भज गोविन्दम् –
श्लोक सं.11(समापन)-
आदि गुरु शंकराचार्य कह रहे हैं कि
यह संसार झूठ और कल्पनाओं का पुलिंदा मात्र है | सत्य सदैव अपरिवर्तनीय होता है |
जो परिवर्तनशील है, वह झूठ ही है | संसार दिन प्रतिदिन बदलता रहता है, अतः वह असत
है | यहाँ नित नयी कल्पनाओं का जन्म होता है, कल्पना को वास्तविकता में परिवर्तित
करने का प्रयास किया जाता है परन्तु कल्पना कभी वास्तविकता नहीं बन सकती | कल्पना
फिर एक नयी कल्पना को जन्म देती है, यह एक ध्रुव सत्य है | आज जिस कल्पना को हम
वास्तविकता में परिवर्तित होना मान लेते हैं, भविष्य में वह मात्र एक कल्पना बनकर ही
रह जाती है | कल्पना कामना को जन्म देती है और कामनाओं का भी कल्पना की तरह कभी अंत
नहीं आता | एक कामना जब पूरी होने वाली होती है, तभी उस कामना का और अधिक विस्तार
हो जाता है | यही कारण है कि मनुष्य सदैव कल्पना के संसार में ही खोया रहता है क्योंकि
कामनाओं का अंत कभी भी हो नहीं सकता |
जब सब कुछ अस्थाई है, चाहे वह मित्र हो,
सुन्दरता, यौवन, धन दौलत, अभिमान हो अथवा कल्पनाओं और झूठ का पुलिंदा संसार ही
क्यों न हो, सब कुछ एक दिन समाप्त हो जाने हैं, इसका एक ही अर्थ हुआ कि हमारा यह
शरीर भी एक दिन समाप्त हो जाना है | सब कुछ माया है | ‘माया’ एक शब्द, जिसका अर्थ
है कि “नहीं है (मा) यह (या) | जो नहीं होता अथवा नहीं रहता वह मात्र कल्पना के
अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस भौतिक संसार में सब कुछ
असत्य है | जब सब कुछ असत्य है, तो फिर सत्य क्या है | सत्य है, ब्रह्म, ‘ब्रह्म
सत्य, जगत मिथ्या’ | अतः हमें स्वयं को ब्रह्म होना है, शरीर नहीं | वास्तव में
देखा जाये तो हम ब्रह्म ही हैं, अपने आपको शरीर मान लेना हमारा अज्ञान है | अपनी
स्मृति लौटाकर ब्रह्म पद प्राप्त करना ही इस मनुष्य जीवन का उद्देश्य है | आत्म-ज्ञान
हो जाना ही परम पद को पा लेना है, क्योंकि हम स्वयं ब्रह्म ही है | केवल अज्ञान के
कारण हम अपने आपको शरीर मान बैठे हैं | जीवन में कामना ही उस ज्ञान को प्राप्त
करने की रखनी चाहिए जो हमें स्वयं के ब्रह्म होने की स्मृति लौटा सके | शेष सभी सांसारिक
कामनाएं हैं, जो इस संसार में कोरी कल्पना ही बनकर रह जाती है | इस संसार में रहना
अस्थाई भाव है | अतः सुन्दरता, यौवन, धन-दौलत आदि का अभिमान न कर परम ज्ञान को
उपलब्ध हो जाने का प्रयास करना चाहिए | इसीलिए शंकराचार्य महाराज कह रहे हैं कि-
मा कुरु
धन-जन-यौबन-गर्वं, हरति निमेषात्काल:सर्वम् |
मायामयमिदमखिलं हित्वा,
ब्रह्म पदं त्वं प्रविशविदित्वा ||11||
अर्थात धन, शक्ति और
यौवन पर गर्व कभी भी मत करो | समय क्षण भर में इन्हें नष्ट कर देता है | इस संसार
को माया जानकर ब्रह्म पद में प्रवेश पाने के लिए प्रयास करो |
हमारे मित्र, यह धन दौलत, हमारी
सुन्दरता एवं हमारा अभिमान, सब एक दिन मिट्टी में मिल जायेगा | कुछ भी अमर नहीं है
| यह संसार झूठ एवं कल्पनाओं का पुलिंदा मात्र है | हमें सदैव परम ज्ञान प्राप्त
करने की कामना करनी चाहिए
|
कल श्लोक सं.12
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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