Friday, October 20, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.11(समापन)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.11(समापन)-
              आदि गुरु शंकराचार्य कह रहे हैं कि यह संसार झूठ और कल्पनाओं का पुलिंदा मात्र है | सत्य सदैव अपरिवर्तनीय होता है | जो परिवर्तनशील है, वह झूठ ही है | संसार दिन प्रतिदिन बदलता रहता है, अतः वह असत है | यहाँ नित नयी कल्पनाओं का जन्म होता है, कल्पना को वास्तविकता में परिवर्तित करने का प्रयास किया जाता है परन्तु कल्पना कभी वास्तविकता नहीं बन सकती | कल्पना फिर एक नयी कल्पना को जन्म देती है, यह एक ध्रुव सत्य है | आज जिस कल्पना को हम वास्तविकता में परिवर्तित होना मान लेते हैं, भविष्य में वह मात्र एक कल्पना बनकर ही रह जाती है | कल्पना कामना को जन्म देती है और कामनाओं का भी कल्पना की तरह कभी अंत नहीं आता | एक कामना जब पूरी होने वाली होती है, तभी उस कामना का और अधिक विस्तार हो जाता है | यही कारण है कि मनुष्य सदैव कल्पना के संसार में ही खोया रहता है क्योंकि कामनाओं का अंत कभी भी हो नहीं सकता |
        जब सब कुछ अस्थाई है, चाहे वह मित्र हो, सुन्दरता, यौवन, धन दौलत, अभिमान हो अथवा कल्पनाओं और झूठ का पुलिंदा संसार ही क्यों न हो, सब कुछ एक दिन समाप्त हो जाने हैं, इसका एक ही अर्थ हुआ कि हमारा यह शरीर भी एक दिन समाप्त हो जाना है | सब कुछ माया है | ‘माया’ एक शब्द, जिसका अर्थ है कि “नहीं है (मा) यह (या) | जो नहीं होता अथवा नहीं रहता वह मात्र कल्पना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस भौतिक संसार में सब कुछ असत्य है | जब सब कुछ असत्य है, तो फिर सत्य क्या है | सत्य है, ब्रह्म, ‘ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या’ | अतः हमें स्वयं को ब्रह्म होना है, शरीर नहीं | वास्तव में देखा जाये तो हम ब्रह्म ही हैं, अपने आपको शरीर मान लेना हमारा अज्ञान है | अपनी स्मृति लौटाकर ब्रह्म पद प्राप्त करना ही इस मनुष्य जीवन का उद्देश्य है | आत्म-ज्ञान हो जाना ही परम पद को पा लेना है, क्योंकि हम स्वयं ब्रह्म ही है | केवल अज्ञान के कारण हम अपने आपको शरीर मान बैठे हैं | जीवन में कामना ही उस ज्ञान को प्राप्त करने की रखनी चाहिए जो हमें स्वयं के ब्रह्म होने की स्मृति लौटा सके | शेष सभी सांसारिक कामनाएं हैं, जो इस संसार में कोरी कल्पना ही बनकर रह जाती है | इस संसार में रहना अस्थाई भाव है | अतः सुन्दरता, यौवन, धन-दौलत आदि का अभिमान न कर परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाने का प्रयास करना चाहिए | इसीलिए शंकराचार्य महाराज कह रहे हैं कि-  
मा कुरु धन-जन-यौबन-गर्वं, हरति निमेषात्काल:सर्वम् |
मायामयमिदमखिलं हित्वा, ब्रह्म पदं त्वं प्रविशविदित्वा ||11||
अर्थात धन, शक्ति और यौवन पर गर्व कभी भी मत करो | समय क्षण भर में इन्हें नष्ट कर देता है | इस संसार को माया जानकर ब्रह्म पद में प्रवेश पाने के लिए प्रयास करो |
         हमारे मित्र, यह धन दौलत, हमारी सुन्दरता एवं हमारा अभिमान, सब एक दिन मिट्टी में मिल जायेगा | कुछ भी अमर नहीं है | यह संसार झूठ एवं कल्पनाओं का पुलिंदा मात्र है | हमें सदैव परम ज्ञान प्राप्त करने की कामना करनी चाहिए |
कल श्लोक सं.12
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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