भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.-9
सत्संगत्वेनिःसंगत्वं,
निःसंगत्वेनिर्मोहत्वं |
निर्मोहत्वेनिश्चलतत्वं
निश्चलतत्वे जीवन्मुक्तिः ||9||
अर्थात संत महात्माओं के साथ उठने बैठने से हम
सांसारिक वस्तुओं एवं बंधनों से दूर होने लगते हैं | इससे हमें सुख की प्राप्ति
होती है | सब बंधनों से मुक्त होकर ही हम उस परम ज्ञान की
प्राप्ति कर सकते हैं |
मनुष्य ही नहीं, संसार का प्रत्येक
प्राणी वातावरण के अनुसार स्वयं को ढाल लेने की क्षमता रखता है | इसलिए यह आवश्यक
है कि मनुष्य को अगर उचित वातावरण मिले तो वह अपने स्वभाव को परिवर्तित कर सकता है
| मनुष्य को जन्म से ही कुछ संस्कार पूर्वजन्म के स्वभाव के आधार पर मिलते हैं, जो
कि उसके वर्तमान जीवन के प्रारम्भ काल में उसका स्वभाव बनाते हैं | यह स्वभाव उचित
वातावरण मिलने अथवा न मिल पाने के कारण परिवर्तित होता रहता है | कहने का अर्थ यह
है कि मनुष्य के स्वभाव निर्माण में उसके चारों और के वातावरण की भूमिका
महत्वपूर्ण रहती है | गोस्वामीजी श्री रामचरितमानस में लिखते हैं –
“गगन चढ़हि रज पवन
प्रसंगा | कीचहि मिलहि नीच जल संगा ||”
अर्थात रास्ते में पड़ी मिट्टी वायु का साथ
पाकर तो आकाश में ऊपर तक चढ़ जाती है और जब पानी के संग होती है, तो वह कीचड बन
जाती है |
इस प्रकार का होता है, संगति का
प्रभाव | सब कुछ निर्भर करता है, आपको मिलने वाले वातावरण पर, आपकी संगति पर | इस
भौतिक संसार में कुसंगतियाँ चारों और बिखरी पड़ी है और सत्संग किसी भाग्यवान को ही
उपलब्ध हो पाता है | भला इसमें अन्य किस व्यक्ति का दोष ? सौभाग्य से अगर सत्संग
मिल गया तो जीवन में उत्थान की ओर अग्रसर हो जाओगे और अगर कुसंग मिला तो फिर पतन
होना निश्चित है | एक शेर का बच्चा जन्म लेते ही अपने परिवार से बिछड़ जाता है और
दुर्भाग्य से उसका संग एक भेड़ों के झुण्ड के साथ हो जाता है | शेर का बच्चा
धीरे-धीरे बड़ा होते हुए भेड़ों के साथ मिल रहे वातावरण में भेड़ की तरह ही व्यवहार
करने लगता है | जब वह युवा हो जाता है, तो उसे देखकर वन के अन्य प्राणी अपने प्राण
बचने को उससे दूर दौड़ पड़ते हैं परन्तु शेर के उस बच्चे पर स्वयं के शेर होने का
कोई प्रभाव दिखाई नहीं देता है | एक बार एक वयस्क शेर उसे देख लेता है | वह उसे भेड़ों
के झुण्ड से अलग कर दहाड़ने को कहता है परन्तु वह केवल एक भेड़ की तरह मिमियाता ही रहता
है | कई प्रयासों के बाद वह एक अच्छी तीव्र दहाड़ लगा पाता है | तब जाकर उसकी समझ
में आता है कि वह एक शेर है, भेड़ नहीं | एक भेड़ होना स्वयं का ही भ्रम था, जो
उसमें संगति के प्रभाव का परिणाम था | हमारी स्थिति भी भेड़ों के झुण्ड में रह रहे
उस शेर के बच्चे से भिन्न नहीं है | हम भी इस भौतिक संसार में रहते हुए अपना
वास्तविक स्वरूप भूल चुके हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||
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