Thursday, January 31, 2019

पुनर्जन्म-15

पुनर्जन्म-15
        हमारे चित्त(मन) में भावन के कारण हमारे द्वारा किये गए कर्मों, कामनाओं और आसक्तियों का अंकन क्यों और किस प्रकार होता है, आइए चलते हैं, इनका अध्ययन करने, संचयन (Accumulation)की ओर।
संचयन (Accumulation)-
         प्रत्येक भावन(emotions) को मन में अंकित कर उनका संचयन किया जाता है, भावन को संचित क्यों किया जाता है, इसके दो कारण है।प्रथम कारण है, स्मृति (memory)बनाये रखने के लिए, जिससे आवश्यकता पड़ने पर संवेद से मिले ज्ञान को मन तत्काल ही संवेदन में बदल सके । संचयन का दूसरा कारण है, अगर शरीर जर्जर हो जाये तो अंकित की गई अधूरी कामनाओं को पूरा करने के लिए एक माध्यम अर्थात किसी नए शरीर को ढूंढा जा सके।
स्मृति के उदाहरण-जैसे पूर्व में किसी मीठे व्यंजन का स्वाद चखा हो तो उसका अंकन हो गया और दुबारा वही व्यंजन मिला तो उस संवेदन का अनुभव तत्काल हो जाता है।अगर व्यंजन नहीं भी मिला, केवल उस व्यंजन की कल्पना भी की तो अंकित स्मृति के आधार पर संवेदन सक्रिय हो उठता है और मुँह में पानी आ जाता है । इसी प्रकार जब दूरदर्शन पर कहीं पर भी शीत लहर चलने अथवा बर्फबारी होने का केवल समाचार ही प्रसारित होता है तो भी यहां बैठे व्यक्ति को सर्दी की स्मृति जाग्रत हो झुरझुरी आ जाती है। यह भी स्मृति से संवेदन होने का एक उदाहरण है।
    स्मृति भी दो प्रकार की है, दीर्घावधि स्मृति(LTM, long term memory) और अल्पावधि स्मृति (STM, short term memory)। अल्पावधि स्मृति का अंकन (record)व्यक्ति की कामना पूर्ण होने पर, कर्मफल मिल जाने पर अथवा ममता, आसक्ति आदि के समाप्त कर डालने से मिट जाते हैं । दीर्घावधि समृति के मिटने के अवसर नगण्य है।केवल किसी क्षमाशील और आध्यात्मिक व्यक्ति में ही ऐसा होना संभव हो सकता है।यही कारण है कि व्यक्ति की देह त्याग के समय उसे दीर्घावधि स्मृतियां एक एक कर सक्रिय होकर उसकी आँखों के सामने आकर चलचित्र की भांति दिखाई देने लगती है।गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि अंत समय में व्यक्ति जिसका स्मरण करता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है।इसीलिए कहा जाता है कि जीवन भर परमात्मा का स्मरण करते रहो जिससे देह त्यागते समय केवल उसी का स्मरण मन में बना रहे।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, January 30, 2019

पुनर्जन्म-14

पुनर्जन्म-14
        भावन के अनुसार ही मन मनुष्य के जीवन में क्रियाशील रहता है और रुचिकर संवेदन को बार बार प्राप्त करने के लिए इंद्रियों को आदेश देता रहता है। भावन के कारण ही मन में उस विषय का सतत चिंतन चलता रहता है।चिंतन से ही मन मे कामना का जन्म होता है।आप अगर मन के भावन को महत्व नहीं देंगे तो स्वतः ही उस विषय का चिंतन नहीं होगा और न ही उस विषय-भोग की कामना जगेगी।अतः यह स्पष्ट है कि चिंतन चित(आत्मा)करता है अर्थात हम स्वयं करते हैं इसमें इंद्रियादि की भूमिका केवल संवेद (ज्ञान) कराने तक की है।मन ही संवेदन और भावन के रूप में उसे परिवर्तित करता है।इसलिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि मन के कहे को महत्व न दें, वह तो असत है,उसको सत्ता देंगे तो आप सत होते हुए भी जीवन भर असत में उलझ कर ही रह जाएंगे।
          प्रथम बार मन का दिया आदेश कामना कहलाता है और जब वही इन्द्रिय सुख बार बार प्राप्त करने की कामना उठती है,तब वह वासना (greed) कहलाती है।अपूर्ण कामना हो अथवा वासना, सभी का अंकन मन के दूसरे भाग चित्त जो कि आत्मा का ही विस्तार है, में सतत अंकित होता रहता है।इन्द्रिय सुख का भोक्ता मन नहीं है।समस्त इन्द्रिय सुखों को मन के माध्यम से आत्मा ही भोगता है और यही आत्मा/भोक्ता मन के माध्यम से बार बार विषयों को भोगने की कामना करता रहता है।यहां मन और आत्मा के मध्य बुद्धि भी है परंतु आत्मा बुद्धि का भी उल्लंघन कर देती है।वास्तव में देखा जाए तो अपने मूल स्वभाव से आत्मा न तो कर्ता है और न ही भोक्ता परंतु मन को आकर्षित कर  उसके साथ हो जाने के कारण(मन की हाँ में हाँ मिलाने से) वह कर्ता और भोक्ता होकर शरीर के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है।यही तादात्म्य शरीर छूटने के बाद भी नहीं टूटता और पुनः नए शरीर प्राप्त करने को छटपटाने लगता है। नये शरीर के मिलने की प्रक्रिया कैसे घटित होती है,यह जानने के लिए हमें मन के दूसरे भाग चित्त में प्रवेश करना होगा।
      मन का शरीर के साथ संबंध है और चित्त का चैतन्य (आत्मा/चित)के साथ क्योंकि आत्मा जब विस्तार को प्राप्त होती है,तब निराकार से साकार बनने की प्रक्रिया में मध्य में तरल बनना आवश्यक है, जैसे वाष्प को बर्फ बनने से पूर्व जल बनना पड़ता है।ठोस का स्थायित्व नहीं रह सकता, इसलिए ही शरीर का क्षरण होता है और आत्मा जोकि अक्षर है, वह जर्जर हुए शरीर को त्याग कर अपने साथ तरल चित्त को लेकर शरीर से अलग हो जाती है।ऐसी स्थिति में शरीर मृत माना जाता है। चित (आत्मा)  चित्त(मन का आत्मा के निकट का भाग) को ही साथ क्यों ले जाती है ? इसका कारण है, आत्मा शरीर और मन के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेने के कारण अपने मूल स्वभाव "न करोति न लिप्यते" को भूल चुकी है, और स्वयं को कर्ता, भोक्ता मान बैठी है। उसे जर्जर हुई देह के कारण अपनी अधूरी कामनाएं, आसक्तियां और बिना फल प्राप्त हुए कर्मों का फल प्राप्त करना असंभव नज़र आता है और इन तीनों का ही अंकन चित्त में अंकित है ।उस अंकन के अनुसार उसे नई देह प्राप्त करनी होगी, इसलिए वह जर्जर हुए शरीर को छोड़ने से पूर्व चित्त को अपने साथ ले जाती है।आत्मा कौन है ? हम जिसको 'मैं' कहते हैं वही आत्मा है अर्थात हम स्वयं आत्मा हैं। परंतु मनुष्य देह पाकर उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेने के कारण हम इस शरीर को ही 'मैं" होना मान लेते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, January 29, 2019

पुनर्जन्म-13

पुनर्जन्म-13
भावन(Emotions) और उनका अंकन (Record)-
       मन अपने अनुसार मस्तिष्क से प्राप्त अवगम को समझता है और संवेदन के रूप में उस ज्ञान को व्यक्त कर देता है। कुछ संवेदन मन को रुचिकर लगते हैं और कुछ अरुचिकर।दोनों ही प्रकार के संवेदन भावन के रूप में मन प्रकट करता है।रुचिकर संवेदन के संवेद का ज्ञान मस्तिष्क के माध्यम से मन बार बार प्राप्त करना चाहता है और अरुचिकर संवेद के ज्ञान को मन ठुकराना चाहता है।यह ऐसी स्थिति है, जब कामनाओं का जन्म होता है । कामना के कारण मन कर्मेन्द्रियों से कर्म करवाता है।कामना पूरी हो गई तो उस कर्म के प्रति आसक्ति और कर्मफल में ममता पैदा हो जाती है। नहीं पूरी हुई तो क्रोध, फिर राग-द्वेष आदि विकार उत्पन्न हो जाते हैं। अहंता और ममता की जनक भी कामनाएं हैं।
      मनुष्य के साथ सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि ज्ञान के प्रस्तुतिकरण का निर्णय मन करता है, बुद्धि नहीं । यह ज्ञान का प्रस्तुतिकरण मन भावन (emotions) के रूप में करता है।बुद्धि अगर मन पर प्रभावी हुई तो बात अलग है।बहुधा तो मन ही बुद्धि पर भारी पड़ता है क्योंकि हम कई निर्णय बुद्धि अर्थात मस्तिष्क  से न कर हृदय(मन) से करते हैं।इसीलिए भावना का सम्बन्ध मस्तिष्क से न होकर हृदय से होता है। ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर व्यक्ति की बुद्धि निश्चयात्मक होनी आवश्यक है,नहीं तो मन प्रभावी हो जाएगा।भावन से ही भावना शब्द बना है।गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
जिन्ह कें रही भावना जैसी।प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।   
 ।।श्री रामचरितमानस-1/241/4।।
अर्थात जिसकी भावना जैसी थी, प्रभु राम को लोगों ने उसी रूप में देखा। सीता स्वयम्बर के समय राजा जनक की सभा में बैठे राम को उनमें सुकोमल राजकुमार दिखाई दिए, असुरों को काल के समान,राजा जनक को निकट प्रिय संबंधी और योगियों  को साक्षात सच्चिदानन्द परम ब्रह्म।इसीलिए कहा जाता है कि मन में भावना को शुद्ध रखें तभी आपको परमात्मा के दर्शन होंगे अन्यथा वे भी एक साधारण व्यक्ति की तरह ही नज़र आएँगे।इस भावन के अनुरूप ही हमारी सभी कामनाएं,कर्म और ममता,आसक्तियां आदि चित्त में गुप्त रूप से अंकित होती रहती है।यह अंकन स्मृति के रूप में और चित्र की तरह अंकित होते हैं।देह छोड़ते समय व्यक्ति को उपरोक्त सभी अंकन चलचित्र की भांति दिखलाई पड़ते हैं।यही कारण है कि देह छोड़ने से पूर्व व्यक्ति टकटकी लगाकर एक ओर देखता रहता है और उन स्मृतियों के बारे में कुछ बुदबुदाता भी रहता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, January 28, 2019

पुनर्जन्म-12

पुनर्जन्म-12
आत्मा का ही विस्तार है,चित्त(मन)।मन की उपस्थिति के कारण ही हम मनुष्य कहलाते हैं। चित्त(मन का भाग) केवल पूर्वजन्म के अंकित कर्मों के आधार पर कर्मेन्द्रियों के माध्यम से केवल नाम मात्र के कर्म करवा कर हमें उसका फल उपलब्ध करवा सकता है लेकिन स्वयं अपनी रूचि से नए कर्म नहीं करवा सकता जबकि मन अपनी रूचि के अनुसार कर्मेन्द्रियों से कर्म करवा सकता है। शेष सभी जीवों में केवल चित्त की ही उपस्थिति रहती है मन की नहीं।इसीलिए उनको पशु कहा जाता है क्योंकि वे केवल पूर्व मानव जीवन के कर्मों को भोगने के लिए विवश हैं, कर्मों की पाश मनुष्य से अगले जन्म में उसे पशु बना देती है।मन के न होने के कारण कोई भी पशु अपने मन की नहीं कर सकता यानी अपनी रूचि अनुसार कोई भी पशु नए कर्म नहीं कर सकता।
      चित और चित्त, इन दो शब्दों का अर्थ सही रूप से समझें।वैसे चित (आत्मा) ही जब चित्त को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है तब वह स्वयं को ही शरीर होना मानने लगता है और सभी कर्मों के फलों का कर्ता व भोक्ता बन बैठता है।जिस दिन चित्त से चित अपने आपको मुक्त कर लेता है, उसी दिन वह भी सच्चिदानंद स्वरूप हो जाता है।अंतःकरण में मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त सम्मिलित हैं। मन कहो अथवा चित्त दोनों एक ही बात है परंतु चित (आत्मा) और चित्त(मन) दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं।
      यहां तक पहुंच कर मन की दादागिरी तो स्पष्ट हो जाती है।परंतु उसे दादागिरी करने का अवसर कौन प्रदान करता है, चित अर्थात आत्मा ही न। तो फिर पुनर्जन्म का दोष मन का नहीं हुआ, आत्मा का हुआ। हाँ, हम अब पहुंचे हैं सही उत्तर पर, पुनर्जन्म की मूल तक। ओहो, तो सारे झगड़े की जड़ यह आत्मा अर्थात हम स्वयं ही है जो मन के साथ तादात्म्य स्थापित कर जीवन भर  मन और इंद्रियों के माध्यम से भोग प्राप्त करते रहते है। इस प्रकार यह जीवात्मा ही कर्मों की भी कर्ता हुई और कर्मफल की भोक्ता भी और इतने दिनों तक हम सारा दोष मन और इंद्रियों पर मढ़ रहे थे।फिर तो अगर हमें इस संसार के आवागमन चक्र से मुक्त होना है तो जीवात्मा को नियंत्रण में करना ही होगा।परंतु जीवात्मा को नियंत्रण में करेगा कौन? अरे,हम स्वयं ही तो जीवात्मा हैं। हम सत हैं परंतु जन्म के साथ ही सत का साथ छोड़ असत प्रकृति की गोद में आ बैठे हैं।कहने का अर्थ है कि इस शरीर में स्थित मन, बुद्धि,चित्त और अहंकार आदि सभी असत तत्वों के सर्वोच्च शिखर पर सत आत्मा के रूप में हम स्वयं बैठे हुए हैं और हमें इसका तनिक भी ज्ञान नहीं है । अगर हम अपने मूल स्वरूप को पहचान कर अपने स्वभाव में स्थित हो जाएंगे तो ये सभी असत तत्व हमारा कुछ भी न बिगड़ पाएंगे।
     विवेचन के इस मोड़ पर आकर हमें अब यह पता करना है कि जीवात्मा में स्थित मन कैसे हमें पुनर्जन्म की ओर ले जाता है ? मन जो चाहता है, करवा सकता है परंतु ऐसा वैसा चाहता ही क्यों है, जो दूसरा शरीर लेने को हमें विवश कर देता है?आइए, यह जानने के लिए आगे बढें।
          हमारी पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ जो संवेद मस्तिष्क को भेजती है,मन उन सबका अवलोकन करता है जैसे कि कोई बच्चा सब खिलौनों का करता है।फिर मन इनमें से किसी रूचिकर और अरुचिकर का चयन करता है।मन के इस चयन को भावन (emotions)कहा जाता है।यह भावन ही मन के दूसरे भाग चित में अंकित होकर पुनर्जन्म का कारण बनते हैं।तो चलें,मन के भावन को समझने !
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, January 27, 2019

