Monday, January 28, 2019

पुनर्जन्म-12

पुनर्जन्म-12
आत्मा का ही विस्तार है,चित्त(मन)।मन की उपस्थिति के कारण ही हम मनुष्य कहलाते हैं। चित्त(मन का भाग) केवल पूर्वजन्म के अंकित कर्मों के आधार पर कर्मेन्द्रियों के माध्यम से केवल नाम मात्र के कर्म करवा कर हमें उसका फल उपलब्ध करवा सकता है लेकिन स्वयं अपनी रूचि से नए कर्म नहीं करवा सकता जबकि मन अपनी रूचि के अनुसार कर्मेन्द्रियों से कर्म करवा सकता है। शेष सभी जीवों में केवल चित्त की ही उपस्थिति रहती है मन की नहीं।इसीलिए उनको पशु कहा जाता है क्योंकि वे केवल पूर्व मानव जीवन के कर्मों को भोगने के लिए विवश हैं, कर्मों की पाश मनुष्य से अगले जन्म में उसे पशु बना देती है।मन के न होने के कारण कोई भी पशु अपने मन की नहीं कर सकता यानी अपनी रूचि अनुसार कोई भी पशु नए कर्म नहीं कर सकता।
      चित और चित्त, इन दो शब्दों का अर्थ सही रूप से समझें।वैसे चित (आत्मा) ही जब चित्त को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है तब वह स्वयं को ही शरीर होना मानने लगता है और सभी कर्मों के फलों का कर्ता व भोक्ता बन बैठता है।जिस दिन चित्त से चित अपने आपको मुक्त कर लेता है, उसी दिन वह भी सच्चिदानंद स्वरूप हो जाता है।अंतःकरण में मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त सम्मिलित हैं। मन कहो अथवा चित्त दोनों एक ही बात है परंतु चित (आत्मा) और चित्त(मन) दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं।
      यहां तक पहुंच कर मन की दादागिरी तो स्पष्ट हो जाती है।परंतु उसे दादागिरी करने का अवसर कौन प्रदान करता है, चित अर्थात आत्मा ही न। तो फिर पुनर्जन्म का दोष मन का नहीं हुआ, आत्मा का हुआ। हाँ, हम अब पहुंचे हैं सही उत्तर पर, पुनर्जन्म की मूल तक। ओहो, तो सारे झगड़े की जड़ यह आत्मा अर्थात हम स्वयं ही है जो मन के साथ तादात्म्य स्थापित कर जीवन भर  मन और इंद्रियों के माध्यम से भोग प्राप्त करते रहते है। इस प्रकार यह जीवात्मा ही कर्मों की भी कर्ता हुई और कर्मफल की भोक्ता भी और इतने दिनों तक हम सारा दोष मन और इंद्रियों पर मढ़ रहे थे।फिर तो अगर हमें इस संसार के आवागमन चक्र से मुक्त होना है तो जीवात्मा को नियंत्रण में करना ही होगा।परंतु जीवात्मा को नियंत्रण में करेगा कौन? अरे,हम स्वयं ही तो जीवात्मा हैं। हम सत हैं परंतु जन्म के साथ ही सत का साथ छोड़ असत प्रकृति की गोद में आ बैठे हैं।कहने का अर्थ है कि इस शरीर में स्थित मन, बुद्धि,चित्त और अहंकार आदि सभी असत तत्वों के सर्वोच्च शिखर पर सत आत्मा के रूप में हम स्वयं बैठे हुए हैं और हमें इसका तनिक भी ज्ञान नहीं है । अगर हम अपने मूल स्वरूप को पहचान कर अपने स्वभाव में स्थित हो जाएंगे तो ये सभी असत तत्व हमारा कुछ भी न बिगड़ पाएंगे।
     विवेचन के इस मोड़ पर आकर हमें अब यह पता करना है कि जीवात्मा में स्थित मन कैसे हमें पुनर्जन्म की ओर ले जाता है ? मन जो चाहता है, करवा सकता है परंतु ऐसा वैसा चाहता ही क्यों है, जो दूसरा शरीर लेने को हमें विवश कर देता है?आइए, यह जानने के लिए आगे बढें।
          हमारी पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ जो संवेद मस्तिष्क को भेजती है,मन उन सबका अवलोकन करता है जैसे कि कोई बच्चा सब खिलौनों का करता है।फिर मन इनमें से किसी रूचिकर और अरुचिकर का चयन करता है।मन के इस चयन को भावन (emotions)कहा जाता है।यह भावन ही मन के दूसरे भाग चित में अंकित होकर पुनर्जन्म का कारण बनते हैं।तो चलें,मन के भावन को समझने !
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

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