भज गोविन्दम् -
श्लोक सं.-11 -
मा कुरु
धन-जन-यौबन-गर्वं, हरतिनिमेषात्काल:सर्वम् |
मायामयमिदमखिलं हित्वा,
ब्रह्म पदं त्वं प्रविशविदित्वा ||11||
अर्थात धन, शक्ति और
यौवन पर गर्व कभी भी मत करो | समय क्षण भर में इन्हें नष्ट कर देता है | इस संसार
को माया जानकर ब्रह्म पद में प्रवेश पाने के लिए प्रयास करो |
हमारे मित्र, यह धन दौलत, हमारी
सुन्दरता एवं हमारा अभिमान, सब एक दिन मिट्टी में मिल जायेगा | कुछ भी अमर नहीं है
| यह संसार झूठ एवं कल्पनाओं का पुलिंदा मात्र है | हमें सदैव परम ज्ञान प्राप्त
करने की कामना करनी चाहिए |
मनुष्य का जीवन एक सौ वर्षों का माना गया
है | क्या एक सौ वर्ष पर्याप्त हैं, जीवन को एक उद्देश्य के साथ जीने के लिए ? समझदार व्यक्ति के लिए सौ वर्ष पर्याप्त ही नहीं, बहुत ही अधिक है और
सांसारिक भोगों में रत व्यक्ति के लिए एक हजार वर्ष भी अपर्याप्त है | संसार विनाश
शील है | यहाँ पर कुछ भी स्थाई नहीं है | प्रतिदिन इसकी अवस्था में परिवर्तन होता
रहता है | आज जो कुछ भी है, कल वह वैसा नहीं रहेगा | हम अपना जन्म दिन बड़े उत्साह
के साथ मनाते हैं और बड़े गर्व से उम्र में एक वर्ष जुड़ने का उत्सव मनाते हैं | हम
यह नहीं जानते कि परमात्मा ने जितने वर्ष हमें जीने के लिए दिए हैं, उनमें से एक
वर्ष कम हो गया है | वास्तव में देखा जाये तो प्रत्येक जन्म-दिन पर हमें स्वयं के
जीवन का आकलन करना चाहिए कि हम अपने उद्देश्य से कितनी दूर है | जीवन मुट्ठी में
बंद रेत की तरह धीरे-धीरे फिसलता जा रहा है और हम हैं कि इस खोते जा रहे समय को
जीवन में एक वर्ष जुड़ता हुआ मान रहे हैं | अधिक क्या कहूँ, सब कुछ पाश्चात्य जगत
का प्रभाव है |
हमें लगता है कि बढ़ती उम्र के साथ
हमारी सुन्दरता बढ़ती जा रही है | यह भी हमारा एक भ्रम है | जितना सुन्दर और
निर्दोष एक जन्म लेने वाला शिशु होता है, उतने सुन्दर और निर्दोष हम जीवन में कभी
भी नहीं हो सकते | बढ़ती उम्र के साथ सौन्दर्य साथ छोड़ता चला जाता है | फिर हम चाहे
जितनी सौन्दर्य सामग्री का उपयोग कर लें, समय के द्वारा चेहरे पर डाली गई
झुर्रियां मिट नहीं सकती | अपने पहनावे में चाहे जितना परिवर्तन कर लें, इस कमर को
एक दिन झुकना ही पड़ेगा | धन-दौलत हम चाहे जितनी कमा लें, एक दिन यह भी समाप्त हो जानी
है | कहते भी हैं कि धन की तीन गति होती हैं-दान, भोग और नाश | साथ एक धेला भी
नहीं ले जा सकते | फिर जीवन भर इस धन-दौलत एकत्रित करने को ही अपना एक मात्र उद्देश्य
क्यों बना लेते हैं ?
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश
काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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