पुनर्जन्म-11

पुनर्जन्म-11
      मन के द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान को नकारते हुए कर्मेन्द्रियों तक भी संवेदन के आधार पर संदेश भेजे जाते हैं।जैसे एक जुआरी की आदत है, जुआ खेलने की। घर से पैसे लेकर चलता है, बच्चे की पढ़ाई के लिए पुस्तकें खरीदने और पहुंच जाता है, जुए के अड्डे पर।मस्तिष्क प्रत्यक्ष ज्ञान देने का प्रयास करता है परंतु मन उसके पैरों (पाद कर्मेन्द्रिय) को जुआ घर की ओर ले जाने का संवेदन संदेश प्रेषित कर देती है।इस प्रकार व्यक्ति बुद्धि के आदेश की अवहेलना कर मन की इच्छानुसार जुआ खेलने पहुंच ही जाता है।
मन की इच्छानुसार सभी संदेश मस्तिष्क(बुद्धि) के द्वारा ही भेजे जाते हैं परंतु ये आदेश प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधारित न होकर संवेदन पर आधारित होते हैं।इसी कारण से मन के कार्य का दोष सीधे सीधे बुद्धि के मत्थे मढ़ दिया जाता है और कह दिया जाता है कि अमुक व्यक्ति की तो बुद्धि ही भ्रष्ट हो गयी थी।
      विवेचन के इस मोड़ पर आकर यह स्पष्ट हो जाता है कि न तो ज्ञानेन्द्रियाँ दोषी है और न ही कर्मेन्द्रियाँ। दोषी है तो केवल मन।नहीं, केवल मन ही नहीं मस्तिष्क में स्थित बुद्धि और अहंकार भी इसके लिए जिम्मेदार है। ओहो, तो क्या बुद्धि और अहंकार प्रत्यक्ष ज्ञान को समझने में बाधक है? जटिलता बढ़ती जा रही है,किसको दोष दें पुनर्जन्म की ओर ले जाने का ? अहंकार बुद्धि पर पर पहले से ही प्रभावी है और ऊपर से बुद्धि पर मन भी हावी हो जाए,उसी का तो परिणाम होता है कि अवगम (प्रत्यक्ष ज्ञान)संवेदन में परिवर्तित हो जाता है।अगर बुद्धि मन पर प्रभावी होती तो संवेद प्रत्यक्ष ज्ञान के रूप में ही व्यक्त होता न कि संवेदन के रूप में। तो क्या यह मान लिया जाए कि अगर नियंत्रित करना ही आवश्यक है तो इंद्रियों के राजा मन को और मन के साथ साथ अहं और बुद्धि को भी करना चाहिए।मुझे तो मुख्य रूप से मन को ही नियंत्रित करना उचित जान पड़ता है क्योंकि दसों इन्द्रियां तो केवल अपने राजा के आदेश का ही पालन करती है, बुद्धि और अहंकार उन्हें प्रत्यक्ष रूप से आदेश दे ही नहीं सकते।
      मस्तिष्क शब्द का उपयोग मुख्य रूप से बुद्धि और विवेक के लिए किया जाता है।बुद्धि और विवेक का संचालन मस्तिष्क के माध्यम से ही होता है।हालांकि मन का निवास भी मस्तिष्क में होता है परंतु मन का संचालन हृदय से होता है।यहां एक बात पुनः एक बार और स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि मन के भी दो भाग है,प्रथम भाग जो मानव शरीर में जन्म के समय मां के गर्भ में विकसित होता है और दूसरा भाग जिसमें सभी कर्म,स्मृतियां, कामनाएं,ममता,आसक्तियां आदि का अंकन होता है और देह की मृत्यु पर मन का यही भाग आत्मा के साथ शरीर छोड़ता है और पुनर्जन्म के लिए नए शरीर का चयन करता है। मन के इस भाग को चित्त कहते हैं जबकि आत्मा को चित कहा जाता है अर्थात जिसके कारण जड़ शरीर को चैतन्यता प्राप्त होती है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, January 26, 2019

पुनर्जन्म-10

पुनर्जन्म-10
इस प्रकार परोक्ष रूप से हमारा मन ही प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुभव में हस्तक्षेप करता है।मन केवल उन्हीं संवेद को प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुरूप स्वीकार नहीं करता जिस संवेद को उसने अपने भीतर पहले से ही अंकित कर रखा हो। मन में संवेद का यह अंकन पूर्व मानव जन्म से ही होकर आता है या फिर ज्ञानेंद्रियों से मस्तिष्क के माध्यम से पूर्व में मिले प्रत्यक्ष ज्ञान से होता है। केवल यही दो माध्यम है जिससे मन सही ज्ञान को संवेदन के रूप में अनुभव करता है।परिणाम स्वरूप जो संवेद प्रत्यक्ष ज्ञान के रूप में व्यक्त होना चाहिए वह मन के हस्तक्षेप के कारण संवेदन के रूप में व्यक्त होता है।
       संवेदन का अर्थ है, संवेद की प्रतिक्रिया अर्थात सही ज्ञान को स्वयं के अनुसार  परिवर्तित कर प्रतिक्रिया देना।मस्तिष्क जिस संवेद को बिना मन के हस्तक्षेप के अवगम/प्रत्यक्ष ज्ञान में परिवर्तित कर देता है,वह हमारे शरीर को सही रूप से संचालित करने के लिए आवश्यक है।मन उसमें इसलिए हस्तक्षेप नहीं करता क्योंकि मन को अपनी इच्छाएं पूरी करने ले लिए स्वस्थ शरीर भी चाहिए।मन केवल उन्हीं संवेदो के प्रत्यक्ष ज्ञान को सही रूप से व्यक्त होने में रोड़े डालता है, जो उसकी इच्छाओं की पूर्ति करने में बाधक बनते हों या फिर उन संवेद के प्रत्यक्ष ज्ञान बनने को संवेदन में परिवर्तित करता है,जिससे उसका हित सधता हो।
      पहले मैंने मस्तिष्क द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान में परिवर्तित करने के दो उदाहरण दिए थे,एक पैर में कील चुभने का और एक कड़वे स्वाद वाली वस्तु को थूक देने का।इन दोनों ही प्रत्यक्ष ज्ञान को व्यक्त करने में मन की कोई भूमिका नहीं है।जहां मन की भूमिका बनती है, उसका उदाहरण भी प्रस्तुत है।जैसे किसी व्यक्ति के मन में अपने कानों से आलोचनाएं सुनने का रस अंकित होता है, उसको संतों के प्रवचन नहीं सुहाते।इसी प्रकार किसी व्यक्ति को नशा करने की लत है,शराब का नशा करता है, उसको शराब का स्वाद मस्तिष्क(बुद्धि) तो प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुसार कड़वा बताने का प्रयास करेगा परंतु मन हस्तक्षेप कर उस स्वाद का मधुर संवेदन व्यक्त करेगा क्योंकि मन जानता है कि शराब के सेवन बिना उसे छद्म सुख की अनुभूति नहीं होगी। ये तो हुई ज्ञानेंद्रियों से संबंधित मन का संवेदन, अब कर्मेन्द्रियों को मन क्या कहता है, देखते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, January 25, 2019

पुनर्जन्म-9

पुनर्जन्म -9
संवेदन(Sensation)-
संवेद के जो संकेत मस्तिष्क तक पहुंचते हैं,उनका विश्लेषण मस्तिष्क करता है और उस संवेद का प्रत्यक्ष ज्ञान कराता है। मस्तिष्क संवेद का यह प्रत्यक्ष ज्ञान कराता किसको है? न तो इस ज्ञान का अनुभव इंद्रियों को होता है और न ही इस ज्ञान का अनुभव शरीर को होता है।प्रत्यक्ष ज्ञान का अनुभव सर्वप्रथम मन को होता है क्योंकि बुद्धि के नीचे मन ही है।आत्मा के पास ज्ञानेंद्रियों के संवेदों का प्रत्यक्ष ज्ञान इसलिए नहीं जा सकता क्योंकि इंद्रियों का ज्ञान असत का ज्ञान है और आत्मा सत है।असत का ज्ञान असत की तरफ ही जाएगा सत की ओर नहीं।हाँ, आत्मा जब भौतिक शरीर में प्रवेश कर मन और इंद्रियों को अपनी तरफ आकर्षित कर (मनः षष्ठानिन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।गीता-15/7) उनके साथ संलग्न हो जाती है तब वह असत मन और इन्द्रिय जनित सुख-दुःख को भोगने लगती है।वह भी मन के साथ होकर उसके संवेदन के अनुसार अरुचिकर और रुचिकर में भेद करने लग जाती है।
        सारांश यह है कि आत्मा तक यह ज्ञान केवल मन के माध्यम से ही पहुंच सकता है अन्यथा नहीं और वह भी तब जब आत्मा मन के माध्यम से मिले प्रत्यक्ष ज्ञान का अनुभव करना चाहे।मन आत्मा को प्रत्यक्ष ज्ञान उपलब्ध अवश्य कराता है परंतु वह देता है उस ज्ञान को संवेदन के रूप में।उसी ज्ञान की प्रतिक्रिया को ज्ञानेंद्रियों और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से भौतिक शरीर व्यक्त करता है।मन को अनुभव हुए इस ज्ञान की प्रतिक्रिया को संवेदन (sensation) कहा जाता है।
        इतने विवेचन से दो बातें हमारे समक्ष स्पष्ट रूप से निकल कर आती है।नम्बर एक- शरीर की सुरक्षा के लिए आवश्यक प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रतिक्रिया मस्तिष्क के माध्यम से होती है, जो कि बुद्धि का कार्य है।नम्बर दो- शरीर की सुरक्षा करने के अतिरिक्त जो भी प्रत्यक्ष ज्ञान हो उसकी प्रतिक्रिया मन देता है। इस प्रकार मन में उत्पन्न संवेदन में केवल मन की भूमिका होती है।उसी संवेदन के अनुरूप मन प्रतिक्रिया करता है, मस्तिष्क (बुद्धि)उसमें केवल तभी हस्तक्षेप करती है, जब मन की प्रतिक्रिया अनुचित हो लेकिन बुद्धि केवल उस अनुचित प्रतिक्रिया के  प्रति मन को मात्र चेतावनी ही दे सकती है, स्वयं उस प्रतिक्रिया को परिवर्तित नहीं कर सकती ।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, January 24, 2019

पुनर्जन्म-8

पुनर्जन्म - 8
       एक ओर निराकार (आत्मा) है दूसरी ओर साकार(भौतिक शरीर) है और इन दोनों को जोड़ता है एक तरल(मन)।मन के भी दो भाग हैं, एक जो चैतन्य (आत्मा) के निकट है वह चित्त कहलाता है और दूसरा जो साकार शरीर के निकट होता है वह मन कहलाता है। नए शरीर मे आत्मा चित्त के साथ प्रवेश करती है। चित्त में ही पूर्व मानव जीवन की स्मृतियां अंकित रहती हैं।आत्मा तो मस्तिष्क के neocortex भाग में स्थान ग्रहण कर लेती है और चित्त मस्तिष्क के thalamus नामक भाग में, जोकि इस चित्त का ही एक भौतिक रूप है, में स्थित हो जाता है। चित्त का प्रवेश आत्मा के साथ होता तो मस्तिष्क ही है परंतु फिर उसका क्षेत्र हृदय तक विस्तारित हो जाता है। हृदय में प्रवेश पाकर स्थित हो जाने पर वह मन कहलाने लगता है।वैसे मन और चित्त, दोनों एक ही हैं, केवल देह त्याग के समय ही दोनों में विभाजन होता है।
      निराकार जब साकार के रूप में विस्तारित होता है,तब वह पहले तरल रूप बनता है और फिर ठोस साकार।जिस प्रकार वाष्प से बर्फ में बनने के लिए  पहले उसकी जलीय अवस्था आती है।वाष्प,जल और बर्फ आपस में भिन्न थोड़े ही हैं।इस प्रकार इन तीनों, आत्मा , मन और शरीर में आपस में तात्विक रूप से किसी प्रकार की कोई भिन्नता नहीं है। भिन्नता न होते हुए भी तरल (मन) और ठोस (शरीर) असत है क्योंकि इनमें परिवर्तन होते रहते हैं, इनका विनाश होना निश्चित है।अपरिवर्तनीय, अविनाशी और सत्य तो केवल एक ही है,परमात्मा जिसका अंश है,आत्मा।
      तरल मन ही मस्तिष्क (प्रज्ञा,बुद्धि)को नियंत्रण में ले लेता है और फिर इंद्रियों से अपने अनुसार कार्य लेता है।तरल में तरंगे सर्वाधिक उठती है, इसीलिए मन को चंचल कहा गया है।मन मस्तिष्क की क्रियाओं को अपने अनुसार परिवर्तित कर देता है।जिस संवेद (सम+वेद) का मस्तिष्क प्रत्यक्ष ज्ञान करा सकता है मन उस संवेद अर्थात सही ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान में व्यक्त करने के स्थान पर अपने अनुसार संवेदन (sensation) के रूप में व्यक्त कर देता है। संवेदन सही ज्ञान नहीं रहता बल्कि मन को जो अच्छा लगता है,वह उसी अनुसार ज्ञान को शरीर के माध्यम से परदर्शित कर देता है। मन के बारे में पूर्व की कई श्रृंखलाओं में चर्चा हो चुकी है अतः उसके अधिक विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। अब संवेदन पर थोड़ी जानकारी ले लेते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, January 23, 2019

पुनर्जन्म-7

पुनर्जन्म-7
      ज्ञानेंद्रियों से हम मस्तिष्क तक पहुंचे फिर मस्तिष्क से कर्मेन्द्रियों तक।कर्मेन्द्रियों को कार्य करने का आदेश मस्तिष्क देता है फिर कर्मेन्द्रियाँ क्यों कभी कभी अनुचित कर्म भी कर जाती है?ज्ञानेन्द्रियाँ केवल संवेद के संदेश मस्तिष्क तक पहुंचाने का कार्य करती है, फिर उन पर नियंत्रण करने को क्यों कहा जाता है? इन सबको नियंत्रण करने का कार्य भले मुख्य रूप से मस्तिष्क का ही क्यों न हो, परंतु मस्तिष्क पर जिसका नियंत्रण हो जाता है, उसी की भूमिका इन इंद्रियों के नियंत्रण में हो सकती है। मस्तिष्क में बुद्धि निवास करती है और मस्तिष्क में ही शरीर के जन्म के समय जीवात्मा का प्रवेश होता है। यहां आकर हमें पुनर्जन्म की प्रक्रिया को समझने के लिए विज्ञान के साथ साथ सनातन धर्म शास्त्रों का सहारा भी लेना होगा क्योंकि विज्ञान इससे आगे अभी तक बढ़ नहीं पाया है।
       जीवात्मा का अर्थ है जीव और आत्मा। मन को ही जीव कहा जाता है और आत्मा के विस्तार को मन कहा गया है।आत्मा जब विस्तारित होती है तो सर्वप्रथम महतत्त्व और फिर महतत्त्व से अहंकार उत्पन्न होता है। अहंकार के बाद बुद्धि, मन, इन्द्रियां और इंद्रियों के विषय आदि उत्पन्न हुए हैं।मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार मिलकर अंतःकरण कहलाते हैं। जब संकल्प-विकल्प होते है, सोचा-विचारी होती है, तब उस चेतन वृति को मन कहते हैं।जब कई यादों के संग्रह के रूप में देखा जाता है तो उसे चित्त कहते है।जब निर्णय करना उस चेतन वृति का काम होता है तब उसे बुद्धि की संज्ञा दी जाती है।जब “मैं” भाव के रूप में इसका उपयोग होता तब इसका नाम अहंकार पड़ जाता है।गहरे में देखा जाए तो एक ही चेतन वृति है, स्पंदन है। पर कार्य के आधार पर उसके चार नाम है - मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार।इनको ही जीव कहा जाता है।इसका अर्थ यह हुआ कि जीव और आत्मा एक ही है। अव्यक्त आत्मा को भौतिक शरीर से जोड़ने वाला आत्मा का जो विस्तार है,उसे मन कहा जाता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मन ही आत्मा (चिदाभास/चित) और शरीर को जोड़ने वाली एक मात्र कड़ी है। है भी यह सत्य, क्योंकि मन के साथ आत्मा संलग्न होकर अपने को शरीर के कर्मों का भोक्ता मान लेती है और अपना मूल स्वरूप परमात्मा होना भूल जाती है।
क्रमशः
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, January 22, 2019

पुनर्जन्म-6

पुनर्जन्म-6
      ज्ञानेंद्रियों से जो संवेद का संदेश मस्तिष्क तक पहुंचता है उसका विश्लेषण करने का कार्य इसी स्थान पर होता है। हमारे पूरे शरीर में क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है और प्रतिक्रिया में क्या करना है यह सब मस्तिष्क का कार्य है।संवेद का संदेश जब संवेदी तंत्रिकाओं के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुंचता है तब मस्तिष्क को उस संवेद का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है।उस प्रत्यक्ष ज्ञान को अवगम(perception)भी कहा जाता है।
अवगम अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान (Perception)-
      ज्ञानेंद्रियों से मिले संवेद-संदेश के विश्लेषण करने का कार्य और उसमें संकेत रूप से अंकित ज्ञान को प्रत्यक्ष करने का कार्य मस्तिष्क में नियत किये गए विभिन्न भागों में होता है। जैसे सुनने के संवेद का संदेश  Broca's area से होते हुए auditory area में पहुंचता है, जहां से सुने गए शब्दों का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसी प्रकार दृश्य के संवेद का अवगम optical chaisma से होते हुए मस्तिष्क के पिछले भाग occipetal lobe में जाकर होता है।उस विश्लेषण से संवेद विशेष का सही सही ज्ञान हो जाता है। मस्तिष्क को अगर तत्काल उस संवेद की कोई प्रतिक्रिया देनी होती है तो वह कर्मेन्द्रियों को उसी अनुसार कार्य करने का सीधे आदेश दे सकता है।यह आदेश प्रेरक तंत्रिकाओं (motor nerves) के माध्यम से तत्काल ही कार्य स्थल पर पहुँच कर कार्य सम्पन्न कराते हैं।उदाहरणार्थ जैसे कोई कड़वे स्वाद की वस्तु के संदेश मस्तिष्क को प्राप्त होते हैं तो मस्तिष्क तुरंत उसको थूक डालने के संकेत जीभ तक पहुंचाता है जिससे उस कड़वे स्वाद वाले व्यंजन को तत्काल ही थूक दिया जाता है।इसी प्रकार जब कोई कील पैर में चुभती है तो उस संवेद के संदेश त्वचा मस्तिष्क को पहुंचाती है। मस्तिष्क उसका विश्लेषण कर कील को निकालने का संदेश हाथ तक पहुंचाता है और हाथ उस चुभी हुई  कील को निकाल देता है।
         इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि मस्तिष्क ज्ञानेंद्रियों से मिले संवेद का विश्लेषण कर प्रत्यक्ष ज्ञान कराता है और उसके अनुरूप प्रतिक्रिया के लिए इन्द्रियों को तत्काल आदेश भी देता है। मस्तिष्क का यह कार्य प्रकृति के अनुसार निर्बाध चलता रहता है।मस्तिष्क में ही बुद्धि का निवास है और उसी बुद्धि के अनुसार मस्तिष्क सभी संवेदों का अवगम/प्रत्यक्ष ज्ञान करता है।इतने विवेचन के बाद भी यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि इंद्रियों पर नियंत्रण के लिए ज्ञानेंद्रियों पर भी नियंत्रण करना क्यों आवश्यक है?
क्रमशः
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, January 21, 2019

पुनर्जन्म-5

पुनर्जन्म-5
      ज्ञानेन्द्रियाँ जो भी प्राप्त करती है, उस संवेद को ठीक वैसा ही मस्तिष्क को प्रेषित कर देती है।अतः यह स्पष्ट है कि पांचों ज्ञानेंद्रियों की ज्ञान को परिवर्तित करने में कोई भूमिका नहीं है। वे तो एक पोस्टमैन की भूमिका निभाती है और संवेद को मस्तिष्क को डिलीवर कर देती है।इसलिए केवल ज्ञानेंद्रियों का दमन करन स्वयं के साथ अन्याय करना है, प्रकृति का अपमान करना है।मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूँ कि इंद्रियों के स्वाभाविक कार्य को जबर्दस्ती रोक दिया जाए। उनके प्राकृतिक कार्य को रोकने का अर्थ है स्वयं के शरीर के साथ शत्रुता करना।
       मैंने एक प्रवचनकर्ता से सुना है कि सूरदासजी जन्मांध नहीं थे बल्कि सुंदर स्त्रियों के रूप को देखकर वे विचलित हो जाते थे । उनमें कामभाव आ जाता था और भगवान में उनका मन नहीं लगता था। उनका एकमात्र लक्ष्य परमात्मा का ध्यान करना था जबकि उनका ध्यान ऐसी बातों से भटकने लगा था । कहते हैं कि स्त्रियों के रूप पर दृष्टि जाए ही नहीं, इसलिए उन्होंने अपनी आंखें फोड़ ली।मैं इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि कामभाव का बाह्य दृष्टि से  केवल नाममात्र का ही सम्बन्ध है। दृष्टि गंवा देने से क्या काम-चिंतन बन्द हो जाता है? नहीं, बिल्कुल नहीं, इसके विपरीत काम के प्रति विचार और अधिक तीव्र हो जाते हैं।दृष्टिहीन व्यक्ति में भी कामभाव कम नहीं होता।अतः सूरदासजी जैसे महान संत के बारे में ऐसा कहना उनकी कृष्ण भक्ति का अपमान करना है जो कि प्रेमरस से परिपूर्ण है।
         कहा जाता है कि गांधीजी के तीन बंदर हैं,उनमें एक आंख बंद किये बैठा है,एक कान बन्द किये है और तीसरा मुंह पर हाथ धरे बैठा है।गांधीजी ने कहा था कि बुरा मत देखो,बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो। बुरा सुनना और बुरा देखना, दोनों ही आपके वश में नहीं है क्योंकि क्या बुरा है जिसे देखना और सुनना नहीं है, वह कम से कम एक बार देखे और सुने बिना कैसे जाना जा सकता है ? हाँ, बुरा कहना हमारे नियंत्रण में अवश्य है क्योंकि कहना ज्ञानेंद्रियों का कार्य नहीं है, वह कर्मेन्द्रिय का कार्य है।
इतने चिंतन से स्पष्ट है कि ज्ञानेंद्रियों को अपना स्वाभाविक धर्म निभाने देना चाहिए।अगर ऐसा ही सत्य है तो फिर ज्ञानीजन बार-बार क्यों कहते हैं कि इन्द्रियों का दमन करो,उनको नियंत्रण में रखो। लो, आज भी यह प्रश्न फिर अनुत्तरित रह गया। ज्ञानेंद्रियों के स्तर पर तो कोई दोष मिला नहीं जो कह सके कि इन इंद्रियों का दमन करो। मस्तिष्क तक संवेद के संदेश पहुंचने के बाद क्या होता है ? जान लेने के बाद शायद इस पश्न का उत्तर मिल जाये।तो आइए, संवेद के संदेश के साथ मनुष्य के मस्तिष्क के भीतर तक पहुंचने और अपनी जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास करते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, January 20, 2019

