भज गोविन्दम् -
श्लोक सं.8-
का ते कांता
कस्तेपुत्र, संसारोSयं अतीव विचित्रः |
कस्य त्वं कः कुत
अयातः तत्वंचिन्तययदिदंभ्रातः ||8||
अर्थात कौन है हमारा
सच्चा साथी ? हमारा पुत्र कौन है ? इस क्षण भंगुर एवं विचित्र संसार में हमारा
अस्तित्व क्या है ? यह ध्यान देने की बात है |
आदि गुरु शंकराचार्य इस श्लोक में तीन
प्रश्न कर रहे हैं | प्रथम प्रश्न है, कौन हमारा सच्चा साथी है ? दूसरा प्रश्न है,
हमारा कौन पुत्र है ? तीसरा प्रश्न है, हमारा अस्तित्व क्या है ? तीनों ही प्रश्न
गूढ़ हैं और एक दूसरे से सम्बंधित भी | कौन है हमारा सच्चा साथी ? क्या इस जीवन में
हमें अपने परिवार से बाहर अर्थात पिता और माता के अतिरिक्त जो भी नाते-रिश्ते में
व्यक्ति उपलब्ध हुए हैं, वे हमारे सच्चे साथी हैं ? आदि शंकराचार्य महाराज कह रहे
हैं कि व्यक्ति जीवन में अपना सच्चा साथी अपनी पत्नी को मानता है | लेकिन क्या वह
एक सच्चा साथी सिद्ध हो सकती है | हाँ, सांसारिकता और व्यवहार की दृष्टि से देखा
जाये तो यह बात सत्य है कि पत्नी से बढ कर दूसरा अन्य कोई सच्चा साथी नहीं हो सकता
| परन्तु जैसा कि शंकराचार्य जी ने भज गोविन्दम् के छठे श्लोक में कहा है कि देह
के मरते ही पत्नी भी उसी देह को घृणा की दृष्टि से देखने लगती है, भला ऐसे में हम
कैसे कह सकते है कि पत्नी एक सच्चा साथी है ?
दूसरा प्रश्न है कि हमारा पुत्र कौन
है, कौन है हमारा पुत्र ? इस जीवन में जो पुत्र मिला है, क्या आप जानते हैं कि
पूर्वजन्म में उसके साथ आपका क्या सम्बन्ध था ? नहीं जानते न | परमात्मा आपको यह
बात जनाना भी नहीं चाहते | अगर परमात्मा हमें यह जना दे कि हमारा पुत्र पूर्व जन्म
में हमारा दुश्मन था, तो ऐसे में क्या आप उसके साथ एक पिता की तरह व्यवहार कर सकते
हैं ? नहीं कर सकते न | क्यों ? क्या अब वह आपका पुत्र नहीं रहा ? परमात्मा ने सब
कुछ इतना व्यवस्थित और पूर्व नियोजित ढंग से कर रखा है कि जीवन भर आपको इसका पता
भी नहीं चल पाता | सारा खेल केवल कर्म पर आधारित है | कर्मों के अनुसार पत्नी,
पुत्र, सगे सम्बन्धी आदि बनते और मिलते बिछड़ते रहते है | हमारे मोह के कारण हमें
अपनी पत्नी सच्चा साथी प्रतीत होती है, हमें हमारा पुत्र हमारे बुढ़ापे का सहारा
नज़र आता है | वास्तविकता यह है कि हम अपने कर्मों के ऋण अनुबंध के कारण इस जन्म
में एक साथ मिलें हैं | कौन कैसे अपना ऋण चुक कर अथवा चुकाकर कब विदा हो जायेगा
कहा नहीं जा सकता |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश
काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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