यान ऐसी बातों से भटकने लगा था । कहते हैं कि स्त्रियों के रूप पर दृष्टि जाए ही नहीं, इसलिए उन्होंने अपनी आंखें फोड़ ली।मैं इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि कामभाव का बाह्य दृष्टि से केवल नाममात्र का ही सम्बन्ध है। दृष्टि गंवा देने से क्या काम-चिंतन बन्द हो जाता है? नहीं, बिल्कुल नहीं, इसके विपरीत काम के प्रति विचार और अधिक तीव्र हो जाते हैं।दृष्टिहीन व्यक्ति में भी कामभाव कम नहीं होता।अतः सूरदासजी जैसे महान संत के बारे में ऐसा कहना उनकी कृष्ण भक्ति का अपमान करना है जो कि प्रेमरस से परिपूर्ण है।
कहा जाता है कि गांधीजी के तीन बंदर हैं,उनमें एक आंख बंद किये बैठा है,एक कान बन्द किये है और तीसरा मुंह पर हाथ धरे बैठा है।गांधीजी ने कहा था कि बुरा मत देखो,बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो। बुरा सुनना और बुरा देखना, दोनों ही आपके वश में नहीं है क्योंकि क्या बुरा है जिसे देखना और सुनना नहीं है, वह कम से कम एक बार देखे और सुने बिना कैसे जाना जा सकता है ? हाँ, बुरा कहना हमारे नियंत्रण में अवश्य है क्योंकि कहना ज्ञानेंद्रियों का कार्य नहीं है, वह कर्मेन्द्रिय का कार्य है।
इतने चिंतन से स्पष्ट है कि ज्ञानेंद्रियों को अपना स्वाभाविक धर्म निभाने देना चाहिए।अगर ऐसा ही सत्य है तो फिर ज्ञानीजन बार-बार क्यों कहते हैं कि इन्द्रियों का दमन करो,उनको नियंत्रण में रखो। लो, आज भी यह प्रश्न फिर अनुत्तरित रह गया। ज्ञानेंद्रियों के स्तर पर तो कोई दोष मिला नहीं जो कह सके कि इन इंद्रियों का दमन करो। मस्तिष्क तक संवेद के संदेश पहुंचने के बाद क्या होता है ? जान लेने के बाद शायद इस पश्न का उत्तर मिल जाये।तो आइए, संवेद के संदेश के साथ मनुष्य के मस्तिष्क के भीतर तक पहुंचने और अपनी जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास करते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
ज्ञानेन्द्रियाँ जो भी प्राप्त करती है, उस संवेद को ठीक वैसा ही मस्तिष्क को प्रेषित कर देती है।अतः यह स्पष्ट है कि पांचों ज्ञानेंद्रियों की ज्ञान को परिवर्तित करने में कोई भूमिका नहीं है। वे तो एक पोस्टमैन की भूमिका निभाती है और संवेद को मस्तिष्क को डिलीवर कर देती है।इसलिए केवल ज्ञानेंद्रियों का दमन करन स्वयं के साथ अन्याय करना है, प्रकृति का अपमान करना है।मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूँ कि इंद्रियों के स्वाभाविक कार्य को जबर्दस्ती रोक दिया जाए। उनके प्राकृतिक कार्य को रोकने का अर्थ है स्वयं के शरीर के साथ शत्रुता करना।
मैंने एक प्रवचनकर्ता से सुना है कि सूरदासजी जन्मांध नहीं थे बल्कि सुंदर स्त्रियों के रूप को देखकर वे विचलित हो जाते थे । उनमें कामभाव आ जाता था और भगवान में उनका मन नहीं लगता था। उनका एकमात्र लक्ष्य परमात्मा का ध्यान करना था जबकि उनका ध्यान ऐसी बातों से भटकने लगा था । कहते हैं कि स्त्रियों के रूप पर दृष्टि जाए ही नहीं, इसलिए उन्होंने अपनी आंखें फोड़ ली।मैं इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि कामभाव का बाह्य दृष्टि से केवल नाममात्र का ही सम्बन्ध है। दृष्टि गंवा देने से क्या काम-चिंतन बन्द हो जाता है? नहीं, बिल्कुल नहीं, इसके विपरीत काम के प्रति विचार और अधिक तीव्र हो जाते हैं।दृष्टिहीन व्यक्ति में भी कामभाव कम नहीं होता।अतः सूरदासजी जैसे महान संत के बारे में ऐसा कहना उनकी कृष्ण भक्ति का अपमान करना है जो कि प्रेमरस से परिपूर्ण है।
कहा जाता है कि गांधीजी के तीन बंदर हैं,उनमें एक आंख बंद किये बैठा है,एक कान बन्द किये है और तीसरा मुंह पर हाथ धरे बैठा है।गांधीजी ने कहा था कि बुरा मत देखो,बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो। बुरा सुनना और बुरा देखना, दोनों ही आपके वश में नहीं है क्योंकि क्या बुरा है जिसे देखना और सुनना नहीं है, वह कम से कम एक बार देखे और सुने बिना कैसे जाना जा सकता है ? हाँ, बुरा कहना हमारे नियंत्रण में अवश्य है क्योंकि कहना ज्ञानेंद्रियों का कार्य नहीं है, वह कर्मेन्द्रिय का कार्य है।
इतने चिंतन से स्पष्ट है कि ज्ञानेंद्रियों को अपना स्वाभाविक धर्म निभाने देना चाहिए।अगर ऐसा ही सत्य है तो फिर ज्ञानीजन बार-बार क्यों कहते हैं कि इन्द्रियों का दमन करो,उनको नियंत्रण में रखो। लो, आज भी यह प्रश्न फिर अनुत्तरित रह गया। ज्ञानेंद्रियों के स्तर पर तो कोई दोष मिला नहीं जो कह सके कि इन इंद्रियों का दमन करो। मस्तिष्क तक संवेद के संदेश पहुंचने के बाद क्या होता है ? जान लेने के बाद शायद इस पश्न का उत्तर मिल जाये।तो आइए, संवेद के संदेश के साथ मनुष्य के मस्तिष्क के भीतर तक पहुंचने और अपनी जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास करते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
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