पुनर्जन्म-4

पुनर्जन्म -4
संवेद(sense)-
        वेदना, संवेदना को जान लेने के बाद हम आते हैं, संवेद पर।संवेद का अर्थ है,सम+वेद अर्थात समान ज्ञान अथवा सही ज्ञान।संवेद का एक पर्यायवाची है, इन्द्रिय-बोध।हमारे शरीर में 11 इन्द्रियां है जिनमें पांच तो ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच ही कर्मेन्द्रियाँ और इन दसों का मालिक है, मन जो कि इन इंद्रियों से कार्य लेता है।हमारी पांच ज्ञानेंद्रियों का कार्य है, संवेद अर्थात सही ज्ञान कराना।ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं-कान,त्वचा,जिह्वा,नेत्र और नाक।प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय के कार्य से आप भली भांति परिचित हैं ही।व्यक्तिगत स्तर पर इंद्रियों का एक ही कार्य है, जो जैसा है उसको वैसे का वैसा ही मस्तिष्क (Brain)तक पहुंचा देना।
      ज्ञानेन्द्रियाँ में  संवेदक (sensory neurones) होते हैं । ज्ञानेन्द्रिय के संपर्क में जो भी जैसा आयेगा उसे ग्रहण करती है, संवेदक उससे संवेद का निर्माण करते हैं और फिर उस संवेद को संवेदी तंत्रिकाओं (Sensory nerves)के माध्यम से मस्तिष्क तक जस का तस पहुंचा देती है।जैसे अभी शीत लहर (Cold wave) का मौसम है, शीत लहर जब त्वचा के संपर्क में आती है तब त्वचा उसका आकलन(Analysis) कर संवेद (sense)का निर्माण करती है और उस संवेद का संदेश (message)संवेदी तंत्रिकाओं के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुंचा देती है।इसी प्रकार कान सुने हुए,नाक गंध के,नेत्र दृश्य के और जीभ स्वाद के संवेद को जस का तस (as it is) मस्तिष्क को प्रेषित कर देती है। शब्द,स्पर्श,रूप,रस और गंध इन इंद्रियों के विषय कहलाते हैं।हमारी ज्ञानेंद्रियों का बस इतना सा ही कार्य है कि जो जैसा है उसका वैसा ही संदेश हमारे मस्तिष्क तक पहुंचा देना।
         अब यहां आकर प्रश्न उठता है कि जब ज्ञानेन्द्रियाँ संवेद को जस का तस मस्तिष्क तक पहुंचा देती है,तो फिर ज्ञानीजन इंद्रियों पर नियंत्रण (control) स्थापित करने का क्यों कहते हैं?उचित है इस प्रश्न का उठना।प्रथम दृष्टि से देखें तो इन ज्ञानेंद्रियों का कहीं कोई दोष प्रतीत नहीं हो रहा है।नेत्र का कार्य है देखना,वह तो दृश्य जो सामने है उसे देखेगी ही, इसमें भला नेत्रों का क्या दोष?नाक तक गंध जैसी पहुंचेगी,वह उसको सूंघना ही पड़ेगा,इसमें भला नाक का क्या दोष?कान में ध्वनि तरंगे पहुंचेगी,तो कान को उन्हें सुनना ही होगा, भला इसमें कानों की क्या गलती?त्वचा के संपर्क में जो भी आएगा,उसके संवेद को ग्रहण करना उसका कार्य है,उसको वह कार्य करना ही है,इसमें बेचारी त्वचा की क्या त्रुटि?इसी प्रकार जीभ पर जब कोई पदार्थ रखा जाएगा,उसे तो सही रूप से उसके स्वाद को बताना ही पड़ेगा,इसमें जीभ भला कहाँ से गलत हुई? जब किसी ज्ञानेन्द्रिय का कोई दोष नहीं है तो फिर उन पर नियंत्रण क्यों करना ?प्रश्न अभी आज तो अनुत्तरित रहा है। चिंतन चल रहा है,कल देखते हैं, क्या होता है ?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरि:शरणम्।।

Saturday, January 19, 2019

पुनर्जन्म-3

पुनर्जन्म -3
   11इंद्रियों में मन सबका राजा है।मन को राजा बताने का अर्थ है कि शेष सब इंद्रियां राजा के आदेशानुसार आचरण करती है।पांच कर्मेन्द्रियों के बारे में तो यह बात सत्य हो सकती है परंतु पांच ज्ञानेंद्रियों के बारे में ऐसा कहना उचित नहीं जान पड़ता।कर्मेन्द्रियाँ(हाथ,पांव,जीभ/वाक, पायु और उपस्थ) तो मन के अनुसार कार्य कर सकती है क्योंकि उनको कर्म करने का आदेश ही मन से मिलता है परंतु ज्ञानेंद्रियों का स्थान तो मन से पहले है, उन पर मन का आदेश प्रभावी कैसे हो सकता है?यहां आकर आपको अनुभव हो सकता है कि मैं लीक से हटकर कुछ कह रहा हूँ।हाँ, थोड़ा सा परम्परागत कथन से मेरा कथन भिन्न अवश्य है परंतु विपरीत नहीं है।ज्ञानेन्द्रियाँ (कान,त्वचा,नेत्र, जिह्वा और नाक) अपने प्राकृतिक कार्य करने को स्वतंत्र है, उनके कार्य में मन की कोई भूमिका नहीं है।इसलिए हम सर्वप्रथम ज्ञानेंद्रियों के बारे में चर्चा करते हैं।ज्ञानेंद्रियों का कार्य है-संवेद (sense) के सन्देश को मस्तिष्क तक प्रेषित करना।संवेद के संदेश को मस्तिष्क तक भेजने में मन की कोई भूमिका नहीं है अतः कहा जा सकता है कि ज्ञानेन्द्रियाँ स्वतंत्र है, अपना कार्य करने में।
        आज हम कलियुग में जी रहे हैं।इस समय धर्म-शास्त्रों में वर्णित ज्ञान का मखौल उड़ाना एक परंपरा सी बनती जा रही है।जो व्यक्ति धर्म ग्रंथों की जितनी अधिक आलोचना करता है, वह उतना ही अधिक आधुनिक समझा जाता है।सनातन धर्मियों के लिए यह चिंतनीय समय है। युवा पीढ़ी ऐसी आलोचनाओं से भ्रमित होती जा रही है।उनको सही मार्ग पर लाने का एकमात्र उपाय है, आधुनिक विज्ञान का सहारा लेते हुए धर्म शास्त्रों में लिखी बातों को सत्य साबित किया जाए। केवल इसी मार्ग से युवाओं को दिग्भ्रमित होने से रोक जा सकता है।यही एक मात्र कारण है, जो मैं सनातन धर्मशास्त्रों का वैज्ञानिक तरीके से विवेचन करता हूँ।वैसे संसार में जितने भी धर्म है उनमें केवल सनातन धर्म ही पूर्णतया एक मात्र वैज्ञानिक धर्म है।हमारे शास्त्रों में लिखी प्रत्येक बात को विज्ञान के आधार पर सिद्ध किया जा सकता है।दूसरे शब्दों में कहूँ तो कह सकता हूँ कि आज के विज्ञान के सभी अन्वेषण हमारे शास्त्रों पर ही आधारित हैं और इन्हीं शास्त्रों से लेकर विज्ञान उन्हीं की नए रूप से प्रस्तुति मात्र है।
     विज्ञान और शास्त्र ज्ञानेंद्रियों में उत्पन्न होने वाले संवेद के बारे में क्या कहते हैं,जानना आवश्यक है।तो आइए सर्वप्रथम संवेद के बारे में जान लेते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, January 18, 2019

पुनर्जन्म-2

पुनर्जन्म-2
        पुनर्जन्म क्यों और कैसे होता है, इस बारे में अध्ययन और चिंतन करने से पता चलता है कि मनुष्य को भौतिक सुख की कामनाएं, उनको प्राप्त करने के मार्ग और विभिन्न प्रकार की आसक्तियां ही पुनर्जन्म के मूल में है।मनुष्य ही वह एकमात्र प्राणी है, जिसको इस भौतिक संसार से सुख चाहिए।सुख प्राप्त करने की कामना ही उसे कर्म करने को विवश करती है।प्रत्येक कर्म का एक फल निश्चित होता है।वह प्रत्येक मनुष्य को भोगना ही पड़ता है।अगर किसी कर्म का फल भोगने से पूर्व शरीर छूट जाता है तो किसी अन्य प्राणी अथवा मनुष्य का शरीर प्राप्त कर इस संसार में आकर पूर्व जन्म के कर्मों का फल भोगना पड़ता है।दूसरा कारण है, अधूरी रही कामनाएं। अगर कोई एक भी कामना मनुष्य देह रहते पूरी नहीं होती तो पुनः नया शरीर लेकर कामनाएं पूरी करने आना ही होगा।तीसरा किसी भी मित्र, पारिवारिक सदस्य अथवा प्रियजन में रही ममता/आसक्ति भी देह त्यागने के पश्चात नई देह के साथ आपको इस संसार में पुनः ले आएगी, जहां आकर आपका उस प्रियजन से मिलन होना संभव होगा। ये तीन मुख्य आधार तैयार करते हैं, मनुष्य को नया शरीर प्राप्त कर पुनर्जन्म लेने के लिए।
         मनुष्य को छोड़ कोई भी अन्य प्राणी ऐसे कर्म करता ही नहीं है जो उसे नया शरीर मिले।वह तो केवल पूर्व मानव जीवन के कर्मफलों और आसक्तियों को भोगने के लिए ही अन्य प्राणी के शरीर में व्यक्त हुआ है।महाराजा भरत जंगल में रहकर तपस्या करने लगे थे।शरीर की मृत्यु होने का दिन आने से पूर्व एक मृग छौने में उनकी आसक्ति हो गई थी।उस आसक्ति के चलते भरत को उस जीवन की तपस्या का लाभ तत्काल नहीं मिल सका और देह त्याग के बाद उन्हें मृग की देह मिली।
        अतः यह स्पष्ट है कि कर्म,कामनाएं और आसक्ति मनुष्य जीवन में शेष रह जाते हैं, तो नया जन्म होना निश्चित है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए हमारे ऋषि मुनियों ने अन्वेषण कर पुनर्जन्म की प्रक्रिया को शास्त्रों में वर्णित किया है।सभी ने एक स्वर में इंद्रियों को ही मुख्य रूप से जिम्मेदार माना है।इन्द्रियां 11 हैं, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ,पांच कर्मेन्द्रियाँ और एक मन। मन 10 इंद्रियों का नेता है।इन 11 इंद्रियों में मुख्य रूप से मन को ही पुनर्जन्म के लिए उत्तरदायी माना गया है। अब यह देखना है कि 10 इंद्रियों के कार्यों के लिए मन  कैसे जिम्मेदार है?इस प्रक्रिया को समझने से हमें किसको और कैसे नियंत्रण में रखना चाहिए, समझ में आ जायेगा।
कबीर ने पुनर्जन्म के बारे में बड़ा सुंदर कहा है-
मन मरा न ममता मरी,मर मर गए शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर ।।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरि:शरणम्।।

Thursday, January 17, 2019

पुनर्जन्म-1

पुनर्जन्म-1
     पुनर्जन्म शब्द (पुनः+जन्म)में पुनः का अर्थ है फिर से और जन्म का अर्थ है, नए शरीर को प्राप्त कर इस संसार  में जन्म लेना।इस संसार में भौतिक रूप से आने का अर्थात अव्यक्त से व्यक्त होने का केवल एक ही मार्ग है, वह है शरीर प्राप्त कर जन्म लेना। अतः पुनर्जन्म का अर्थ हुआ - पुराना जर्जर त्याग देने के उपरांत नये शरीर के साथ उसी भौतिक संसार में पुनरागमन।कहने का अर्थ है कि हम तो वही रहते हैं परन्तु हमारा शरीर बदल जाता है।
        इस संसार में प्रत्येक प्राणी को अपना पुराना अथवा जर्जर हुआ शरीर त्यागना ही पड़ता है और नए शरीर की प्राप्ति होने तक अव्यक्त रूप से अंतरिक्ष में इंतज़ार करना पड़ता है।अन्य प्राणियों को तो देह त्याग के पश्चात ही दूसरा शरीर मिल जाता है परंतु मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है।मनुष्य की देह त्याग के बाद तीन में से किसी एक प्रकार का व्यवहार हो सकता है।प्रथम मोक्ष अर्थात आवागमन से मुक्ति,द्वितीय किसी नए शरीर का मिलना और पुनः संसार में व्यक्त हो जाना और तीसरा अव्यक्त  रहना।अव्यक्त रहने में भी तीन अवस्थाएं होती हैं-स्वर्ग आदि उच्च लोकों में चले जाना , प्रेत योनि भोगना अथवा पितृ योनि में रहना।तीनों ही अवस्थाओं में कुछ समय बिताकर पुनः नया शरीर प्राप्त कर संसार में भौतिक रूप से व्यक्त होना होता है।
      शारीरिक मृत्यु के बाद होने वाले प्रथम व तृतीय इन दो व्यवहारों के बारे में मेरा कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं है, पढ़ा अवश्य है।अतः उनपर साधिकार कोई टिप्पणी नहीं करूंगा।परन्तु पुनर्जन्म के बारे में मेरा निजी अनुभव है, इसलिए मैं इस पर कोई विचार अधिकार सहित रख सकता हूँ।अगर पुनर्जन्म को सिद्ध किया जा सकता है तो फिर मोक्ष और स्वर्गादि की कल्पनाएं भी सिद्ध हुई समझी जा सकती है क्योंकि जिन शास्त्रों में पुनर्जन्म का वर्णन किया गया है, उनमें मोक्ष और स्वर्गादि लोकों का भी वर्णन है।यह हमारे विश्वास और श्रद्धा पर निर्भर करता है कि हम किसको सत्य मानें और किसे नहीं।
क्रमशः
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, January 16, 2019

पुनर्जन्म क्यों और कैसे ?

