भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.12 (कल से आगे)-
दिन का रात में और रात का पुनः दिन
में परिवर्तित होते जाना प्रकृति का नियम है | उसी प्रकार वर्षा की समाप्ति पर
सर्द ऋतु का आना, शरद् के बाद बसन्त, फिर ग्रीष्म और पुनः वर्षा ऋतु का आगमन, एक
चक्र की भांति ऋतु परिवर्तन सतत चलता जा रहा है | मनुष्य के जीवन चक्र में भी ऐसा
ही होता है | जन्म के बाद प्रत्येक अवस्था से गुजरते हुए अंत में भौतिक देह को
समाप्त होना ही पड़ता है | मृत्यु पर किसी का भी वश नहीं है | भीष्म पितामह जैसे महान
पुरुष को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था परन्तु उन्हें भी एक दिन मृत्यु का आह्वान
करना पड़ा |
सिकंदर जब विश्व विजय की यात्रा पर
था तब वह भारत भी आया था | सिकंदर को पता चला कि यहाँ पर किसी स्थान पर एक गुफा है
जिसमें एक ऐसा जल स्रोत है, जिसका जल पीने से व्यक्ति अमर हो जाता है | मृत्यु
उसके द्वार पर आ ही नहीं सकती | सिकंदर ने उस गुफा को खोज निकाला और उस जल स्रोत
तक पहुँच भी गया | जब वह जल को अंजुली में भरकर पीने ही वाला था तभी एक कृशकाय देह
के कराहने की धीमी ध्वनि उसे सुनाई पड़ी | उसने उस शरीर की ओर देखा तो आश्चर्यचकित
रह गया | उस जर्जर हुए शरीर के कंठ से बहुत धीमे स्वर फूट रहे थे | सिकंदर ने उसके
कंठ से निकल रहे मद्धिम स्वर को ध्यान से सुना | वह कह रहा था कि ‘हे अमरता पाने
को उत्सुक मनुष्य, इस जल को न पी | यह जल देह को तो मरने नहीं देगा परन्तु इस शरीर
को जर्जर होने से फिर भी नहीं रोक सकेगा | मैंने भी शताब्दियों पूर्व अमर होने की
आशा लिए यही जल पिया था और आज मेरी देह इस अवस्था तक पहुँच गयी है | आज मैं मृत्यु
का आह्वान कर रहा हूँ और मृत्यु है कि मेरा वरण ही नहीं कर रही है |’ कहते हैं कि सिकंदर
ने इतना सुनते ही अंजुली में भरे जल को छोड़ दिया | उसने अमर होने का विचार ही
त्याग दिया और गुफा से तुरंत बाहर निकल गया |
हो सकता है कि सिकंदर के बारे में यह
एक काल्पनिक कहानी किसी के द्वारा गढ़ी गयी हो परन्तु इस कहानी में निहित सन्देश
बहुत ही महत्वपूर्ण है | समय के चक्र को रोकना असंभव है | जो कोई भी इसे रोकने का प्रयास
करता है, वह ऐसी ही किसी विपदा में फंस सकता है | समय का चक्र, अवस्था का बढ़ते
जाना, जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म, सब एक नियम के अनुसार चलता रहता
है | इस चक्र को केवल शरीर को अमर बना कर नहीं तोडा जा सकता | आत्मा ही अमर है,
शरीर नहीं | ऐसे में हमें यह विचार करना चाहिए कि इस चक्र में फंसे रहना क्यों
हमारी एक मजबूरी बन गया है और साथ ही साथ हमें यह भी सोचना चाहिए कि क्या इस चक्र
को किसी भी प्रकार तोडा भी जा सकता है ?
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश
काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment