भज गोविन्दम – श्लोक
सं.-5
यावद्वित्तोपार्जनसक्तः,
तावत् निज परिवारोक्तः |
पश्चात्धावति जर्जर
देहे, वार्तापृच्छतिकोSपि न गेहे ||5||
अर्थात जिस परिवार
पर तुमने अपना सब कुछ सर्वस्व न्योछावर कर दिया, जिसके लिए तुम निरंतर मेहनत करते
रहे, वह परिवार तुम्हारे साथ तभी तक है, जब तक तुम उनकी जरूरतों को पूरा करते हो |
मेरा आप सभी से आपके इस मानव-जीवन के
बारे में एक प्रश्न है | आप इस जीवन में स्वयं के लिए क्या कर रहे हैं ? जिस उद्देश्य
के लिए परमात्मा ने सभी योनियों में जो सर्वोच्च योनि है, उसमें आपको जन्म दिया है,
क्या आप उस परमात्मा के प्रति आभार प्रदर्शित करने के लिए भी कुछ कर रहे हैं ?
उत्तर तभी मिलेगा, जब आप अपने भीतर प्रवेश करेंगे | इस प्रश्न का सांसारिक उत्तर सही
नहीं हो सकता इसका, केवल आध्यात्मिक चिन्तक ही इसका सही उत्तर जानता है |
मनुष्य जीवन भर अपने परिवार के लिए ही
दौड़ता रहता है | कभी भी स्वयं के लिए कुछ करता भी नहीं है | अपना धन, अपना शरीर,
अपना सब कुछ यहाँ तक कि यह मनुष्य जीवन भी वह अपने परिवार पर न्योछावर कर देता है |
परन्तु उसके अंतिम समय में उसके साथ क्या होता है, वह आप और मुझसे छुपा हुआ नहीं है
| जिस परिवार के लिए वह अपना सर्वस्व त्याग देता है, उस परिवार के लिए एक समय आता
है जब वह बोझ बन जाता है | जीवन का यह भी एक कटु सत्य है | हम अपने जीवन में अपने
चारों और हो रहे ऐसे घटना क्रम को देख भी रहे हैं, फिर भी हम चेतते नहीं हैं |
इससे बड़ी और विडंबना क्या हो सकती है ? हम अपने परिवार के लिए तभी तक साथ रह सकते
हैं, जब तक हम उन सब की आवश्यकताओं को पूरा करते रहते हैं | हमारी संस्कारों का
ऐसा ह्रास होगा, यह शंकराचार्यजी ने बहुत पहले ही भांप लिया था | तभी उन्होंने ऐसे
श्लोक की रचना शताब्दियों पूर्व कर दी थी |
हम अपने परिवार में इतने अधिक आसक्त रहते हैं कि हम यह भी नहीं सोचते
कि हमारा परिवार हमारे साथ तभी तक है, जब तक कि उनका स्वार्थ सिद्ध हो रहा हो | हम
बेहोशी में रहकर उनकी सभी जरूरतों को पूरा करते जा रहे हैं, और स्वयं के भविष्य की
रत्ती भर भी चिंता नहीं करते हैं | हमें शंकराचार्य जी महाराज चेतावनी दे रहे हैं
कि इस बात को गंभीरता से लें और अपने भविष्य के बारे में सोचें | शांति के साथ
बैठकर हमें यह विचार करना चाहिए कि हम क्या तो कर रहे हैं और हमें सही में क्या करना
चाहिए ? मनुष्य इस संसार में आता अकेले है और जाता भी अकेले ही है | जो परिवार
हमें मिला है, उन लोगों से हमारे पूर्व जन्म के सम्बन्ध थे, किसी न किसी को हमसे
कुछ लेना होगा अथवा उसे हमें कुछ देना होगा, केवल उसी कारण से हमारा इस जीवन में
परिवार और मित्रादि के रूप में मिलना संभव हुआ है | इसलिए हमें उन लोगों में अपनी आसक्ति
नहीं रखनी चाहिए और जो लेन देन पूर्व में शेष रहा है, उसे चुकाकर स्वयं के भविष्य
का सोचना चाहिए |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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