पुनर्जन्म क्यों और कैसे?
       गत दो दिनों से वेदना और उस वेदना को दूर करने के लिए प्रकट की जाने वाली संवेदना पर हमने चर्चा की।इन दो दिनों में पाठकों से कई प्रतिक्रियाएं मिली है। वे जानना चाहते हैं कि हिंदी के शब्दों की व्याख्या करने का साहित्यिक आधार क्या है ? मैं बड़ी विनम्रता से बताना चाहता हूँ कि अध्ययन की अवधि में साहित्य मेरा विषय रहा ही नहीं । दिन में जब किसी विषय पर चिंतन प्रारम्भ हो जाता है, तब स्वयं के भीतर से शब्दों की व्याख्या स्वतः ही प्रकट होती रहती है।मैं नहीं जानता कि यह व्याख्या साहित्यिक रूप से सही है, अथवा नहीं।दो दिन बाद जब आचार्यजी के पास आश्रम में रहूँगा तब उनसे पूछूंगा, वे हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर हैं।
       दो भाइयों ने वेदना और पुनर्जन्म के आपस में संबंध के बारे में पूछा है।पुनर्जन्म विषय पर मेरा चिंतन सदैव चलता रहता है क्योंकि यह मेरा प्रिय विषय भी है और आध्यत्मिक जीवन में लाने का श्रेय भी इस विषय को है। वेदना का पुनर्जन्म से गहरा नाता है।हालांकि वेदना पर मकर सक्रांति के अवसर पर लिखने का मेरा  उद्देश्य भिन्न था।उस दिन मैंने वेदना पर लिखते समय नहीं सोचा था कि वह विषय एक नई श्रृंखला को प्रारम्भ करने का आधार बन जायेगा। वेदना का पुनर्जन्म के साथ सम्बन्ध को केवल थोड़े से शब्दों के माध्यम से बताना मुश्किल है।अतः कल से एक छोटी सी श्रृंखला प्रारम्भ कर रहा हूँ, मैं समझता हूँ कि इससे आपको वेदना और पुनर्जन्म का संबंध स्पष्ट हो जाएगा।
    देखा जाए तो सब उस परमेश्वर की माया का खेल है, जिसने हमें वेदना,संवेदना और पुनर्जन्म में उलझा रखा है। किसी विषय पर लिखने और पढ़ने का एक ही उद्देश्य होना चाहिए कि इन सभी उलझनों से मुक्त कैसे हुआ जाय?मुक्त होने के लिए ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि आज के आधुनिक विज्ञान के युग में  ज्ञान ही परमात्मा की भक्ति का आधार बन सकता है अन्यथा लोग भक्ति के नाम पर विभिन्न आडंबरों में ही उलझते जा रहे हैं।इन उलझनों से निकलने के लिए शायद यह श्रृंखला कुछ सहयोग करेगी। इसी आशा के साथ, कल से "पुनर्जन्म क्यों और कैसे?" विषय पर चर्चा करेंगे ।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरि:शरणम्।।

Tuesday, January 15, 2019

संवेदना

संवेदना-
कल हमने वेदना पर बात की। जो अज्ञान से उपजे,वह वेदना।अतः अज्ञान की ओर नहीं, ज्ञान की ओर चलें-तमसो मा ज्योतिर्गमय। जिसको वेदना है अर्थात जो पीड़ा भुगत रहा है, उसे ज्ञान होना तत्काल ही संभव नहीं है, ऐसे में उसे ज्ञान की ओर कौन और कैसे ले जाए?उसके लिए यह कार्य करते हैं,निकट संबंधी,मित्र और गुरु।वेदना को कम करते करते ही मिटाया जा सकता है, तुरंत नहीं क्योंकि अज्ञान की जड़ें इतनी अधिक गहराई तक होती है कि ज्ञान का प्रकाश उस तक तत्काल नहीं पहुंच सकता।जिस प्रकार जहरीले पौधे को जड़ सहित उखाड़ कर सूर्य का प्रकाश दिखा दिया जाए तो वह नष्ट हो जाता है उसी प्रकार अज्ञान को मूल सहित नष्ट करने के लिए ज्ञान का प्रकाश आवश्यक है।
         मित्र, निकट सम्बन्धी और गुरु को वेदनाग्रस्त व्यक्ति के पास जाकर संवेदना प्रकट करते हैं। उसका उद्देश्य यही होता जिससे उस से मानसिक सम्बल मिल  सके।संवेदना का अर्थ है, सम+वेदना अर्थात समान वेदना। संवेदना प्रकट करने का अर्थ है, सामने वाले की वेदना को अपनी वेदना समझना।संवेदना केवल वेदना को समझना ही नहीं है क्योंकि ऐसा समझना आपके अज्ञान को ही प्रदर्शित करना है।संवेदना प्रकट करने का मंतव्य है, वेदना ग्रस्त व्यक्ति को वेदना से बाहर लाना।इसके लिए उसे ज्ञान का प्रकाश देना आवश्यक होता है जिसके लिए पर्याप्त धैर्य और समय की आवश्यकता होती है।ज्ञान देने के लिए आवश्यक है कि उसकी वेदना को हम अपनी वेदना समझे और फिर आगे बढ़ते हुए उसे जीवन की वास्तविकता का ज्ञान कराएं । गुरु भी अपने शिष्य को ज्ञान देते हुए यही तो करता है। गुरु सर्वप्रथम शिष्य के अज्ञान के स्तर पर जाकर उसको जांचता परखता है और फिर स्वयं उस स्तर से आगे बढ़कर ज्ञान प्रदान करने की यात्रा प्रारम्भ करता है। संवेदना प्रकट कर वेदना मुक्त करने में यही तरीका अपनाना पड़ता है परंतु आजकल संवेदना प्रकट करना मात्र औपचारिकता बन कर रह गया है। इसलिए संवेदना का सही अर्थ समझना आवश्यक है जिससे हम पीड़ित व्यक्ति को वेदना मुक्त कर सकें।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, January 14, 2019

वेदना

वेदना
मनुष्य के जीवन में विभिन्न उतार चढ़ाव आते रहते है। इन्हीं उतार चढ़ाव को हम सुख दुःख का नाम दे देते हैं।वास्तव में देखा जाए तो सुख दुःख नाम का कोई अनुभव होता ही नहीं है।सुख दुःख हमारी मानसिक स्थिति को व्यक्त करते हैं।किसी व्यक्ति का सुख आपका दुःख का कारण बन सकता है और इसका विपरीत भी हो सकता है। सुख का हम अपने जीवन में स्वागत करते हैं और दुःख के नाम से ही हम भयग्रस्त हो जाते हैं।
       सुख तो सुख है, मिलने पर स्वागत करते है परंतु दुःख को तो हम स्वयं आमंत्रित करते हैं।दुःख का अर्थ है पीड़ा ।दुःख मिलने से हम अपने आपको पीड़ित समझते हैं।पीड़ा दो प्रकार की है, शारीरिक और मानसिक।मानस में दुःख के तीन प्रकार बताए हैं-दैहिक,दैविक और भौतिक। वैसे दैहिक और भौतिक शरीर के दुःख हैं और दैविक मानसिक दुःख है। वैसे सुख-दुःख दोनों ही हमारे पूर्व मानव जन्म के कर्मों के फल हैं परंतु इस जन्म में समता का आचरण कर दुःख के प्रभाव को कम कर सकते हैं।
शारीरिक दुःख को पीड़ा कहा जाता है जिसको सहन किया जा सकता है।समय पाकर यह पीड़ा ठीक भी हो जाती है परंतु मानसिक दुःख का समय पाकर भी ठीक होना मुश्किल है क्योंकि हमारा अज्ञान इस पीड़ा से हमें मुक्त होने ही नहीं देता।मानसिक दुःख को वेदना भी कहा जाता है।वेदना का अर्थ है,वेद(ज्ञान) को नकारना अर्थात अज्ञान। कहने का अर्थ है कि दुःख अज्ञान से पैदा होता है।
संसार का सबसे बड़ा दुःख क्या है जिससे व्यक्ति जीवन भर बाहर निकल नहीं पाता? वह दुःख है, अपने प्रिय व्यक्ति से विछोह।आज त्यौहार के दिन ऐसे दुःख का मिलना रह रह कर वेदना देता है। इस दुःख का दिल और दिमाग से निकलना संभव नहीं है क्योंकि यह दुःख हमारे अज्ञान की उपज है। आज तो दो वर्ष हुए हैं, कल बीस वर्ष भी हो जाएंगे और इसी प्रकार हम कभी भी वेदना के बियावान से निकल ही नहीं पाएंगे। हो सकता है इसी पीड़ा को झेलने के लिए भी कई जन्म लेने पड़ें।यह दुःख केवल ज्ञान मिलने से ही दूर हो सकता है।वेद (ज्ञान) ही इस वेदना से हमें मुक्त कर सकता है।मृत्यु शाश्वत सत्य है, यह ज्ञान है। जाने वाला लौटकर उसी रूप में फिर कभी भी नहीं आने वाला।केवल इस ज्ञान को स्वीकार कर लेना ही हमारे दुःख को दूर कर सकता है। ज्ञान हमें मानसिक संबल प्रदान करता है। परमात्मा ऐसे वेदनाग्रस्त प्रत्येक परिवार को ज्ञान से परिपूर्ण कर दे और वेदना मुक्त कर दे।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
आप सभी को मकर सक्रांति की शुभकामनाएं।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, January 13, 2019

कुछ गंभीर प्रश्न....

कुछ गंभीर प्रश्न--
चिन्तन अवश्य कीजियेगा.......
क्या हम बिल्डर्स, इंटीरियर डिजाइनर्स,केटरर्स और डेकोरेटर्स के लिए कमा रहे हैं ?
हम बड़े-बड़े क़ीमती मकानों और बेहद खर्चीली शादियों से किसे इम्प्रेस करना चाहते हैं ?
क्या आपको याद है कि, दो दिन पहले किसी की शादी पर आपने क्या खाया था ?
जीवन के प्रारंभिक वर्षों में, क्यों हम पशुओं की तरह काम में जुते रहते हैं ?
कितनी पीढ़ियों के,खान पान और लालन पालन की व्यवस्था करनी है हमें ?
हम में से अधिकाँश लोगों के दो अथवा तीन बच्चे हैं। बहुतों का तो सिर्फ एक ही बच्चा है। "हमारी जरूरत कितनी हैं और हम पाना कितना चाहते हैं"?
क्या हमारी अगली पीढ़ी कमाने में सक्षम नहीं है जो, हम उनके लिए ज्यादा से ज्यादा सेविंग कर देना चाहते हैं ?
हम कमाने के साथ साथ आनंद भी क्यों नहीं प्राप्त कर सकते ?
क्या आप अपनी मासिक आय का 5% अपने आनंद के लिए, अपनी ख़ुशी के लिए खर्च करते हैं ?
क्या हम प्रतिदिन स्वयं के आनंद के लिए कुछ समय निकाल नहीं सकते?
क्यों थोड़ा समय निकालकर हम उस परम पिता परमात्मा का आभार व्यक्त नहीं कर सकते जिसने हमें  मनुष्य जीवन दिया है?
सामान्यतः सब प्रश्नों के जवाब नहीं में ही मिलते हैं। समय का अभाव है, प्रायः एक मात्र यही बहाना हम सबके पास है।
इससे पहले कि आप स्लिप डिस्क का शिकार हो जाएँ, इससे पहले कि कोलोस्ट्रोल आपके हार्ट को ब्लॉक कर दे,आनंद प्राप्ति के लिए कुछ समय निकालिए । हम किसी प्रॉपर्टी के मालिक नहीं होते, सिर्फ कुछ कागजातों, कुछ दस्तावेजों पर अस्थाई रूप से हमारा नाम लिखा होता है।
        ईश्वर भी व्यंग्यात्मक रूप से हँसेगा जब कोई उसे कहेगा कि "मैं जमीन के इस टुकड़े का मालिक हूँ। "
किसी के बारे में, उसके शानदार कपड़े और बढ़िया कार देखकर, राय कायम मत कीजिए।धनवान होना कहीं से भी गलत नहीं है ,बल्कि......."सिर्फ धनवान होना गलत है"
आइए ज़िंदगी के सही उद्देश्य को पकड़ें, इससे पहले कि मृत्यु हमें अपने आगोश में ले ले...। मनुष्य का जीवन बार बार नहीं मिलना है। अपने जीवन का उद्देश्य जानें।परमात्मा को जानना है तो एक ही रास्ता है-स्वयं को जानना होगा।स्वयं को जानते ही जो आनंद की अनुभूति होगी, वह अरबों रुपयों के ढेर पर बैठकर, रत्न जड़ित स्वर्ण मुकुट पहनकर और आलीशान बंगले में भी रहने से नहीं होगी।परमात्मा सबको भोजन, कपड़ा और मकान देता है, आप तो व्यर्थ में ही इन सब को पाने के लिए चिंतित हैं। पाना है तो परमात्मा को पा लो, व्यर्थ की चीजों को पाकर भी उनको यहीं छोड़कर एक दिन चले जाना है।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, January 12, 2019

