Wednesday, October 18, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-11

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-11 -   
मा कुरु धन-जन-यौबन-गर्वं, हरतिनिमेषात्काल:सर्वम् |
मायामयमिदमखिलं हित्वा, ब्रह्म पदं त्वं प्रविशविदित्वा ||11||
अर्थात धन, शक्ति और यौवन पर गर्व कभी भी मत करो | समय क्षण भर में इन्हें नष्ट कर देता है | इस संसार को माया जानकर ब्रह्म पद में प्रवेश पाने के लिए प्रयास करो |
         हमारे मित्र, यह धन दौलत, हमारी सुन्दरता एवं हमारा अभिमान, सब एक दिन मिट्टी में मिल जायेगा | कुछ भी अमर नहीं है | यह संसार झूठ एवं कल्पनाओं का पुलिंदा मात्र है | हमें सदैव परम ज्ञान प्राप्त करने की कामना करनी चाहिए |
        मनुष्य का जीवन एक सौ वर्षों का माना गया है | क्या एक सौ वर्ष पर्याप्त हैं, जीवन को एक उद्देश्य के साथ जीने के लिए ? समझदार व्यक्ति के लिए सौ वर्ष पर्याप्त ही नहीं, बहुत ही अधिक है और सांसारिक भोगों में रत व्यक्ति के लिए एक हजार वर्ष भी अपर्याप्त है | संसार विनाश शील है | यहाँ पर कुछ भी स्थाई नहीं है | प्रतिदिन इसकी अवस्था में परिवर्तन होता रहता है | आज जो कुछ भी है, कल वह वैसा नहीं रहेगा | हम अपना जन्म दिन बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं और बड़े गर्व से उम्र में एक वर्ष जुड़ने का उत्सव मनाते हैं | हम यह नहीं जानते कि परमात्मा ने जितने वर्ष हमें जीने के लिए दिए हैं, उनमें से एक वर्ष कम हो गया है | वास्तव में देखा जाये तो प्रत्येक जन्म-दिन पर हमें स्वयं के जीवन का आकलन करना चाहिए कि हम अपने उद्देश्य से कितनी दूर है | जीवन मुट्ठी में बंद रेत की तरह धीरे-धीरे फिसलता जा रहा है और हम हैं कि इस खोते जा रहे समय को जीवन में एक वर्ष जुड़ता हुआ मान रहे हैं | अधिक क्या कहूँ, सब कुछ पाश्चात्य जगत का प्रभाव है |
           हमें लगता है कि बढ़ती उम्र के साथ हमारी सुन्दरता बढ़ती जा रही है | यह भी हमारा एक भ्रम है | जितना सुन्दर और निर्दोष एक जन्म लेने वाला शिशु होता है, उतने सुन्दर और निर्दोष हम जीवन में कभी भी नहीं हो सकते | बढ़ती उम्र के साथ सौन्दर्य साथ छोड़ता चला जाता है | फिर हम चाहे जितनी सौन्दर्य सामग्री का उपयोग कर लें, समय के द्वारा चेहरे पर डाली गई झुर्रियां मिट नहीं सकती | अपने पहनावे में चाहे जितना परिवर्तन कर लें, इस कमर को एक दिन झुकना ही पड़ेगा | धन-दौलत हम चाहे जितनी कमा लें, एक दिन यह भी समाप्त हो जानी है | कहते भी हैं कि धन की तीन गति होती हैं-दान, भोग और नाश | साथ एक धेला भी नहीं ले जा सकते | फिर जीवन भर इस धन-दौलत एकत्रित करने को ही अपना एक मात्र उद्देश्य क्यों बना लेते हैं ?
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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