सहज स्वाभाविक जीवन

स्वर्गाश्रम,ऋषिकेश(उत्तराखंड)में काली कमली वालों के ट्रस्ट का एक भवन है,वानप्रस्थ आश्रम।उसके परिसर में छोटे छोटे पट्ट लगे हुए हैं, उनमें से प्रत्येक पर कुछ सद् वाक्य लिखे हुए हैं। जब आप उस आश्रम के परिसर में टहलते है, तब उन सद् वाक्यों पर दृष्टि चली ही जाती है। उनमें से एक पट्ट पर एक वाक्य लिखा हुआ है, जो आपके साथ साझा करना चाहूंगा।वह वाक्य है-"हम अपने जीवन काल में अपनी आधी ऊर्जा  जो हम नहीं है,उसको दिखाने में और शेष आधी ऊर्जा जो हम हैं,उसको छिपाने में लगा देते हैं।"
    आज धनवान गरीब होने का नाटक कर रहा है,हम सब विवाह समारोह में दिखावा कर रहे हैं, जो कुछ पास में है उससे अधिक दिखा रहे हैं, बालों में खिजाब लगाकर बुढापा छुपा रहे हैं, पार्षद तक को न जानने वाले मुख्यमंत्री से अपने अंतरंग सम्बंध होना बता रहे हैं आदि ऐसे अनेकों काल्पनिक बातें हम प्रतिदिन कर रहे हैं। जिनके कंधों पर सनातन संस्कृति के प्रचार प्रसार की जिम्मेवारी है, वे प्रवचन में तो बड़ी बड़ी बातें कहते हैं और व्यास पीठ छोड़ते ही उन बातों के विपरीत आचरण करते हैं।ऐसे में युवा पीढ़ी में संस्कार कहाँ से आएंगे ?सत्य तो यह है कि हमने अपनी वास्तविक दुनियां के स्थान पर एक आभासी संसार का निर्माण कर लिया है जिसमें कहीं पर भी सत्य नज़र नहीं आ रहा है।
       कहने का अर्थ है कि हम अपने जीवन को सहज होकर अपने स्वाभाविक रूप से जी नहीं पा रहे हैं। जब तक जीवन में सहजता नहीं आएगी तब तक संसार के जाल से मुक्त हो जाने की कल्पना भी नहीं कर सकते। संसार से मुक्त होना ही वास्तविकता में मुक्ति है।इसलिए जीवन को सहज रहकर अपने स्वभावानुसार जीना चाहिए।परमात्मा ने हमें जो शरीर दिया है, हमारे पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार ही दिया है। मिले हुए उस शरीर का हमें सहज रहकर सदुपयोग करना चाहिए।
       अब्राहम लिंकन को एक बार किसी समारोह में भाग लेने जाना था। उनके सचिव ने कहा कि आप कपड़े बदल लीजिए, फिर कार्यक्रम में चलते हैं।लिंकन ने कहा-"क्यों, इन कपड़ों में क्या कमी है? जो मुझे जानते हैं, उनके लिए मेरा महत्व है पहने हुए कपड़ों का नहीं, वे मुझे इन कपड़ों में ही पहचान जाएंगे। जो मुझे जानते नहीं है,उनके लिए मैं चाहे कपड़े कितने ही अच्छे पहन लूँ, वे मुझे पहचानेंगे नहीं ।अच्छे परिधान से उन पर मेरा कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला।" लिंकन का ऐसा कहना उनके सहज स्वभाव को प्रदर्शित करता है। 
      यह सत्य है कि असहज होकर जीने में आपकी वास्तविक क्षमता खो जाती है और जो छद्म क्षमता दिखलाई पड़ती है, उस पर आप खरे नहीं उतर सकते। इसलिए आप जैसे भी हैं उसी रूप में अपने जीवन को जियें। यही जीवन में सफल होने का मूल मंत्र है।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्। 

Friday, January 11, 2019

मगहर

मगहर-
कहा जाता है कि काशी में जो अपनी देह त्यागता है, उसको मोक्ष प्राप्त होता है । उत्तर प्रदेश में ही काशी से 190 किलोमीटर दूर संत कबीर नगर जिले में एक छोटा सा कस्बा है, मगहर। उसका नाम मगहर क्यों पड़ा ? जब भगवान बुद्ध के शिष्य धर्म प्रचार के लिए निकलते थे,उस समय यहां के लोग उनके साथ दुर्व्यवहार किया करते थे । तब बुद्ध ने कहा था कि इस रास्ते को छोड़ कर दूसरे मार्ग से जाया करो, इस मग को छोड़ दो अर्थात मगहर। इस स्थान के लोग प्राचीन समय में अधर्म के मार्ग पर चलने लगे थे अर्थात उन्होंने परमात्मा के मार्ग पर चलना छोड़ दिया था।इसी कारण से इस स्थान को मगहर कहा जाने लगा होगा।
         मगहर के बारे में किवदंती है कि उस स्थान पर जिसकी मृत्यु होती है वह अगले जन्म में गधा बनता है अथवा नरकगामी होता है।यह अंधविश्वास शताब्दियों से चला आ रहा था। कबीर का जन्म स्थान काशी था। वे जीवन भर समाज और धर्म में बढ़ रहे अंधविश्वास का जमकर विरोध करते रहे थे। मगहर के बारे में प्रचारित अंधविश्वास को तोड़ने के लिए उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय में देह त्यागने के लिए काशी के स्थान पर मगहर को चुना। मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि वे उन्हें काशी से मगहर ले चलें। इस प्रकार उनकी मृत्यु मगहर में ही हुई।आज उस स्थान पर उनकी समाधि भी बनी हुई है और मज़ार भी है।
वे हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदायों में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों पर जीवन भर अपने दोहों के माध्यम से करारी चोट करते रहे। उसी का परिणाम है कि लोगों ने उनकी बातों को गंभीरता से लिया और काफी हद तक कुरीतियों और अंधविश्वासों को त्याग दिया। काशी के बारे में अभी भी इस बात पर विश्वास किया जाता है कि यहां आकर शरीर त्यागने पर मोक्ष प्राप्त होता है परंतु आज मगहर इस अंधविश्वास से पूर्णतया मुक्त हो चुका है।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, January 10, 2019

कबीर कहिन-

कबीर कहिन-
सोलहवीं शताब्दी में एक महान संत हुए थे-कबीर।वे साधारण रूप से बात करते हुए ऐसी बात कह जाते थे कि वह सुनने वाले के भीतर तक तीर की तरह पहुंच जाती थी।उनके जीवन की ऐसी ही एक साधारण सी घटना है ।इस घटना में जो बात कबीर कहते हैं, वह बात सुनने वालों को निःशब्द कर देता है अर्थात उस कथनकी प्रतिक्रिया में सुनने वाले के मुँह से तत्काल एक शब्द तक नहीं निकल सका। आपही पढ़िए, उस साधारण घटना के बारे में।
कबीर के घर के पास इधर एक मस्जिद थी और उधर एक मंदिर।कबीर के पास एक बकरी थी।प्रतिदिन कबीर की वह बकरी घूमते घूमते मंदिर मस्जिद दोनों के अंदर बाहर आती जाती रहती थी। स्वाभाविक है, वह  उन स्थलों को गंदा भी कर देती होगी।एक दिन मस्जिद का मौलवी और मंदिर का पुजारी एक साथ बकरी की शिकायत लेकर कबीर के पास पहुंचे और उनको अपने अपने पवित्र स्थान को बकरी द्वारा गंदा कर देने का उलाहना दिया।
कबीर ने उन दोनों को जो प्रत्युत्तर में जो बात कही उसको सुनकर दोनों की बोलती बंद हो गई। कबीर ने कहा-" क्षमा कीजिये साहब,जानवर है तभी तो कभी इधर कभी उधर घुस जाती है। नहीं तो मुझे देखो, मैँ कभी इधर उधर घुसा हूँ क्या ?"
      बार बार पढ़ें, कबीर के कहे को और अर्थ समझने का प्रयास कीजिए।आपको कुछ नया और अलग ही अनुभव होगा।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरि:शरणम् ।।

Wednesday, January 9, 2019

सहिष्णुता

सहिष्णुता
       एक बार एक महात्माजी से किसी जिज्ञासु ने पूछा-"आप में इतनी सहिष्णुता कैसे है ? आपने सहिष्णु होना कहाँ से सीखा है?" 
     महात्मा ने उत्तर दिया-"जब मैं ऊपर की ओर देखता हूँ तो सोचता हूँ कि मुझे ऊपर की ओर जाना है,तो फिर किसी के कलुषित व्यवहार से खिन्न होकर गुस्सा क्यों करूँ और फिर नीचे जमीन की ओर देखता हूँ तो सोचता हूँ कि मुझे उठने, बैठने और सोने के लिए थोड़ी सी भूमि की आवश्यकता है,तो फिर मैं संग्रही क्यों बनूँ ?फिर जब आसपास देखता हूँ तो मन में विचार आता है कि इस संसार में ऐसे हज़ारों व्यक्ति है, जो मेरे से अधिक दुखी,चिंतित और व्यथित हैं तो फिर मैं दुखी क्यों बनूँ ? इतना सब देखकर मेरे भीतर उठने को तत्पर हुआ आवेश शांत हो जाता है।मैंने इसी प्रकार सहिष्णुता का पाठ सीखा है।"
सार-
हमारा मान सम्मान  बनाये रखने का भाव, अधिकाधिक संग्रह करने का लोभ और दूसरे को सुखी देखकर अपने को दुखी मानना ही हमें असहिष्णु बनाता है।अतः इन तीनों भावों को मन से निकाल देना ही सहिष्णु होने की तरफ बढ़ने का कदम है।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, January 8, 2019

अविरल जीवन(Life is continuous)-सार-संक्षेप-समापन कड़ी-

अविरल जीवन (Life is continuous)- समापन कड़ी -सार-संक्षेप
        इस ब्रह्माण्ड की रचना करने के लिए सर्वप्रथम मन की रचना हुई | ‘सो कामयात् बहुस्यामि’ व ‘एकोSहम् बहुस्यामि’ अर्थात परमात्मा ने मन का सृजन किया और फिर उस मन में कामना उठी कि मैं एक से अनेक होना चाहता हूँ | यहाँ से ही ब्रह्माण्ड की रचना का सूत्र पात हुआ | मन बड़ा चंचल है, उसमें सदैव स्पंदन होता रहता है | उस स्पंदन से ही पदार्थ और जीव का आगमन हुआ और इस प्रकार जीवन का प्रारम्भ हुआ | यह जीवन सतत अथवा निरंतर चलता रहता है, कभी भी समाप्त नहीं होता | जीवन की निरंतरता के कारण ही इसे अविरल जीवन कहा जाता है | इस ब्रह्माण्ड में जीवन तीन अवस्थाओं से होकर प्रवाहित है- साधारण जीवन अथवा एक जन्म का जीवन, महा जीवन तथा परम जीवन | प्रथम व द्वितीय जीवन का उद्गम परम जीवन ही है | हालाँकि जीवन एक ही है, परन्तु इसको समझाने के लिए उसकी तीन अवस्थाएं बतलाई गयी है |
          एक जन्म का जीवन प्राणी के शरीर के जन्म लेने से प्रारम्भ होकर उस शरीर की मृत्यु होने तक की यात्रा है | एक जन्म का जीवन केवल उस शरीर के जन्म और मृत्यु के बीच की गति है जबकि महाजीवन विभिन्न शरीरों के जन्म-मृत्यु की अनन्त श्रृंखलाओं की महागति है | परम जीवन परमात्मा में परमगति अर्थात परम विश्राम है | परम जीवन पूर्ण रूप से शांति की अवस्था का नाम है | कहने का अर्थ है कि परमात्मा से प्रस्फुटित हुआ जीवन अंत में परमात्मा में ही जाकर विलीन हो जाता है और परमात्मा में परमगति पाने पर उसे परम जीवन कहा गया है | इस प्रकार यह स्पष्ट है कि परमात्मा और परम जीवन में कोई अंतर नहीं है | जीवन कभी समाप्त नहीं होता, वह अविरल बहता रहता है, केवल उसका रूप परिवर्तित होता रहता है |यह जीवन है और इस जीवन से ही परमात्मा को जाना जा सकता है अन्यथा उसे जानना असंभव है | दूसरे शब्दों में कहूँ तो कह सकता हूँ कि परमात्मा ने अपने स्पंदन से जीवन बनाया ही इसलिए है, जिससे मनुष्य उस परम को जान सके | हम इस भौतिक शरीर को ही सब कुछ मान बैठे हैं, जबकि इस भौतिक शरीर में जीवन न हो तो यह किसी भी काम का नहीं है | हाँ, यह सत्य है कि परमात्मा ने अवश्य ही जीवन के लिए शरीर बनाया है परन्तु केवल शरीर को ही जीवन मान लेना गलत है | पदार्थ से बना शरीर, मन और जीवन, सब कुछ परमात्मा ही है | इस बात को एक दोहे के माध्यम से स्पष्ट करते हुए इस श्रृंखला को विराम देना चाहूँगा -
तन तम्बूरा तार मन, अद्भूत है यह साज |
हरि के कर से बज रहा, हरि की है आवाज़ ||
तन अर्थात शरीर, तार अर्थात मन जो कि सदैव स्पंदित होता रहता है, इन दो के मिलने से ही यह शरीर एक साज (वाद्य यंत्र)बनता है | शरीर के साज बनने का अर्थ है कि इससे फिर ध्वनि निकल सकती है अर्थात शरीर सक्रिय हो जाता है | इस शरीर रुपी साज से जो विभिन्न सुर निकलते है, उसके पीछे भी परमात्मा ही हैं | हाथ भी परमात्मा है, जिससे यह साज बज रहा है और उस साज़ से निकलने वाली आवाज़ भी परमात्मा की है |
          छान्दोग्योपनिषद् 3/14/1 में कहा गया है - ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्’ अर्थात सर्वत्र ब्रह्म ही है | इस ब्रह्माण्ड में सब कुछ ब्रह्म ही है | ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं।अतः छोड़िए इस एक शरीर के जीवन की बात को, भूल जाइए भिन्न भिन्न शरीरों के माध्यम से महाजीवन की यात्रा को और जाग्रत हो जाइए उस परम जीवन को जीने के लिए, जिसमें परम गति, परम शांति और परम विश्राम है।लेकिन ऐसा होना तभी संभव हो सकेगा,जब परमात्मा स्वयं आप पर कृपा करेंगे और ईश्वर-कृपा के लिए अनासक्ति पूर्ण शुद्ध अंतःकरण चाहिए जो केवल परमात्मा की अनन्य भक्ति से ही प्राप्य है अन्यथा नहीं।
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
नई श्रृंखला कुछ दिनों बाद -

Monday, January 7, 2019

अविरल जीवन(Life is continuous)-21

अविरल जीवन (Life is continuous)-21
            जीवन स्पंदन से ही अभिव्यक्त होता है | यह स्पंदन हमारे मन का है अथवा यूं कह सकते हैं कि स्पंदन ही मन है और मन ही महाजीवन का कारण है।पदार्थ से शरीर और फिर शरीर में स्पंदन से जीवन | यह एक  साधारण जीवन है | एक शरीर के जन्म लेने से समाप्त होने तक उसमें स्पंदन होता है, वह एक साधारण जीवन है | इस शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाकर स्पंदित होना महा जीवन है | स्थानांतरण मन का ही होता है, एक शरीर से दूसरे शरीर में।महा जीवन में कई शरीरों की विशाल श्रृंखला होती है | यह श्रृंखला अंतहीन होती है जो कि मनुष्य जीवन में किये गए कर्मों के अनुसार गतिमान बनी रहती है | महाजीवन से परम जीवन में तभी प्रवेश पाया जा सकता है जब मन पर नियंत्रण कर लिया जाये अर्थात जब हमारा मन  अमन में परिवर्तित हो जाता है तब विभिन्न शरीरों में चल रहे महाजीवन से मुक्त होकर परम जीवन में प्रवेश पाया जा सकता है | हमारा उद्देश्य भी यही है, सा से चले और सा तक पहुँचना, मध्य में स्थित सभी रे, गा, मा, पा ,धा, नि का अतिक्रमण कर जाना | जीवन मिला था परम जीवन से और  महाजीवन की यात्रा से होते हुए पुनः परम जीवन तक पहुँचाना अर्थात शरीरों में हो रहे स्पंदन से निकलकर मुक्त होकर स्पंदित होने तक | यही मोक्ष है और मुक्ति भी और परमात्मा की प्राप्ति भी |
           कोई भी धर्म, संप्रदाय और व्यक्ति भले ही परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता हो अथवा नहीं परन्तु वह जीवन की अभिव्यक्ति को अस्वीकार कर ही नहीं सकता | हम इस को नाम कुछ भी दे सकते हैं, मुक्त स्पंदन कहो, निर्वाण की स्थिति कहो, मोक्ष कहो अथवा परम जीवन, कुछ भी फर्क नहीं पड़ने वाला | उस परम के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता | वह परम जीवन हो, परम पद हो अथवा परमात्मा, किसी में भी कोई अंतर नहीं है |
              इस प्रकार दो गर्भस्थ शिशुओं के मध्य हुए वार्तालाप के चिंतन से यह बात स्पष्ट होती है कि जीवन अविरल है और जब जीवन अविरल है तो फिर परमात्मा के अस्तित्व पर कोई प्रश्न उठ ही नहीं सकता | हमें “एक जीवन एक शरीर” का सिद्धांत स्वीकार्य नहीं है और न ही हो सकता है | हमारे ऋषि और मुनियों ने अपना मानव जीवन सत्य को जानने में लगा दिया और अंततः सत्य को जानकर ही रहे | हमें गर्व होना चाहिए कि हम ऐसे महापुरुषों की संतानें हैं | इसी के साथ यह अविरल जीवन विषय की श्रृंखला समाप्त कर रहा हूँ | आपका साथ बने रहने का आभार |
कल समापन कड़ी में सार संक्षेप
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, January 6, 2019

अविरल जीवन(Life is continuous)-20

अविरल जीवन (Life is continuous)-20
           परमात्मा के स्पंदित होने का क्या उद्देश्य हो सकता है ? उनको स्पन्दित होने की कौन सी आवश्यकता आन पड़ी थी ? इसका उत्तर मिलते ही मानव जीवन का उद्देश्य स्पष्ट हो जाएगा।जिस प्रकार स्पंदन से सुर निकलते हैं और उन सुरों के संयोजन से राग निकलती है, इस राग को सुनकर हम आनंदित होते हैं।परमात्मा ने भी अपने आनंद के लिए स्वयं में स्पंदन पैदा किया। क्या सुरों से आनंदित हुआ जा सकता है? हाँ, आनंद सुरों के उचित संयोजन से ही मिल सकता है। अगर सुरों का संयोजन बेमेल हो जाए तो सुर सुर न होकर बेसुरा हो जाता है।अतः सुरों का संयोजन सही होना चाहिए। परमात्मा के स्पंदन से सुर निकले जिनसे सर्वप्रथम मन उत्पन्न हुआ। मन भी एक इन्द्रिय है, जो अन्य सभी दस इंद्रियों की कक्षा की मॉनिटर है। आज मन ही दस बारातियों की बारात का एक दूल्हा है।जब दूल्हे के मुँह से लार टपकेगी तो फिर बाराती भला स्वादिष्ट भोजन करने से क्यों कर चूकेंगे? इसीलिए मन को ही शरीर रूपी साज का तार कहा जाता है। जैसा तार स्पन्दित होगा, वैसा ही सुर निकलेगा अर्थात मन की चंचलता के अनुरूप ही इन्द्रियां कार्य करेगी।
      अब आप समझ ही गए होंगे कि मन के स्पंदन पर नियंत्रण रखकर ही हम आनंदित हो सकते हैं अन्यथा इस मानव जीवन को बेसुरा कर महाजीवन की अंतहीन शारीरिक श्रृंखला से बाहर निकल ही नहीं पाएंगे। ऐसे में परम जीवन की कल्पना केवल दूर की कौड़ी ही बन कर रह जायेगी।हम ही परमात्मा हैं और हमें ही आनंद प्राप्त करना है।यही हमारे इस जीवन का उद्देश्य होना चाहिए न कि इन्द्रिय सुखों को ही जीवन का आनंद समझने लगें।जरा सोचिए!हमें मिले इस बहुमूल्य जीवन का सदुपयोग कैसे करें?
           मन शरीर रूपी साज का तार है ।उसको सहजता के साथ इतना ही खींचे की आनन्दित करने वाले सुर निकले।ढीला छोड़ोगे तो यह जीवन बेसुरा हो जाएगा, यह निश्चित है।जब कक्षा का मॉनिटर ही ढीला ढाला होगा तो कक्षा में दसों बालक शोर ही मचाएंगे, उत्पात ही करेंगे।अतः संभालिये अपने मन को।हाँ, यह  सत्य है कि मन है तो जीवन है परंतु शांत मन ही परम जीवन है और परम जीवन ही आनंद स्वरूप है।इसीलिए परमात्मा को सच्चिदानंद स्वरूप कहा गया है।परमात्मा से उपहार स्वरूप मिले स्पन्दित मन से इस शरीर रूपी साज से शास्त्रीय संगीत निकालिये,जिससे यह जीवन सफल हो सके।आखिर इस साज के तार को स्पन्दित करने वाले आप स्वयं ही तो हैं ।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, January 5, 2019

अविरल जीवन(Life is continuous)-19

अविरल जीवन (Life is continuous)-19
        इतने विवेचन के बाद यह स्पष्ट हो चूका है कि जीवन क्या है ? परमात्मा द्वारा स्वयं के स्पंदित होने का नाम ही जीवन है | प्रत्येक स्पंदन से पैदा हुई आवाज को सुर कहा जाता है | सुर सात प्रकार के होते हैं-सा, रे, गा, मा, पा, धा, नि और इसके बाद आठवें स्थान पर पुनः सा आ जाता है। इस प्रकार सा नि धा पा मा गा रे सा...  विभिन्न आवृतियों (frequency)  में स्पंदन से सुर बनते रहते हैं | इस प्रकार यह स्पंदन ही सुरों के माध्यम से जीवन को अभिव्यक्त करता है | सुरों से पद बनते हैं, जिन्हें लयबद्ध करके गाया जा सकता है | इस पद से ही पदार्थ शब्द बना है अर्थात जब विभिन्न सुरों से बने पद एक निश्चित अर्थ पा लेते हैं, तब पदार्थ (पद+अर्थ) का प्रकटीकरण हो जाता है | इस प्रकार परमात्मा स्पंदित होकर, पहले सुर में, फिर पद में और अंततः पदार्थ के रूप में प्रकट हुआ | पदार्थ से ही प्राणियों के शरीर बने हैं अर्थात शरीर भी एक पदार्थ है।इसीलिए हमारी संस्कृति कहती है कि सृष्टि के कण-कण में भगवान है |
         आधुनिक विज्ञान भी आज हमारी इसी बात को सिद्ध कर रहा है। रसायन विज्ञान (chemistry)में तत्व सारिणी (periodic table) में तत्वों को गुणों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि सुरों की तरह ही यहां भी आठवें स्थान पर पुनः समान गुणधर्मों वाला एक और तत्व आ जाता है, जैसे सुरों में 'सा' पुनः आठवें स्थान पर आ जाता है। अतः आदिकाल से हमारा ऐसा मानना केवल थोथी बात नहीं है | महर्षि कणाद ने परमाण्विक सिद्धांत दिया है | वे कहते हैं कि प्रत्येक परमाणु में भी स्पंदन होता है और उस परमाणु का भी एक निश्चित जीवन होता है | आधुनिक विज्ञान भी इसी प्रकार प्रत्येक अणु के अर्द्ध जीवन (Half life) की बात कहता है |
       हमारे देश में शास्त्रीय गायन के अंतर्गत कई राग प्रसिद्ध है | शास्त्रीय गायन राग पर ही आधारित होता है, जिसमें सातों सुरों का एक व्यवस्थित प्रकार से समायोजन किया जाता है | इन रागों का उपयोग कर दीप जलाये जा सकते हैं, बरसात कराई जा सकती है, यहाँ तक कि अचेतन मस्तिष्क में चेतना तक लौटाई जा सकती है | दुर्भाग्य से हमने अपनी वह सही राह छोड़ दी है, जिसके कारण इस प्रकार की राग गाने वाले इस देश में अंगुलियों पर गिने जाने लायक ही व्यक्ति बचे हैं और जो कुछ बचे भी हैं, उनको न तो उचित सम्मान मिल रहा है और न ही इस कला को बनाये रखने के लिए सहयोग | एक लुप्त होती जा रही विधा के लिए उदासीन बने रहना दु:खद है | आज आधुनिक विज्ञान संगीत के माध्यम से नित नए प्रयोग कर रहा है और हम हैं कि हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं | हमें अपनी इस कला के संरक्षण के लिए कोई न कोई सार्थक कदम उठाना ही होगा |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, January 4, 2019

अविरल जीवन(Life is continuous)-18

अविरल जीवन (Life is continuous)-18
     परमात्मा और जीवन में कुछ तो अंतर होगा अन्यथा इनके दो अलग अलग नाम कैसे होते ? यहीं आकर प्रश्न उठता है कि फिर जीवन क्या है ? जैसा कि मैंने कहा है कि बिना परमात्मा के जीवन नहीं है और बिना जीवन के परमात्मा का कोई अस्तित्व नहीं है |परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकारना भी भला बिना जीवन के कैसे संभव हो सकता है ? कल्पना कीजिए कि जीवन नहीं है तो फिर ऐसे में परमात्मा का अस्तित्व कौन स्वीकार अथवा अस्वीकार करेगा ? परमात्मा का अस्तित्व जीवन के कारण ही स्वीकार्य है अन्यथा नहीं | जीवन परमात्मा के स्पंदन का नाम है, जीवन केवल मात्र स्पंदन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | बिना इस स्पंदन के परमात्मा का प्रकटीकरण हो ही नहीं सकता | परमात्मा को स्वयं की अभिव्यक्ति के लिए स्पंदित होना ही पड़ता है | अतः कहा जा सकता है कि जीवन परमात्मा का स्पंदन मात्र है इसलिए वही परमात्मा है | स्पंदन जब गर्भ के हृदय में प्रारम्भ हो जाता है, तब हम कह सकते हैं कि गर्भ में जीवन है अन्यथा उस गर्भ के विकसित होकर शिशु हो जाने का प्रश्न ही नहीं उठता |
             यह स्पंदन भी व्यक्त और अव्यक्त होता रहता है | जब जीव एक शरीर का त्याग करता है, तब उसके शरीर से स्पंदन अव्यक्त हो जाता है और अव्यक्त होकर अंतरिक्ष में स्पंदित होता रहता है | जब जीव को दूसरा शरीर उपलब्ध होता है, तब वह उस नए शरीर में प्रवेश कर उसमें स्पंदित होने लगता है | स्पंदन केवल व्यक्ति के हृदय में ही नहीं होता, स्पंदन तो प्रकृति के प्रत्येक स्थान,वस्तु और प्राणी में हो रहा है।वह तो मैं मनुष्य के शरीर में स्पंदन होने की बात कह रहा था अतः केवल हृदय के स्पंदित होने के बारे में कहा था | स्पंदन तो प्रत्येक कोशिका में, रोम-रोम में, सृष्टि के कण-कण में हो रहा है | केवल जीव का ही जीवन नहीं होता बल्कि सभी चर-अचर जीवों और निर्जीव में भी परमात्मा का स्पंदन होता रहता है | इसीलिए पृथ्वी सहित सभी ग्रहों और उपग्रहों यहाँ तक कि ब्रह्मांड तक का भी अपना एक जीवन होता है | कहने का अर्थ यह है कि ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु और प्राणी तक में स्पंदन हो रहा है और इस प्रकार कहा जा सकता है कि जीवन सर्वत्र है | सृष्टि में सर्वत्र जीवन है और जहां जीवन है वहां तो परमात्मा होंगे ही । एक मात्र यही सार्वभौमिक सत्य है।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, January 3, 2019

अविरल जीवन(Life is continuous)-17

अविरल जीवन (Life is continuous)-17
          साधु और सिकंदर के मध्य हुआ यह संवाद स्पष्ट करता है कि जीवन का प्रवाह अविरल है | इस शरीर में भी जीवन है, नए शरीर में भी जीवन रहेगा और जब यह शरीर भी नहीं रहेगा तो भी जीवन स्पन्दित होता रहेगा | संसार का उद्भव और संसार का प्रलय, दोनों ही चलते रहेंगे परन्तु जीवन में कहीं कोई प्रलय अथवा उद्भव नहीं होना है | परन्तु यह सत्य है कि जीवन की अभिव्यक्ति केवल संसार के उद्भव के साथ होती है | अभिव्यक्ति होना और पुनः अव्यक्त हो जाना सिद्ध करता है, जीवन के अविरल होने को | अभिव्यक्ति के लिए कोई साधन चाहिए और वह साधन है, पदार्थ अर्थात शरीर | शरीर जीवन के कारण मिला है न कि शरीर के कारण जीवन है | काष्ठ में जैसे अग्नि है, चाहे वह प्रकट हो अथवा अप्रकट रहे, वैसे ही परमात्मा में अप्रकट जीवन है, प्रकट तो वह केवल पदार्थ अथवा शरीर के माध्यम से ही हो सकता है।
       गंभीरता के साथ देखा जाये तो परोक्ष रूप से परमात्मा ही जीवन है | जीवन के अभाव में परमात्मा नहीं है और परमात्मा के अभाव में जीवन नहीं है | हम जिस शरीर को लेकर अहंकारित है, उसका कोई मोल नहीं है इस जीवन के अभाव में | यही कारण है कि हम प्रत्येक शरीर में अभिव्यक्त हो रहे जीवन को देखकर बहुत प्रभावित होते हैं | जीवन यानि परमात्मा की अभिव्यक्ति किन्हीं दो जीवों में भिन्नता लिए हुए नहीं होती | इसीलिए संत जन कहते हैं कि सभी को आप स्वयं के समान ही समझो | गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को छठे अध्याय में कहते हैं-
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||30||
जो सम्पूर्ण भूतों (जीवों) में मुझ परमात्मा को देखता है और सम्पूर्ण भूतों (जीवों) को मुझ परमात्मा के अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता |
           परमात्मा ही जीवन है और जीवन अविरल है | गीता के इस श्लोक के अनुसार सोच रखना और समग्र रूप से आत्मसात कर लेना ही सख्य भाव है, सामीप्य मुक्ति है | सभी का जीवन एक ही है, जीवन का प्रवाह निरंतर चलता रहता है, इस बात को जिसने स्वीकार कर लिया वह फिर शरीर के सुख-दुःख से ऊपर उठ जाता है और शीघ्र ही गुणातीत होकर अविरल जीवन के साथ प्रवाहित होता रहता है और अंततः परम जीवन को उपलब्ध हो जाता है | भला, फिर परमात्मा से दूरी रह ही कहाँ जाती है, जब वह स्वयं ही परमात्मा हो जाता है |ऐसी स्थिति को उपलब्ध हो जाने पर जीवन और परमात्मा एक हो जाते है।यही जीवनमुक्ति है।
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् || 

Wednesday, January 2, 2019

अविरल जीवन(Life is continuous)-16

अविरल जीवन (Life is continuous)-16
            मां के निर्देशानुसार साधु को देखते ही सिकंदर ने घोड़े से उतर कर साधु को सादर प्रणाम किया | साधु भूमि पर बैठा हुआ था | उसने सिकंदर को पूछा-‘कहो योद्धा, यहाँ कैसे आना हुआ ?’
“आपको मेरे साथ यूनान चलना होगा | मेरी मां आपसे मिलना चाहती है |”सिकंदर बोला।
‘हम अपनी मर्जी के मालिक हैं, हम कहीं आते-जाते नहीं हैं |’साधु ने उत्तर दिया।
“मेरी मां का आदेश मेरे लिए सर्वोपरि है, मैं आपको लेकर ही जाऊंगा |”सिकंदर कुछ क्रोधित होकर बोला।
‘कोई जाना चाहेगा, तब लेकर जाओगे न | मैं जाना ही नहीं चाहता | मैं अब ठहर चूका हूँ |’साधु ने निर्विकार भाव से सिकंदर को कहा।
“मैंने आज तक किसी के मुंह से "ना" नहीं सुनी है | सिकंदर जो चाहता है, प्राप्त करके ही रहता है | उठो और चलो मेरे साथ |” यह कहते हुए सिकंदर ने अपनी म्यान से तलवार निकाल ली |
‘तलवार को वापिस म्यान में रख लो योद्धा |’ साधु भयमुक्त होकर सिकंदर से कह रहा है, ‘हम साधु लोग मरने से नहीं डरते |’
“ मेरे साथ नहीं चलोगे तो यह तलवार देख रहे हो न, एक ही वार में तुम्हारा सिर धड़ से अलग होकर जमीन पर गिर जायेगा |”
‘किसको मरने का भय दिखला रहे हो, सिकंदर ? मैं शरीर हूँ ही नहीं और न ही यह शरीर मेरा है | जिस प्रकार तुम मेरे सिर को जमीन पर गिरते देखोगे, वैसे ही उसे गिरता हुआ मैं भी देखूंगा |'
सिकंदर स्तब्ध रह गया, साधु का यह उत्तर सुनकर।आज उसको एक साधारण से साधु ने निरुत्तर कर दिया। आज सिकंदर जीवन में प्रथम बार एक ऐसा व्यक्ति देख रहा था, जो मरने से बिल्कुल भी डर नहीं रह था। ऐसे भयमुक्त व्यक्ति को अपने समक्ष बैठा देखकर सिकंदर अचम्भित रह गया। उसने हिम्मत कर साधु से प्रश्न किया-"साक्षात मृत्यु को सामने खड़ा देखकर भी भयभीत नहीं होने वाले हे महापुरुष!आप कौन हैं?"
साधु ने शांत भाव से सिकंदर के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा -"मैं अक्षर आत्मा हूँ,शरीर नहीं हूँ। शरीर मरता है आत्मा अर्थात मैं नहीं मरता।मैं अमर हूँ और केवल मैं ही नहीं तुम भी तो वही हो, जो मैं हूँ – तत्वमसि | हम सब वही हैं।"
     'तत्वमसि' अर्थात ‘तत् त्वं असि’ यानि तुम भी वही हो | ‘तुम और मैं’ एक ही हैं, जो मैं हूँ, वही तुम हो | फिर साधु और सिकंदर में अंतर ही कहां रह जाता है ? सिकंदर ही साधु है और साधु ही सिकंदर | शरीर अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु उनमें प्रवाहित हो रहा जीवन एक ही है | साधु की निर्भीक वाणी सुनकर सिकंदर अचम्भित रह गया।एक साधारण से दिखने वाले साधु ने आज उसे जीवन का परम ज्ञान दे दिया। उसे लगा कि मां सत्य ही कह रही थी। साधु के वचन सुनकर सिकंदर का हृदय परिवर्तित हो गया।आज यूनान का महान योद्धा सिकंदर भी साधु हो गया | अब उसे किसी अन्य साधु को अपनी मां के पास ले जाने की कोई आवश्यकता नहीं रही |
      सिकंदर इससे आगे साधु से कुछ भी नहीं बोल सका | उसने अपनी तलवार वापिस म्यान में रख ली | उसने साधु को प्रणाम किया और नतमस्तक होकर घोड़े पर सवार हो वहां से निकल गया | पहली बार आज जीवन में सिकंदर एक साधु से परास्त हो गया | विश्व विजय की कामना रखने वाला एक योद्धा हथियार विहीन एक साधारण से दिखने वाले व्यक्ति के सामने नत मस्तक हो गया | ऐसी है, हमारी संस्कृति । जहां व्यक्ति सभी स्थानों पर और सब जीवों में एक परमात्मा के दर्शन करता है। हम सबमें वही एक परमात्मा रम रहा है, जीवन के रूप में अभिव्यक्त होकर।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, January 1, 2019

अविरल जीवन (Life is continuous)-15

अविरल जीवन (Life is continuous)-15
           मोक्ष की सत्यता को स्वीकार करने वालों के लिए जीवन कभी भी समाप्त नहीं होता | वे कहते हैं कि परमात्मा और जीवन में कोई भेद है ही नहीं | परमात्मा अक्षर है तो जीवन भी अविरल है | परमात्मा का अनुभव करने के लिए जीवन चाहिए क्योंकि जीवन का होना ही परमात्मा के कारण है।परमात्मा के बिना जीवन होना असंभव है।शरीर के बाद शरीर और फिर एक नया शरीर और अंत में मानव शरीर | मानव शरीर से ही व्यक्ति मुक्ति की और बढ सकता है, परमात्मा के साथ एकाकार हो सकता है | यही मोक्ष है | इस परमात्मिक अवस्था को प्राप्त हुए जीवन को ‘परम जीवन’ कहा गया है | यह परम जीवन ही साधारण जीवन बनकर एक शरीर के जन्म तक सीमित हो जाता है, यही परम जीवन विभिन्न शरीरों की यात्रा करते हुए महाजीवन बन जाता है और समस्त शरीरों से ऊपर उठकर परम जीवन की ऊंचाई को छू लेता है | परम जीवन ही जीवन के अविरल होने की पुष्टि करता है |
       सिकंदर विश्व विजय पर निकला हुआ था उस अवधि में वह भारत भी आया था | जब यहाँ से  खूब माल बटोर कर वापिस लौटने को उद्यत हुआ तो उसे अपनी मां द्वारा कही गई एक बात स्मरण हो आयी | जब वह विश्व विजय करने के लिए घर से निकला तो मां से पूछा था कि-‘मां, मैं सम्पूर्ण विश्व को जीत लेने के लिए पूरब की ओर जा रहा हूँ | बताओ, लौटते हुए तुम्हारे लिए वहां से क्या उपहार लेकर आऊं ?’ उसकी मां ने पूछा-‘बेटा, क्या तुम विश्व विजय के पूरब के अभियान में भारत भी जाओगे ?” सिकंदर ने उत्तर दिया-‘हाँ मां, वहां तो मैं अवश्य जाऊंगा | समस्त संसार में वही तो एक मात्र सोने की चिड़िया है |’ मां ने कहा-‘तो बेटा सुनो, वहां से एक साधु को अवश्य साथ ले आना | मैंने सुना है कि वहां के साधु बड़े ज्ञानी होते हैं | मुझे एक भारतीय साधु को उपहार में पाकर बड़ी ख़ुशी होगी | तुम मेरे लिए इतना काम अवश्य करना | हाँ, एक बात का ध्यान रखना, सच्चा साधु मिले तो उससे ससम्मान बात करना , उसे अपनी वीरता का अभिमान न दिखाना ।'
               भारत से लौटते हुए अंतिम समय में सिकंदर को जब यह बात याद आई तो वह किसी एक सच्चे साधु की तलाश में जंगल दर जंगल भटकने लगा | अंततः एक दिन उसका मिलन एक सच्चे साधु से हो ही गया |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||